भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने से कुछ दिन पहले जस्टिस संजीव खन्ना ने एक कार्यक्रम में कहा था कि किसी न्याय व्यवस्था की पहचान उसके लिए फैसलों की बजाय जेलों में बंद क़ैदियों के साथ व्यवहार से पता चलती है. उन्होंने इशारा किया कि देश की जेलों में क्षमता से ज़्यादा कैदी हैं और दयनीय स्थिति में हैं.
चीफ जस्टिस का पद संभालने के साथ ही उन्होंने बताया कि उनके कार्यकाल में उनकी प्राथमिकताएं प्रकरणों का बैकलॉग कम करने, अदालती कार्यवाही को सरल और सुलभ बनाने, जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को आसान बनाने और नागरिक केंद्रित नजरिया अपनाने पर रहेंगी.
भारत में चीफ जस्टिस का पद न केवल प्रशासनिक जिम्मेदारियों से लदा है, बल्कि वे पेचीदा संवैधानिक व्याख्याओं समेत कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई में भी शामिल रहते हैं. इसलिए उनका मूल्यांकन दोनों ही पहलुओं पर किया जाता है. ऐसे में जस्टिस संजीव खन्ना के छह महीने के कार्यकाल में उनके समक्ष खड़ी सबसे बड़ी चुनौती क्या रहेगी, उन्हें जान लेते हैं.
जजों और कोर्ट स्टाफ की रिक्तियां भरने की ज़रूरत
जजों की संख्या का महत्व इस बात से समझें कि अगर दस लाख बेड वाले अस्पताल में महज 50 डॉक्टर होंगे या किसी विश्वविद्यालय के 10 लाख विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए 50 प्रोफेसर, तो वहां स्वास्थ्य या शिक्षा का क्या स्तर और गुणवत्ता होगी. इसी स्थिति में हमारे लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ यानी न्यायपालिका काम कर रही है. ऐसे में न्याय के स्तर और गुणवत्ता की कल्पना ही की जा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन बनाम भारत सरकार की सुनवाई में कहा था, ‘संविधान के मूल ढांचों में से एक स्वतंत्र और प्रभावी न्याय व्यवस्था भी है. अगर पर्याप्त जज नहीं होंगे तो लोगों को न्याय उपलब्ध नहीं होगा और मूल ढांचे की अनदेखी भी होगी. हम इस बात से चिंतिंत हैं कि रातोंरात खाली पद नहीं भरे जा सकते. अतिरिक्त जजों के लिए हमें केवल जजों के पद सृजित नहीं करने होंगे बल्कि अतिरिक्त अदालतों, इमारतों और स्टाफ की भी जरूरत होगी.’
पिछले दो सालों से देश की उच्च अदालतों और निचली अदालतों में खाली पदों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है. उच्च अदालतों में नवंबर 2024 तक 32% जजों के पद रिक्त थे. इनमें गुजरात और उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा लगभग 44%, बिहार में 38% और ओडिशा और उत्तराखंड में करीब 36% जजों के पद खाली हैं. वहीं, निचली अदालतों में जुलाई 2024 तक 20% जजों के पद खाली थे, जिनमें उत्तर प्रदेश में 34%, झारखंड में 28% और हरियाणा में 27% जजों की कमी है.
सर्वोच्च अदालत में नवंबर 2024 तक 6% जजों के पद रिक्त थे. समस्या केवल स्वीकृत पदों के खाली रहने की नहीं है. अगर वर्तमान के सभी स्वीकृत 25 हजार पदों से करीब 5 हजार खाली पद भर भी जाएं तो भी उनके लिए 5 करोड़ से ज्यादा लंबित प्रकरणों को संभालना आसान नहीं होगा.
आखिर देश में कितने जजों की जरूरत?
देश में आखिर कितने जज होने चाहिए. इसके लिए पिछले 40 सालों में चार अलग-अलग तरीके निकाले गए-
1- टाइम वेटेड डिस्पोजल मेथड
2017 से 2019 के बीच सुप्रीम कोर्ट की ‘नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम्स कमेटी’ ने अध्ययन कर निचली अदालतों के लिए ‘टाइम वेटेड डिस्पोजल मेथड’ दिया. इसमें जजों की सुनवाई के घंटों के हिसाब से लंबित केस के निपटारे की बात कही गई. 2016 में निचली अदालतों में जजों के 20,558 स्वीकृत पद थे. जिनमें 110% की बढ़ोत्तरी मिलाकर कुल 43,171 जजों की आवश्यकता बताई गई. 2022 में चीफ जस्टिसेज कॉन्फ्रेंस में इन सिफारिशों को पूरा करने का संकल्प पारित किया गया.
