उम्मीदों के गीतकार शैलेंद्र: तुम हमको याद आओगे…

पुस्तक अंश: शैलेंद्र के हिस्से में कई प्रेम-त्रिकोण फ़िल्में आईं. ऐसी ही एक फिल्म थी ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ जिसका सबसे चमकदार गीत बना— अजीब दास्तां है ये कहां शुरू कहां ख़तम, ये मंज़ि‍लें हैं कौन-सी न वो समझ सके न हम...

(पुस्तक आवरण राजकमल प्रकाशन से साभार)

यह पुस्तक अंश जाने-माने रेडियो उद्घोषक युनूस ख़ान की किताब ‘उम्मीदों के गीतकार शैलेंद्र’ से लिया गया है, जो राजकमल प्रकाशन से छपी है. इस अंश में शैलेंद्र की गीतकाव्य यात्रा को पेश किया गया है, जिसमें गीतों के माध्यम से मानवीय संबंधों की गहराई, जीवन की पेचीदगियों और प्रेम, पीड़ा के जटिल भावनाओं को शब्दों में ढालने की उनकी विशेष शैली को उजागर किया गया है. युनूस ख़ान ने शैलेंद्र के गीतों को न केवल सिनेमा के संदर्भ में, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी मूल्यांकित किया है.

§

शैलेंद्र की पूरी गीत-यात्रा देखें तो पाएंगे वो मानवीय संबंधों की गहनता के कवि हैं, जो गीतकारी की दुनिया में सक्रिय रहे. फिल्मी-गीतों को धुन, सिचुएशन और किरदार के दायरे में रचा जाना होता है. शैलेंद्र ने इन सीमाओं के बावजूद ऐसे गीत रचे जो धड़कते हैं. उनकी एक-एक पंक्ति जुगनू की तरह सुनहरी लकीर खींचती चलती है. इंतज़ार के किसी गीत में वे लिखते हैं—आए न तुम, सौ-सौ दफ़ा आए-गए मौसम. अद्भुत और गहन पर कम चर्चित अपने एक गीत में शैलेंद्र कहते हैं—ठंडी ठंडी सावन की फुहार, पिया आज खिड़की खुली मत छोड़ो. अपने एक अन्य प्रेम-गीत में 
लिखते हैं—एक सुख पाया मैंने सौ दुख सहके. ये सब गीतों में गूंथी गई सूक्तियां ही तो हैं. कहीं शैलेंद्र के भीतर की गहन उदासी किसी गाने में यूं उतरती है—

हैं सबसे मधुर वो गीत, जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती है ख़ुशी आंसू भी छलकते आते हैं.

ये गीत शैलेंद्र के प्रिय अंग्रेज़ी कवि शैली की कविता ‘To A Skylark’ की एक पंक्ति पर आधारित है—‘Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.’ याद रखें कि शैलेंद्र ने अपने एक बेटे का नाम भी ‘शैली’ रखा था.

शैलेंद्र के हिस्से में कई प्रेम-त्रिकोण फिल्में आईं. और उन्होंने इन फिल्मों के लिए बहुत जज़्बाती गीत रचे. तीनों फिल्मों की चर्चा एक साथ करने का कारण यह है कि तीनों के गीतों में शैलेंद्र एक स्त्री के नज़रिये को, उसकी पीड़ा, उसके संघर्ष और द्वन्द्व को उजागर करते हैं. 1960 में आई थी किशोर साहू की फिल्म ‘दिल अपना और प्रीत पराई’. राजकुमार, मीना कुमारी और नादिरा के अभिनय वाली इस फिल्म में शैलेंद्र के पांच गीत थे. हर गीत अपनी चमक लेकर तैयार होता है. ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ इस फिल्म का सबसे चमकदार गीत बना—

अजीब दास्तां है ये कहां शुरू कहां ख़तम
ये मंज़ि‍लें हैं कौन-सी न वो समझ सके न हम॥

गाना दिलीप नाइक के गिटार की तरंगों से शुरू होता है. शंकर-जयकिशन ने इस गाने में एक गाढ़ा और शानदार कोरस रखा है. और फिर लता मंगेशकर की आवाज़. डॉक्टर सुशील (राजकुमार) और नर्स करुणा 
(मीना कुमारी) एक ही अस्पताल में हैं और दोनों के बीच प्यार पनपना शुरू ही होता है कि कश्मीर यात्रा के दौरान मां अनेक कारणों से सुशील की शादी कुसुम के साथ करवा देती हैं. अब सुशील अपनी दुल्हन के साथ लौटा है और नर्सें मिलकर उसे पार्टी देती हैं. जहां करुणा गाने में अपने जज़्बात का इज़हार करती है—

