सुशील कुमार शिंदे ने अपनी आत्मकथा में की पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की तारीफ

पुस्तक अंश: मुझे राव के साथ काफ़ी क़रीब से काम करने का मौक़ा मिला. मैंने उनसे सीखा कि एक अनुभवी नेता कठिन परिस्थितियों का सामना भी किस तरह करता है. राव एक विद्वान् और कुशल लेखक थे.

(फोटो साभार: सेतु प्रकाशन समूह)

भारत के पूर्व गृहमंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे ने अपने जीवन के अनुभवों, राजनीतिक संघर्षों और सार्वजनिक सेवा की यात्रा को आत्मकथा ‘राजनीतिक सफर के पांच दशक’ में संजोया है. सेतु प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित और पत्रकार रशीद किदवाई के सहयोग से लिखी गई यह आत्मकथा, शिंदे के व्यक्तिगत व राजनीतिक जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करती है.

इस विशेष अंश में शिंदे ने अपने राजनीतिक करियर की चुनौतियों, सामाजिक असमानताओं से निपटने के अनुभवों और महत्वपूर्ण सरकारी फैसलों के पीछे की सोच को साझा किया है. चाहे वह महाराष्ट्र के वित्त मंत्री के रूप में संवैधानिक संकट हो, मुख्यमंत्री रहते अन्ना हजारे की भूख हड़ताल का समाधान हो, या एक साधारण परिवेश से निकलकर राष्ट्रीय राजनीति के शिखर तक पहुंचने की उनकी प्रेरणादायक कहानी.

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वे चुनौतियां जिनका मैंने सामना किया

1980 के दशक की शुरुआत में मुझे महाराष्ट्र का वित्त मंत्री बने एक साल भी नहीं हुआ था कि एक बड़ी संवैधानिक उलझन सामने आ गयी. विधायिका के ऊपरी सदन ने वित्त विधेयक में एक संशोधन पारित किया था. लेकिन निचला सदन उसपर ध्यान नहीं दे पाया और कोई कार्यवाही किये बगैर ही राज्य का बजट पारित हो गया. जब यह मामला विधान परिषद् में चर्चा के लिए आया तो मेरी सरकार इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पायी. अब मेरे पास निचले सदन की विशेष बैठक बुलाकर इस संशोधन को चर्चा उपरांत ख़ारिज करने के अलावा कोई और चारा नहीं रह गया था.

किंतु 12 मार्च, 1993 को जो कुछ हुआ, उसकी तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था. एक के बाद एक हुए श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने पूरी मुंबई को हिलाकर रख दिया था. इनमें क़रीब दो सौ लोगों की मौत हुई, जबकि एक हज़ार से भी अधिक लोग घायल हुए थे. इन विस्फोटों ने लोगों में दहशत भर दी थी. पुलिस का मनोबल भी टूटकर बहुत नीचे चला गया था. मैं उस वक़्त राज्यसभा में था और साथ ही कांग्रेस महासचिव भी था, लेकिन मेरे पास किसी तरह की कोई मंत्री स्तरीय ज़िम्मेदारी नहीं थी. किंतु इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. एक पूर्व पुलिसकर्मी के रूप में मैंने चुनौती का डटकर सामना किया और मुझे बड़ी खुशी है कि अधिकांश अपराधियों को कुछ ही घंटों के भीतर पकड़ लिया गया था. इस साज़िश का मक़सद आम लोगों और निवेशकों के भरोसे को हिलाकर ऐसा माहौल बनाना था कि महाराष्ट्र और मुंबई सुरक्षित नहीं है.

