सरगुजा/सूरजपुर: छत्तीसगढ़ के हसदेव क्षेत्र में अडानी समूह द्वारा संचालित कोयले की खदानों को लेकर तमाम अनियमितताओं और धांधलियों की ख़बरें आती रहती हैं. मुआवज़ों का असंगत वितरण, ग्राम सभाओं का फर्जी अनुमोदन, पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन से लेकर पुनर्वास के झूठे वादे जैसे आरोप पिछले वर्षों में अडानी माइनिंग प्राईवेट लिमिटेड पर लगते रहे हैं.
इस मुद्दे के एक अन्य पहलू पर कम चर्चा हुई है- अडानी द्वारा अनाधिकारिक तौर पर स्थानीय आदिवासी की भर्ती, जिसने ग्रामीण संस्कृति को गहरी चोट पहुंचाई है, समाज को विभाजित कर दिया है.
कौन हैं ये कोऑर्डिनेटर
हसदेव क्षेत्र में जंगल कटाई, विस्थापन और मुआवज़े से जुड़ी विसंगतियों को लेकर विरोध के स्वर उठते रहे हैं. इस जमीन के भीतर पांच अरब टन कोयला होने का अनुमान है और इसके ऊपर लाखों वृक्षों से आच्छादित वन हैं.
स्थानीय निवासी कहते हैं कि उनके प्रतिरोध को मंद करने के लिए अडानी समूह ने अप्रत्यक्ष ढंग से स्थानीय आदिवासी नियुक्त किये हैं जिन्हें कोऑर्डिनेटर कहा जाता है. अप्रत्यक्ष इसलिए कि इन्हें मिलने वाली तनख्वाह के दस हज़ार रुपये कंपनी सीधे नहीं देती, बल्कि कंपनी के लिए काम कर रहे वेंडर्स इन्हें यह पैसा देते हैं, ताकि न वे नौकरी का दावा कर सकें और न ही अडानी समूह से उनकी संबद्धता साबित की जा सके.
उन्होंने आगे बताया कि ये कोऑर्डिनेटर गांवों में कंपनी का पक्ष रखते हैं, ग्रामीणों को बिना विरोध मुआवजा लेने और किसी भी प्रकार के आंदोलन से दूर रहने के लिए राजी करते हैं.
निवासियों के अनुसार, समूचे हसदेव क्षेत्र में ये कोऑर्डिनेटर 70 से लेकर 200 तक की संख्या में हैं. अडानी माइनिंग प्राइवेट लिमिटेड की योजनाबद्ध कार्यशैली का इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्ष 2025 के अधिग्रहण के मद्देनज़र वर्ष 2022 से ही संभावित क्षेत्रों में कोऑर्डिनेटर्स को सक्रिय कर दिया गया था. 2025 के जनवरी-फरवरी माह में हसदेव क्षेत्र के परसा कोल ब्लॉक के लिए सूरजपुर जिले के फतेहपुर, घाटबर्रा, साल्ही, जर्नादनपुर के कुछ हिस्सों में भूमि अधिग्रहण और मुआवज़ा वितरण होना है. लेकिन तीन वर्ष पहले से भावी प्रतिरोध को कमजोर करने की कोशिशें शुरू हो गयी थीं. यह काम कोऑर्डिनेटर्स को अग्रिम पंक्ति का योद्धा बनाकर किया गया.
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‘अडानी कंपनी क़ानून और नियमों की धज्जियां उड़ाकर हसदेव में प्राकृतिक संसाधनों को लूट रही है. यहाँ ग्रामसभाओं के फर्जी और कूट रचित दस्तावेज तैयार किए गए हैं. कंपनी आंदोलन को तोड़ने और बदनाम करने के लिये दुष्प्रचार भी करती है,’ हसदेव बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला कहते हैं. आलोक शुक्ला को हसदेव में उनके संघर्ष के लिये इस बरस का गोल्डमैन एनवायर्नमेंटल सम्मान मिला है, जिसे ‘ग्रीन नोबेल’ भी कहा जाता है.
वे आगे जोड़ते हैं, ‘अडानी समूह के अधिकारी गांव के ही कुछ प्रभावशाली लोगों द्वारा गांव में मतभेद पैदा कर खनन के लिए माहौल बनाते हैं. पिछले दिनों हसदेव में केते एक्सटेंशन खदान के लिए हुई जनसुनवाई इसका उदाहरण है. सुनवाई के एक दिन पहले ये कोऑर्डिनेटर रात में लोगों को गाड़ियों में भरकर लाए, और खदान का समर्थन करवाया.’