ये रोशनी के साथ क्यों, धुआं उठा चिराग़ से
ये ख़्वाब देखती हूं मैं कि जग पड़ी हूं ख़्वाब से॥

शंकर-जयकिशन गानों की मीठी-पैकेजिंग के मास्टर्स थे. इस गाने में अंतरे में पीटर मोंसोरेट का बहुत ही नशीला ट्रम्पेट है जिसे कोरस की चाशनी में डुबो दिया गया है. ज़ाहिर है कि शैलेंद्र को ट्यून दी गई थी, जिस पर उन्होंने करुणा के टूटे दिल के जज़्बात पिरो दिए. इस गाने को सुनते हुए महसूस होता है कि शैलेंद्र एक स्त्री की टूटन को कितनी गहराई से समझ सकते थे—

मुबारकें तुम्हें कि तुम किसी के नूर हो गए
किसी के इतने पास हो कि सबसे दूर हो गए

असल में शंकर-जयकिशन ने 1956 में जिम रीव्ज़ के रिकॉर्ड किए गाने ‘माइ लिप्स आर सील्ड’ से प्रेरित होकर यह गीत बनाया था, लेकिन अगर मूल गीत को सुनें तो केवल ‘ट्यून’ वहां से आई है. शंकर-जयकिशन ने जिस तरह इस गीत को सजाया है, इसमें मेलोडी, हार्मनी और साज़ों के रंग भरे हैं और किरदार की हालत बयां करते, पटकथा में धंसे शैलेंद्र नाज़ुक बोल. यह गाना मूल धुन से कई गुना बेहतर बन पड़ा है और आज छह दशक बाद भी इस गाने का जादू ऐसा है कि लोग इसे सुनते नहीं थकते. जाने कितनी पीढ़ियों ने इसे अलग-अलग मौक़ों पर गुनगुनाया है. जाने कितने करोड़ बार ये गीत दुनिया-भर में रेडियो पर बजा है, जाने कितनी स्त्रियों ने इस गाने को सुनते हुए आंसुओं से तकिए भिगोए हैं—

किसी का प्यार लेके तुम नया जहां बसाओगे
ये शाम जब भी आएगी, तुम हमको याद आओगे

जीवन में जब प्रेम होता है तो वो एक दीपक की तरह प्रकाश फैलाता है और उसका चले जाना, उसकी अनुपस्थिति धुएं की लकीर बनकर आंखों में जलन पैदा करती है. शैलेंद्र ने इस गहरी बात को फिल्म ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ के गाने में कुछ यूं पिरोया है कि गाना एक टीस बनकर रह गया है. जीवन की राहों में प्रेम के पीछे छूटने की कहानी थी 1963 में आई ‘दिल एक मंदिर.’ एक प्रेम-त्रिकोण. डॉक्टर धर्मेश (राजेंद्र कुमार) के पास जब सीता (मीना कुमारी) और राम (राजकुमार) कैंसर के इलाज के लिए आते हैं तो उनके मन में उथल-पुथल मच जाती है. सीता कभी उनका प्यार थी. अब अपने पति राम के कैंसर का इलाज कराने इस अस्पताल में आई है. हर पल डॉ. धर्मेश को वो दिन याद आते हैं, प्यार के वो दिन, जब दोनों ने एक सुनहरे जीवन के सपने देखे थे. यहां शुरू होता है धर्मेश के जीवन की तड़प का गीत.

गाने की शुरुआत होती है वी. बलसारा के हारमोनियम से—

याद न जाए बीते दिनों की
जाके न आएं जो दिन, दिल क्यूं बुलाए उन्हें,
दिल क्यूं बुलाए॥

हर इंसान को बीते दिनों से सबसे ज़्यादा जुड़ाव होता है. अतीत को याद करना, उसके लिए तड़पना, उसमें जीना—एक जाल है, एक नशा है. शैलेंद्र इस बात को बख़ूबी समझते थे. उन्होंने इसी एहसास पर फिल्म 
‘दूर गगन की छांव में’ का कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन जैसा गीत भी रचा है. इसी तरह फिल्म ‘अनुराधा’ के एक गीत में वो कहते हैं—हाय रे वो दिन क्यों न आए. यहां शैलेंद्र अतीत में जीने की इस तड़प के लिए कहते हैं—