2- फोरकास्ट मेथड
2016 में ‘सुप्रीम कोर्ट सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग’ की रिपोर्ट ने मानव विकास सूचकांक, साक्षरता दर और आबादी की गणना कर बताया कि जिला अदालतों में दाखिल होने वाले केस के निपटारे के लिए 2040 तक 40 से 80 हजार तक जज चाहिए होंगे.
3- डिस्पोजल मेथड
2014 में विधि आयोग ने अपनी ‘एरियर्स एंड बैकलॉग: क्रिएटिंग एडिशनल जुडिशल वु(मैनपावर)’ शीर्षक वाली 245वीं रिपोर्ट में जजों की आदर्श संख्या जानने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया. 14 राज्यों में प्रयोग के तौर पर देखा गया कि इनके लंबित केस को निपटाने के लिए अतिरिक्त 11,677 जज और नए दर्ज होने वाले केस को संभालने के लिए 348 अतिरिक्त जजों की ज़रूरत होगी.
4- डेमोग्रैफिक मेथड
आबादी के अनुसार जजों की संख्या तय करने के लिए 120वें लॉ कमीशन ने 1987 में बताया कि प्रति दस लाख आबादी पर 50 जज होने चाहिए, लेकिन हमारे पास आज भी 21 जज प्रति दस लाख ही हैं. 1987 में देश में देश में करीब साढ़े सात हजार जज थे, जिन्हें पांच साल के अंदर पांच गुना से ज्यादा बढ़ाकर 40 हजार करने की सिफारिश की गई थी.
चीन में प्रति दस लाख की आबादी पर करीब 300 जज उपलब्ध हैं तो अमेरिका में यह आंकड़ा 150 जज का है. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ‘स्टेट ऑफ द ज्यूडिशियरी’ रिपोर्ट में माना कि 2023 में इस गणित से हमारे जजों की संख्या 69,600 होनी चाहिए.
2015 से 2022 के बीच लंबित केस करीब 60 फीसदी की दर से बढ़े, तो जजों की संख्या 22% की दर से बढ़ी. जजों की कमी का असर लंबित केस की बढ़ती दर पर तो दिखता ही है लेकिन इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव जिसकी ज्यादा चर्चा नहीं होती, केस की तारीख मिलने में देरी, सुनवाई की अवधि और कुल मिलाकर न्याय की गुणवत्ता पर भी पड़ता है.
45% केस 5 साल से ज्यादा समय से लंबित
लंबित केस के मसले पर सबसे बुरी स्थिति निचली अदालतों की है. इनमें 22% केस 5-10 साल से लंबित हैं और 23% केस की 10 साल से ज्यादा समय से सुनवाई चल रही है. यानी करीब 45% 5 साल से ज्यादा समय से पड़े हैं. कम जजों पर लंबित केस की संख्या से जजों पर कार्यभार बढ़ता ही जा रहा है.
नवंबर 2024 तक सुप्रीम कोर्ट में 82 हजार से ज्यादा, उच्च अदालतों में 61 लाख और निचली अदालतों में करीब साढ़े 4 करोड़ केस लंबित थे. तीनों को मिलाकर देश की न्यायपालिका पर लगभग 5 करोड़ से ज्यादा लंबित केस का बोझ है.
सुप्रीम कोर्ट और उच्च अदालतों में ही 17% केस ऐसे हैं, जो 5 से लेकर 10 साल से लंबित हैं. सुप्रीम कोर्ट में 7% और उच्च अदालतों में 9% केस 10 साल से ज्यादा समय से अटके हुए हैं.
सुप्रीम कोर्ट के प्रत्येक जज पर 2,575 केस का भार है, तो उच्च अदालत के हर जज पर 8,008 केस की सुनवाई की जिम्मेदारी है और निचली अदालतों के प्रति जज पर 2,218 केस का भार है. राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो देश में 21,165 जज हैं, जिन पर प्रति जज 2,427 केस की सुनवाई का जिम्मा है.
अगर सीजेआई संजीव खन्ना इन पहलुओं पर काम कर सके तो उनके बाद आने वाले मुख्य न्यायाधीशों की राह आसान होगी और उनका छह महीने का छोटा कार्यकाल भी इस मायने में सफल माना जाएगा.
(लेखक ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ के साथ काम करते हैं.)