अल्पसंख्यक अधिकार और आंबेडकर की धरोहर के साथ विश्वासघात

बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि अधिकारों को केवल क़ानून में लिख देने से उनकी रक्षा सुनिश्चित नहीं होती, समाज की सामूहिक नैतिक और सामाजिक चेतना ही इन अधिकारों को जीवन देती है. आज 'नए भारत' में रोज़ संवैधानिक अधिकारों पर हो रहे हमले इसी को लेकर चेता रहे हैं.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

26 नवंबर को भारत ने संविधान दिवस मनाया और इस दिन को एक महान उत्सव के रूप में प्रस्तुत किया गया. हर राजनीतिक दल, सिविल सोसाइटी संगठन, और नागरिक यह दिखाने में लगे हुए थे कि वे संविधान का सम्मान करते हैं. यह दृश्य ऐसा था जैसे हर कोई यह मानता हो कि संविधान ही हमारे लोकतंत्र का मूल है. संविधान के सम्मान का यह शोर केवल एक सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है, या फिर वास्तविकता कुछ और है?

इस उत्सव के पीछे एक गंभीर और खतरनाक सच भी छुपा हुआ है. जनता के बीच अब यह गहरी चिंता घर कर गई है कि हमारा संविधान अब खतरे में है, और इसका खतरा उस राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा है जिसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बढ़ावा दे रही है. भाजपा, जो केंद्र और कई राज्यों में सत्ता में है, संविधान के बजाय मनुस्मृति को लागू करने का ख्वाब देख रही है. आरएसएस/भाजपा का यह ख्वाब ऐसा है जिसे आज़ादी के पहले से भाजपा देख रही है, और आज़ादी के 75 साल बाद भी इसे पूरा करने में अब तक असफल है. कुछ लोग इसे विपक्ष द्वारा गढ़ा गया राजनीतिक एजेंडा मानेंगे, जबकि कुछ इसे एक सच्चाई मानेंगे. तथ्यों के साथ हम इसे पाठकों पर छोड़ देते हैं, सच्चाई है या एजेंडा, यह पाठक तय करेंगे.

संविधान सभा की बहसों और आज के राजनीतिक परिदृश्य को देखने पर एक गहरी असंगति सामने आती है. क्या मौजूदा सरकार संविधान में दिए गए मूल्यों के अनुरूप कार्य कर रही है? भाजपा शासित राज्यों में जो हालात हैं, वह न केवल चिंता का विषय हैं, बल्कि एक खतरनाक संकेत भी देते हैं. मस्जिदों के नीचे ‘शिवलिंग’ खोजने की होड़, जो कभी न कभी भाजपा से जुड़े संगठनों द्वारा उकसाई जाती है, यह एक बेजोड़ उदाहरण है. और फिर, इन खोजों को न्यायालयों से मंजूरी मिलना, यह बताता है कि हमारी न्यायपालिका का संविधान के प्रति वफादारी अब सवालों के घेरे में है.

क्या न्यायालय उपासना स्थल अधिनियम का पालन कर रहे हैं? यह अधिनियम स्पष्ट रूप से कहता है कि 15 अगस्त, 1947 के बाद से किसी भी पूजा स्थल का धार्मिक स्वरूप नहीं बदला जा सकता, फिर भी ये घटनाएं हमें एक पूरी तरह से अलग संदेश देती हैं.

इससे स्पष्ट है कि संविधान का सम्मान केवल भाषणों और कागजों तक सीमित रह गया है. असली चुनौती यह है कि संविधान की आत्मा को बचाया जाए, और इसके मूल्यों को सही मायने में लागू किया जाए. अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा, तो भारत का भविष्य क्या होगा? क्या यह केवल एक मजाक बनकर रह जाएगा, या हम सचमुच ऐसी अराजकता के कगार पर हैं, जहां हर दिन एक नया धार्मिक विवाद राजनीतिक लाभ के लिए पैदा किया जा रहा है?

आज मस्जिदों के नीचे ‘शिवलिंग’ खोजे जा रहे हैं, तो कल किसी मंदिरों के नीचे मस्जिदें खोजी जाएंगी. इसके बाद, बौद्ध और जैन धर्मावलंबी भी अपने धार्मिक स्थलों के अवशेष ढूंढने निकल पड़ेंगे. यह न केवल हमारे इतिहास और संस्कृति का मखौल उड़ाएगा, बल्कि धार्मिक और सांप्रदायिक तनाव को जन्म देगा, जो हमारी एकता के ताने-बाने को चीरकर रख देगा.