दिन जो पखेरू होते, पिंजरे में मैं रख लेता
पालता उनको जतन से, मोती के दाने देता
सीने से रहता लगाए॥

‘दिल एक मंदिर’ जैसी प्रेम-त्रिकोण वाली फिल्म की चुनौती को
शैलेंद्र कुशलता से निभा ले गए. इस फिल्म के एक अन्य गीत में उन्होंने कैसे जीवन के फ़लसफ़े को, उसकी क्षण-भंगुरता को इन दो पंक्तियों में उतार दिया है—

कल का डरना, काल की चिंता, दो तन हैं मन एक हमारे
जीवन-सीमा के आगे भी आऊंगी मैं संग तुम्हारे
रुक जा रात ठहर जा रे चंदा॥

जीवन में सब कुछ छूटते जाने की अनकही पीड़ा को हम सभी झेलते हैं पर शैलेंद्र ने हमारी इस पीड़ा को शब्द दिए हैं—

तस्वीर उनकी छुपाके, रख दूं जहां जी चाहे
मन में बसी ये मूरत, लेकिन मिटी न मिटाए
कहने को हैं वो पराए॥

इसके अगले साल आई ‘संगम.’ राजकपूर और शैलेंद्र का साथ यहां तक आते-आते सोलह बरस का हो चुका था. इसके बाद शैलेंद्र राजकपूर के लिए एक और फिल्म के गीत लिखनेवाले थे बस. 1966 में शब्दों के इस पंछी को माया-लोक की डाल से उड़ जाना था. बहरहाल, ‘संगम’ एक सपना था राजकपूर का. कभी इसे वो दिलीप कुमार, नरगिस और ख़ुद के साथ बनाना चाहते थे, तब इसका नाम होता ‘घरौंदा.’ पर ये हो न सका. इस प्रेम-त्रिकोण की चुनौती भी शैलेंद्र के सामने आनी थी. ‘संगम’ में शैलेंद्र ने चार गीत लिखे थे. बोल राधा बोल जैसा शरारती गाना भी उन्हीं का कमाल था. कहते हैं कि राजकपूर ने वैजयंतीमाला को ‘संगम’ में राधा का रोल करने की पेशकश की थी. पर उनकी ओर से सहमति नहीं आ रही थी. वह न भी नहीं कह रही थीं. लंबी प्रतीक्षा के बाद एक दिन राजकपूर ने वैजयंतीमाला को चेन्नई एक टेलीग्राम किया—बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं और वहां से जवाब आया—होगा, होगा, होगा. शैलेंद्र ने इस घटना को एक गाने में पिरो दिया था.

जीवन की इस वास्तविक घटना को एक शानदार गीत में बदल देना शैलेंद्र की गीतकारी की अपार प्रतिभा की बानगी है—

कितनी सदियां बीत गई हैं हाय तुझे समझाने में
मेरे जैसा धीरज वाला है कोई और ज़माने में
मन का बढ़ता बोझ कभी कम होगा कि नहीं
बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं॥

इसी फिल्म में बेवफ़ाई के एक नायाब गीत में उन्होंने लिखा—

गले लगीं सहम-सहम, भरे गले से बोलती
वो तुम न थीं, तो कौन था, तुम्हीं तो थीं
सफ़र के वक़्त में पलक पे मोतियों को तोलती
वो तुम न थीं तो कौन था, तुम्हीं तो थीं
नशे की रात ढल गई, अब ख़ुमार न रहा॥

‘संगम’ का कथानक कुछ ऐसा है कि दो दोस्तों के बीच खाई पैदा हो जाती है. पति-पत्नी के बीच अविश्वास की दरार पड़ जाती है. ऊपर हमने जिस अंतरे का ज़िक्र किया उसमें गोपाल सुंदर पर तोहमत लगाता है, जबकि एक अन्य अंतरे में वो अपने दोस्त पर इल्ज़ाम लगाता है—

अमानतें मैं प्यार की, गया था जिसको सौंपकर
वो मेरे दोस्त तुम ही थे, तुम्हीं तो थे
जो ज़िंदगी की राह में, बने थे मेरे हमसफ़र
वो मेरे दोस्त तुम ही थे, तुम्हीं तो थे
सारे भेद खुल गए राज़दार न रहा
ज़िन्दगी हमें तेरा एतबार न रहा.
दोस्त दोस्त न रहा॥

‘संगम’ का यह गीत अपनी फिल्म के साथ-साथ आम ज़िंदगी में इतना घुल-मिल गया है कि एक आधुनिक मुहावरा बन चुका है. इसका एक-एक शब्द, इसकी एक-एक पंक्ति एक नक्श की तरह हमारे दिलों पर उकेरी
जा चुकी है. हिंदी सिनेमा के नायाब पियानो गीतों में भी इसकी गिनती 
होती है.