एक और बड़ी चुनौती तब सामने आयी, जब मुझे महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया गया. मैं वंचित लोगों के कल्याण के लिए कई महत्वपूर्ण निर्णय ले रहा था और उनमें से एक उन ग़रीब बुजुर्गों की मदद करना था, जो अपने ही बच्चों द्वारा बेघर करने के बाद सड़कों पर भीख मांगकर किसी तरह अपना गुजारा कर रहे थे. ऐसी महिलाओं को आश्रय प्रदान करने के लिए मैंइंदिरा गांधी महिला संरक्षण योजनालेकर आया, लेकिन इसका काफ़ी विरोध हुआ. वैसे तो मेरी छवि एक हंसमुख व्यक्ति की रही है, लेकिन इस योजना को लेकर मैंने सख़्त रवैया बनाये रखा. इस योजना के क्रियान्वयन के पहले ही साल पूरे राज्य में एक लाख से भी अधिक महिलाओं को इसका फ़ायदा मिला. एक और पहलमुख्यमंत्री करियर मार्गदर्शन योजनाके रूप में थी, जो दरअसल मेरे ही अनुभव से उपजी थी. जब मैं छात्र था, तब करियर के मार्गदर्शन को लेकर किसी तरह की कोई औपचारिक प्रणाली अस्तित्व में नहीं थी.

जनवरी 2003 में मुख्यमंत्री का पदभार संभालने के कुछ ही दिनों बाद मुझे एक असल अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा, जब सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे गड़बड़ियों के आरोपी कुछ एनसीपी मंत्रियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करते हुए आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गये. यह संकट न तो मेरे द्वारा पैदा किया गया था (यह वह राजनीतिक संकट था, जो मुझे विरासत में मिला था) और न ही मुझे गठबंधन के एक सहयोगी दल के आरोपी मंत्रियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की आज़ादी मिली हुई थी. लेकिन अंततः मैंने एक रास्ता ढूंढ़ निकाला. इसके तहत आरोपी मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिये और आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को नियुक्त कर दिया गया. हालांकि इससे संकट तो टल गया, लेकिन कई लोगों के मुंह का जायका ख़राब हो गया.

ज़रूरत के वक़्त महाराष्ट्र की मदद करने के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपानीत एनडीए की सरकार को मनाने के वास्ते मैंने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी ओर से हरसंभव प्रयास किये. मेरी मांग बेहद साधारण थी: ओड़िशा, गुजरात और आंध्र प्रदेश को वित्तीय सहायता मुहैया कराने के जो मापदंड लागू किये गये हैं, वही महाराष्ट्र के मामले में भी लागू होने चाहिए. लेकिन दिल्ली के मेरे कई दौरों के बावजूद ऐसा नहीं हो पाया. 

साल 2004 में मैंने जब मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ी, तब तक महाराष्ट्र 9,000 करोड़ रुपये से भी अधिक के क़र्ज़ का भुगतान कर चुका था. इसका नतीजा यह निकला कि विश्व बैंक ने राज्य की वित्तीय मदद बहाल कर दी.

सर्वश्रेष्ठ सांसद का खिताब

मेरा यह सौभाग्य रहा है कि मुझे संसद के दोनों सदनों में सेवा करने और राष्ट्रीय राजनीति की जटिलताओं को निकट से देखने का अवसर मिला. ख़ासकर नब्बे का दशक कांग्रेस के लिए एक बेहद कठिन दौर था, जब पार्टी को एक के बाद दूसरे संकटों यथा, अंदरूनी अशांति, बाबरी मस्जिद का विध्वंस और मुंबई में सिलसिलेवार बम विस्फोटों का सामना करना पड़ा. फिर 1996 के प्रारंभ में जैन डायरियों में लगे कथित आरोपों के बाद कई वरिष्ठ नेताओं और मंत्रियों ने पार्टी छोड़ दी. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर भी तब कई गम्भीर आरोप लगे थे.

मुझे राव के साथ काफ़ी क़रीब से काम करने का मौक़ा मिला. मैंने उनसे सीखा कि एक अनुभवी नेता कठिन परिस्थितियों का सामना भी किस तरह करता है. राव एक विद्वान् और कुशल लेखक थे. उनकी विविध रुचियां थीं और महाराष्ट्र में तो उन्हें मराठी साहित्य की कई उत्कृष्ट कृतियों के उनके द्वारा तेलुगु में किये गये शानदार अनुवाद के लिए बेहद सम्मान की नज़रों से देखा जाता रहा. हालांकि मुझे राजीव गांधी के अधीन कार्य करने का अवसर नहीं मिल पाया, लेकिन मैं महसूस कर सकता हूं कि उनका कितना व्यापक असर रहा होगा.