धार्मिक तनाव सिर्फ एक काल्पनिक चिंता नहीं है, बल्कि यह हमारी वास्तविकता बन चुका है. जब से भाजपा ने सत्ता संभाली है, खासकर उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में, सांप्रदायिक हिंसा और तनाव ने सिर उठाना शुरू किया है. बहराइच और संभल जैसी घटनाएं इसका कड़वा प्रमाण हैं. क्या इन घटनाओं के लिए प्रशासन और खुफिया एजेंसियां जिम्मेदार हैं, या फिर सरकार ने जानबूझकर आंखें मूंद लीं ताकि आगामी चुनावों में उसे फायदा मिल सके? और जब संभल में पुलिस द्वारा मुसलमानों की बेरहमी से हत्या की जाती है, तो क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं है? क्या इसे हम धार्मिक संहार नहीं मान सकते?

ऐसा लगता है कि कुछ न्यायाधीश अब संविधान की रक्षा करने के बजाय अपने निजी पूर्वाग्रहों और सत्ताधारी पार्टी के हितों के तहत फैसले दे रहे हैं. इस से भाजपा को अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने और मुसलमानों को निशाना बनाने का मौका मिल रहा है, ताकि हिंदू वोटरों को एकजुट किया जा सके.

और अब तो इस सब में एक और खतरनाक कदम भी उठाया गया है, सरकारी अधिकारियों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल होने की इजाज़त दे दी गई है. भाजपा का तो यही दावा है कि आरएसएस एक ‘सांस्कृतिक संगठन’ है, लेकिन क्या यह वाकई सच है?

यह कदम दरअसल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक ही विचारधारा के तले लाने की मंशा से उठाया गया है. यह तो जैसे सत्ता के हर क्षेत्र में घुसपैठ करने की एक सोची-समझी साज़िश है. अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा, तो हम लोकतंत्र और संविधान की रक्षा करने के बजाय, एक विचारधारा की कठपुतलियां बनकर रह जाएंगे.

जब हम भारत के वर्तमान सांप्रदायिक माहौल को देखते हैं, तो डॉ. भीमराव आंबेडकर के संविधान सभा में दिए गए शब्द हमारे सामने गूंजने लगते हैं. 1 मई, 1947 को महावीर त्यागी ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर चर्चा को यह कहते हुए स्थगित करने का प्रस्ताव दिया कि पहले पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ कैसा सलूक हो रहा है, इसे देखा जाए.

इस पर डॉ. आंबेडकर ने दृढ़ता से जवाब दिया, ‘अल्पसंख्यकों के अधिकार परम अधिकार हैं. इन्हें किसी भी हालत में कमजोर नहीं किया जा सकता.’ उनके इस कथन ने उनके अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने के प्रति अडिग संकल्प को रेखांकित किया, ऐसे अधिकार जो न तो सौदेबाजी के लिए थे और न ही किसी बाहरी परिस्थिति के दबाव में झुकने वाले.

मुंबई के सिद्धार्थ कॉलेज में दिए गए एक अन्य भाषण में डॉ. आंबेडकर ने मौलिक अधिकारों को लागू करने की चुनौतियों पर चर्चा की. उन्होंने कहा, ‘हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार देना निःसंदेह एक प्रशंसनीय विचार है. पर सवाल यह है कि इन्हें प्रभावी कैसे बनाया जाए.’

उन्होंने चेतावनी दी थी कि अधिकारों को केवल क़ानून में लिख देने से उनकी रक्षा सुनिश्चित नहीं होती. समाज की सामूहिक नैतिक और सामाजिक चेतना ही इन अधिकारों को जीवन देती है. अगर समाज इन आदर्शों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है, तो क़ानून अकेले इनकी रक्षा नहीं कर सकते.

आज जब हम अपने चारों ओर घटित हो रही घटनाओं को देखते हैं, तो आंबेडकर के इन भयावह सचों के गहरे मर्म का एहसास होता है. उन्होंने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया, इस विश्वास के साथ कि समानता, समृद्धि और शांति क़ानून के शासन से हासिल की जा सकती है. फिर भी, हम देखते हैं कि सबसे अच्छे क़ानून भी उन पर निर्भर करते हैं जो सत्ता में हैं, और यह कि वे उन्हें ईमानदारी से लागू करें. जब हम संविधान सभा की चर्चाओं को आज की सरकार की कार्यवाहियों से तुलना करते हैं, तो यह खाई बहुत दर्दनाक रूप से सामने आती है.

वही संविधान, जिसे बनाने में आंबेडकर ने अपना जीवन समर्पित किया, आज की घटनाओं को देखते हुए यह साफ़ दिखाई देता है कि आज संविधान सच में खतरे में है. अगर यह एक चेतावनी नहीं है, तो फिर क्या है?

ऐसा लगता है कि हमारा संविधान, जो हमारा सबसे बड़ा रक्षक है, अब खतरे में है- और यह खतरा किसी बाहरी दुश्मन से नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता पर बैठे लोगों और खुद को सांस्कृतिक संस्था कहने वाले संगठन से है.

(कंचना यादव राष्ट्रीय जनता दल की राष्ट्रीय प्रवक्ता और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं. महेश चौधरी स्वतंत्र पत्रकार हैं.)