दो सिरों पर हैं गोपाल और सुंदर. इनके बीच समय ने राधा को कुछ यूं ला खड़ा किया है कि उसके हिस्से में सिर्फ़ तोहमतें हैं, इल्ज़ाम हैं. क्या एक स्त्री का मन भी कोई मायने रखता है? क्या एक स्त्री जीवन के किसी मोड़ पर अपने तईं फ़ैसले नहीं ले सकती? इसी का जवाब शैलेंद्र ने दिया है फिल्म ‘संगम’ के एक बेमिसाल गीत में. लता मंगेशकर के बेचैन आलाप और सितार की धुन से शुरू होता है ये गीत—

ओ मेरे सनम, ओ मेरे सनम
दो जिस्म मगर एक जान हैं हम,
एक दिल के दो अरमान हैं हम॥

इस गाने में सितार दर्द की एक लकीर की तरह पिरो दिया गया है. जाने-माने सितार वादक उस्ताद रईस ख़ां का कमाल है यह. एक गीत राधा के किरदार को कितना बड़ा, कितना समझदार और व्यावहारिक बना देता है. ‘संगम’ जब क्लाइमेक्स पर पहुंचती है, तब आता है यह गीत. शैलेंद्र ने पूरी विशाल पटकथा को इस गाने के तीन अंतरों में समा दिया है, ध्यान रहे ‘संगम’ दो इंटरवल वाली बहुत लंबी फिल्म थी—

तन सौंप दिया, मन सौंप दिया, कुछ और तो मेरे पास नहीं
जो तुमसे है मेरे हमदम, भगवान से भी वो आस नहीं
जिस दिन से हुए एक दूजे के, इस दुनिया से अनजान हैं हम
एक दिल के दो अरमान हैं हम॥

इस गाने के अगले अंतरे का फ़ि‍ल्मांकन दिलचस्प है. राजकपूर यहां गाने पर होंठ हिलाते नज़र नहीं आ रहे हैं. यहां अतीत की कुछ झलकियों का कोलाज रचा गया है. सुंदर के मन में सही और ग़लत को लेकर जो उथल-पुथल है, अविश्वास की गाढ़ी धुंध ने जिस तरह उसकी सोच पर असर डाला है, उसे शैलेंद्र ने इस गीत में उकेरा है—

सुनते हैं प्यार की दुनिया में, दो दिल मुश्किल से समाते हैं
क्या ग़ैर वहां, अपनों तक के साये भी न आने पाते हैं
हमने आख़िर क्या देख लिया, क्या बात है क्यूं हैरान हैं हम
एक दिल के दो अरमान हैं हम
ओ मेरे सनम, ओ मेरे सनम॥

किसी एक घटना से एक दाम्पत्य का ढांचा चरमरा रहा है. जीवन बिखर रहा है. उसे समेटने और नये सिरे से शुरू करने की कोशिश की जा रही है. आधुनिक जीवन में अक्सर रिश्तों का जाल बहुत उलझ जाता है. जीवन की राह पर साथ चल रहे दो लोगों के बीच ग़लतफ़हमियों की धुंध छा जाना बड़ा आसान है. शैलेंद्र इस गीत में कितनी ख़ूबसूरती से सब कुछ भुलाकर आगे बढ़ने की बात कहते हैं. यहां भी वो जीवन का एक फ़लसफ़ा हमें दे जाते हैं, इस अंतरे की एक-एक पंक्ति एक नगीना है—

मेरे अपने अपना ये मिलन, संगम है ये गंगा-जमुना का
जो सच है सामने आया है, जो बीत गया एक सपना था
ये धरती है इंसानों की, कुछ और नहीं इंसान हैं हम
एक दिल के दो अरमान हैं हम॥

ये धरती है इंसानों की, कुछ और नहीं इंसान हैं हम—एक यह बात कितनी चीज़ों का हल है, कितनी उलझनों का निदान है. शैलेंद्र एक दार्शनिक, एक लाइफ़-कोच, एक बुज़ुर्ग, एक दोस्त, एक कवि—कितने-कितने रूपों में हमारे सामने आते हैं. अपने शब्दों का आलोक बिखेरते हैं और जीवन को उजियारे से भर देते हैं.

(साभार: राजकमल प्रकाशन)