राज्यसभा में सदस्य के तौर पर मैंने राष्ट्रीय महत्त्व के कई मुद्दे उठाये और अंततः 1992 से 1998 के दौरान ऊपरी सदन में मेरे छह साल के कार्यकाल के लिए मुझे सर्वश्रेष्ठ सांसद चुना गया. राज्यसभा में मेरी शुरुआत एक घटना से संबंधित ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के माध्यम से हुई थी. यह घटना भाजपा शासित राजस्थान में घटी थी, जिसमें 12 दलितों को कथित तौर पर जलाकर मार दिया गया था. मैंने अपने भाषण में पूरे तथ्यों और आंकड़ों के साथ प्रधानमंत्री का ध्यान इस ओर आकृष्ट करवाया कि भाजपा शासित राज्यों में दलितों पर अत्याचारों में किस तरह इज़ाफ़ा हो रहा है. मेरे इस भाषण की न केवल मेरी पार्टी के अध्यक्ष ने, बल्कि कई विपक्षी नेताओं ने भी सराहना की.

राज्यसभा में छह वर्षों के दौरान मैंने सैकड़ों तारांकित और अतारांकित सवाल पूछे. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों के लिए आरक्षित पदों को भरने तथा गरीबों को ग़रीबी रेखा से ऊपर उठाने में सरकारी अफ़सरों की उदासीनता को रेखांकित किया. मैंने 14 प्राइवेट मेंबर बिल प्रस्तुत किये और इस तरह यह साबित किया कि सत्तारूढ़ पार्टी का भी कोई सदस्य अपनी हदों के भीतर रहते हुए सिस्टम से लड़ सकता है. 9 मार्च, 1996 को मदर टेरेसा ने संसद में मेरे प्रदर्शन के लिए मुझे नेशनल सिटीज़न अवार्ड से सम्मानित किया.

जब 1990 के उत्तरार्द्ध में मुझे कांग्रेस महासचिव के पद से हटा दिया गया तो कई लोगों का मानना था कि राजनीति में मेरा अब कोई भविष्य नहीं बचा है. लेकिन उनका यह आकलन पूरी तरह से ग़लत था, क्योंकि इसके बाद भी मैंने कई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों का निर्वहन किया. जब भी मुझे कभी कोई पद नहीं मिला तो मैंने इसे दिल पर नहीं लिया.

ज़ीरो क्लब

मैं उस समूह का हिस्सा था, जिसेजीरो क्लबकहता हूं. मैं उन लोगों को इस क्लब का सदस्य मानता हूं, जिनके पास शुरू में कुछ भी नहीं था, लेकिन इसके बावजूद वे अपनी जिंदगी में काफ़ी ऊंचाइयों तक पहुंचे, इतनी ऊंचाइयों तक कि उसके बारे में उन्होंने स्वयं कभी कोई कल्पना नहीं की होगी. 2007 का वह यादगार पल अब भी मेरी स्मृतियों में ताजा है, जब पद्मश्री डी.वाई. पाटिल यूनिवर्सिटी ने मुझे मानद डी. लिट्. (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) की उपाधि प्रदान की थी. 

इस समारोह के मुख्य अतिथि इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के अध्यक्ष डॉ. रघुनाथ माशेलकर थे, जिन्हें मैंजीरो क्लबका ही एक और सदस्य मानता हूं. जैसा कि अधिकांश पाठक जानते हैं कि डॉ. माशेलकर भारत के एक प्रमुख वैज्ञानिक रहे हैं. उन्होंने नेशनल केमिकल लेबोरेट्री और काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एण्ड इण्डस्ट्रियल रिसर्च में अहम योगदान दिया है. वे कई कमेटियों के प्रमुख रहे हैं और भारत के पारंपरिक ज्ञान पर विदेशी पेटेण्ट्स के ख़िलाफ़ चले अभियान का सफल नेतृत्व किया है. समारोह में उपस्थित श्रोताओं को संबोधित करते हुए डॉ. माशेलकर ने बताया कि वे छह साल के भी नहीं थे कि उनके पिता का देहांत हो गया. मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में हालांकि उनकी 11वीं रैंक आयी थी, लेकिन उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें कॉलेज भेज सके. फिर स्कॉलरशिप उनका सहारा बनी और आख़िरकार देश को एक महान् वैज्ञानिक मिल सका.