इन कोऑर्डिनेटर को आपको ढूंढना नहीं पड़ता. प्रभावित गांवों में प्रवेश करते ही ये आपके पास आकर आपको जानने की कोशिश करते हैं, आपका नाम गूगल सर्च करते हैं और ज़रा भी शक होने पर आपकी और आपके वाहन की तस्वीर लेकर कंपनी के अधिकारियों को भेज सकते हैं.
सूरजपुर ज़िले के फतेहपुर में चार-पांच कोऑर्डिनेटर्स के एक समूह द वायर हिंदी को बताया कि उनका प्रमुख कार्य गांव में लोगों को समझाना है कि विरोध करने का कोई फायदा नहीं होगा, मुआवजे की राशि लेकर अपनी ज़मीन दे देना ही फ़ायदे का सौदा है.
हसदेव बचाओ आंदोलन से जुड़ी फतेहपुर की सुनीता पोर्ते ने बताया, ‘कोऑर्डिनेटर को ठेकेदार की ओर से रखा जाता है और उन्हें लगभग दस हज़ार रुपये हर माह मिलते हैं. ये आंदोलनकारियों और खदान विरोधियों पर नज़र रखते हैं.’
उन्होंने बताया कि जंगल कटाई के समय नए लोगों को कोऑर्डिनेटर के रूप में जोड़ा जाता है. ‘2012 में परसा-केते खदान खुलने के समय करीब 10-11 कोऑर्डिनेटर रहे होंगे, अब लगभग 200 हो गए हैं.’
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सुनीता पोर्ते ने कहा कि कोऑर्डिनेटर को सरकारी संरक्षण भी मिलता है. ‘अक्टूबर में जब पेड़ कटाई हुई तो हम लोग पेड़ बचाने के लिए रात को जंगल में सोए थे. हमने देखा कि हमारे गांव के कोऑर्डिनेटर पुलिस की उपस्थिति में हम पर पत्थर फेंक रहे थे. ‘
फतेहपुर के मुनेश्वर कहते हैं कि ‘कोऑर्डिनेटर जंगल-कटाई के समय सरकार और पत्रकारों के सामने ऐसा चित्र पेश करते हैं कि सभी लोग जंगल-कटाई के लिए सहमत हैं. इनको चौराहे पर बैठकर बोलना है कि खदान सही है. ये लोग हम लोगों की जासूसी करते हैं. फेसबुक-ट्विटर पर अगर हम खदान या भूमि अधिग्रहण के विरोध में लिखते हैं तो ये उसको काउंटर भी करते हैं.’
स्थानीय लोगों का कहना है कि कोऑर्डिनेटर कोयला उत्खनन के पक्ष में बिल्कुल एक जैसे तर्क देते हैं. ऐसा लगता है कि उन्हें बाकायदा प्रशिक्षित किया गया है.
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दिलचस्प है कि द वायर हिंदी से एक कोऑर्डिनेटर ने कहा, ‘ये (आंदोलनकारी) लोग जानबूझकर ज्यादा बोलने वाली तेज औरतों को आगे करके विरोध चला रहे हैं. जो जितना बोलना जानता है, उसे उतना ही अधिक पैसा मिलता है. सब (खदान-विरोधी लोग) तनख्वाह पर हैं.’
विभाजित समाज
इन कोऑर्डिनेटर्स ने गांवों के समाज और संस्कृति को बुरी तरह प्रभावित किया है, परिवारों को विभाजित कर दिया है. गोंड समुदाय के फतेहपुर गांव में कोऑर्डिनेटर्स के कारण बिगड़ी स्थिति को इस उदाहरण से समझें. इस गांव का एक रसूखदार व्यक्ति कोऑर्डिनेटर है. इस गांव की देवी डईहारिन दाई के पवित्र स्थान पर कोऑर्डिनेटर और उसके परिवार का आधिपत्य है. चूंकि वे सभी खदान-समर्थक हैं, कुछ समय पहले उनका खदान-विरोधी समुदाय से विवाद इतना बढ़ गया कि विरोधी गुट अपनी देवी की अलग स्थापना करने के लिए तैयार हो गया था.