मैं जिस सामाजिक परिवेश में पलाबढ़ा हूं, उसमें रहने वालों का एकमात्र उद्देश्य किसी तरह अपने आप को जीवित भर रखना था. वे बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी कमा पाते थे. उनका दायरा बेहद सीमित था. उनके पास कोई प्रेरणा नहीं थी, कुछ पाने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी और वे मानते थे कि उनका पूरा जीवन निरुद्देश्य है. मेरे जैसे बच्चे स्कूल जाने के बजाय समय काटने के लिए आवारागर्दी किया करते, गैंग बनाकर एकदूसरे से लड़ाईझगड़े करते और चोरीछिपे सिनेमाघरों में घुसकर फ़िल्में देखा करते.

अधिकांश हिंदू परिवारों की तरह मेरे घर में भी पूजापाठ करने की परम्परा थी और पवित्र दिनों में मेरे मातापिता भी व्रत रखा करते थे. लेकिन मेरे घर में किसी तरह का कोई धर्मग्रंथ नहीं था. चूंकि मेरे मातापिता बहुत ज़्यादा पढ़ेलिखे नहीं थे, इसलिए लिखे हुए शब्दों के प्रति सहज नहीं थे. लेकिन उन्होंने यह ज़रूर सुनिश्चित किया था कि मैं अच्छी शिक्षा हासिल कर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ सकूं. किंतु पिता के निधन के बाद स्कूल से मेरा नाता टूट गया. हालांकि मेरी मां और सौतेली मां मेरे स्कूल जाने पर जोर देती थीं, लेकिन कुछ अरसे तक मैं स्कूल जाने से बचता रहा. उन्होंने धीरज नहीं खोया और धार्मिक कहानियां सुनाती रहीं. सभी में एक जैसे उपदेश निहित थे: अपनी चीज़ों को दूसरों के साथ साझा करो, अपनों से बड़ों का सम्मान करो और ज़रूरतमंदों की मदद करो. सदियों से चली आ रहीं इन नैतिक शिक्षाओं का अंततः मुझ पर असर पड़ने लगा और मेरी फिर से पढ़ाई में रुचि जागने लगी.

मैंने अगरबत्तियां व टॉफियां बेचीं और इससे मुझमें यह विश्वास पैदा हुआ कि कठोर परिश्रम से बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है. मैंने तरहतरह के काम किये और इससे बाहरी दुनिया के साथ मेरे संपर्क बढ़े. मेरे क्षितिज में विस्तार हुआ. मुझे उन अन्तर्निहित सीमाओं का एहसास हुआ, जो पुरातन जातिगत व्यवस्था ने न केवल मुझ पर, बल्कि आबादी के एक बड़े हिस्से पर थोप रखी थी और इस वर्ग में जन्म लेने वालों के लिए सामाजिक पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर रहना विवशता बन गयी थी. इसी दौर ने मुझे स्वीकृत मानदंडों पर सवाल उठाना भी सिखाया. यहाँ तक कि मैं अब भी अक्सर स्वयं से पूछता हूं कि अगर सभी हिन्दू एक ही धर्म का अनुसरण करते हैं तो फिर जाति के आधार पर आज भी भेदभाव क्यों बना हुआ है. मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि हमारी सामाजिक व धार्मिक गतिविधियों में सामंजस्य से ज़्यादा विसंगतियाँ हैं.

(साभार: सेतु प्रकाशन समूह)