हालांकि, यह अंततः नहीं हुआ, लेकिन किसी आदिवासी गांव में देवस्थान को पृथक करना बहुत गंभीर घटना है और ऐसी कोई कोशिश भी बहुत गहरे आंतरिक विभाजन को दर्शाती है.
अडानी समूह के उत्खनन से जुड़े मामलों पर गहरी नजर रखने वाले स्थानीय पत्रकार क्रांति कुमार रावत ने बताया कि ‘क्षेत्र के कुछ लोग अपने जल, जंगल, ज़मीन को बचाने के लिए काम कर रहे हैं और कुछ खदान का समर्थन कर रहे हैं. इससे भाई-भाई में ही विरोध हो गया है.’
सुनीता पोर्ते कहती हैं, ‘उनकी रणनीति फूट डालने की है. ये हमें समाज के सामने बदनाम भी करते हैं कि हमें विदेश से पैसा मिलता है.’
पैसा प्रतिरोध को मंद कर देता है
सरगुजा क्षेत्र के आदिवासी भविष्य के लिए अमूमन बचत नहीं करते. इसलिए वे जन्म, मृत्यु, विवाह, बीमारी, त्योहार जैसे अवसरों पर उधार लेते हैं. जबसे अडानी कंपनी इस क्षेत्र में आई है, आदिवासी कंपनी के अधिकारियों से इन कोऑर्डिनेटर के ज़रिये कुछ हजार रुपये ले लेते हैं. चूँकि इस राशि को वापस लेने में ये अधिकारी दिलचस्पी नहीं दिखाते, इस एहसान के बोझ तले जीते आदिवासी की प्रतिरोध की चेतना धीरे-धीरे मंद हो जाती है.
उदयपुर गांव के पत्रकार ललन ने इसमें एक अन्य पहलू जोड़ते हुए कहा कि ‘खदान शुरू होने से पहले खदान समर्थकों की संख्या कम होती है, लेकिन जब यह सुनिश्चित हो जाता है कि खदान खुलेगा तब समर्थक बढ़ते जाते हैं और खदान विरोधी धीरे-धीरे अपने निजी आर्थिक लाभ देखने लगते हैं.’
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आंतरिक अंतर्विरोध
द वायर हिंदी से बात करते समय कोऑर्डिनेटर के अंतर्विरोध और असंतोष भी उभर कर आए. एक कोऑर्डिनेटर ने बताया कि ‘उनके गांवों में जिन बाहरी लोगों ने ज़मीन खरीद ली थी, उन्हें नौकरी मिल रही है और हम लोग जो पहले से कंपनी के लिए काम कर रहे हैं उनकी नौकरी को लेकर स्पष्टता नहीं है. इसलिए सभी कोऑर्डिनेटर कंपनी के सामने अपनी मांगें रखने की सोच रहे हैं.’
इसके अलावा दस हज़ार रुपये महीना मिलने से कुछ कोऑर्डिनेटर शराब की गिरफ्त में आ गए हैं. दस हज़ार इस इलाके में बड़ी रकम है. एक बोतल महुए की शराब सौ रुपये में मिल जाती है.
जब द वायर हिंदी ने अडानी समूह के अधिकारी से संपर्क किया, उन्होंने इससे एकदम इनकार कर दिया, और नाम न बताने की शर्त पर कहा कि उनकी कंपनी में ‘कोई सवैतनिक कोऑर्डिनेटर नहीं हैं. जो लोग रोज़गार,शिक्षा और विकास के पक्ष में हैं, वे अपने आप खदान का समर्थन कर रहे हैं.’
मुझे अपने एक पत्रकार दोस्त की याद आई जिन्हें अडानी के अधिकारियों ने अपने वृक्षारोपण को दिखाते हुए बीच में ठिठककर एक गिरगिट और दो पक्षियों की ओर इशारा करते हुए कहा था, ‘देखिए ये जीव-जंतु भी जंगल में आने लगे हैं.धीरे-धीरे भालू बंदर भी आएंगे. बायोडायवर्सिटी को लेकर ऐसा कोई खतरा है नहीं, जैसा आप लोग बताते हैं.’
(महेश वर्मा मूलतः कवि हैं, सरगुजा में रहते हैं.)