ट्रंप की राजनीति जलवायु संकट को किस तरह प्रभावित करेगी?

साल 2023 अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो चुका है और मौजूदा साल के लिए भी यही आशंका जाहिर की जा रही है. ऐसे में अमेरिका, जिस पर जलवायु संकट से बचाव की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, उसकी रणनीति काफी हद तक जलवायु संकट से बचाव की दिशा तय करेगी. लेकिन जब ट्रंप दोबारा अमेरिका की बागडोर संभालने जा रहे हैं, वैश्विक प्रयासों को लेकर संदेह नज़र आ रहा है.

डोनाल्ड ट्रंप. (फोटो साभार: फेसबुक)

पिछले महीने डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने पर वैश्विक स्तर पर काफी तीखी प्रतिक्रिया देखी गई और उनके पिछले कार्यकाल पर उनके द्वारा लिए गए निर्णयों के आधार पर ऐसी प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक भी है. उसी दौरान हुए कॉप-29 की बैठक यहां तक जी-20 की बैठक में भी ट्रंप का दोबारा निर्वाचन वहां लिए जा रहे फैसलों को प्रभावित करता दिखा, खासकर जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में हुए कॉप-29 पर एक अनिश्चितता का वातावरण रहा.

उत्सर्जन के बदलते परिदृश्य के उलट चीन अपनी बढ़ती जलवायु संकट जिम्मेदारियों से एकतरफा और मनमाने तरीके से भागता नज़र आया, जो कुछ-कुछ डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई में मनमाने तरीके से अमेरिका द्वारा पेरिस जलवायु समझौते को मानने से इनकार करने जैसा था.  पेरिस जलवायु समझौते के तहत अगले साल की  शुरुवात में ही सभी भागीदार देशों को अपने राष्ट्रीय  स्तर निर्धारित योगदान (एनडीसी) का खाका प्रस्तुत कर साल के अंत तक उसको आखिरी रूप देना है.

वहीं, पिछले साल के मध्य से वैश्विक उष्मन अब एक नए दौर में जा चुका है, साल 2023 अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो चुका है और मौजूदा साल के लिए भी यही आशंका जाहिर की जा रही है. ऐसे में अमेरिका, जिस पर जलवायु संकट से बचाव की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, उसकी रणनीति काफी हद तक जलवायु संकट से बचाव की दिशा तय करेगी. पर अब जब ट्रंप दोबारा अमेरिका की बागडोर संभालने जा रहे हैं  ऐसे में अमेरिका को लेकर एक बार फिर वैश्विक जलवायु प्रयासों पर संदेह का माहौल बन रहा है.

ऐसा नहीं है कि जलवायु विमर्श केवल वैश्विक राजनीति  को प्रभावित कर रही है, बल्कि अमेरिका की आंतरिक राजनीति में भी उथलपुथल मचा रही है. जाते-जाते अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए साल 2035 तक अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में  2005 के स्तर से कम से कम 61 प्रतिशत कम करने का लक्ष्य रखा है. यह  लक्ष्य अगले साल फ़रवरी तक सभी देशो द्वारा पेरिस जलवायु समझौते के तहत निर्धारित किये जाने वाले एनडीसी की तैयारियों का हिस्सा है. इस फैसले को अमेरिका के जलवायु संकट पर उसके पिछले ढुलमूल रवैये को देखते हुए, इसे अब तक का सबसे कठोर और महत्वकांक्षी निर्णय बताया जा रहा है.

वहीं, जनवरी में अमेरिका की गद्दी संभालने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप, जो जलवायु प्रयासों के उलट फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं, अमेरिका में बाइडेन प्रशासन के दौर में लागू  दर्जनों जलवायु नीतियों को खत्म करने की तैयारी कर रहे हैं, जिसमें हरित उर्जा पर सरकारी आर्थिक सहयोग और प्रदूषण मानक शामिल है.

वैसे मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन डोनाल्ड ट्रंप के मुकाबले जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर थोड़े संवेदनशील माने जाते हैं, पर उन पर भी अमेरिकी दृष्टि हावी रही है जो अक्सर वैश्विक प्रयासों के आड़े आ जाती है और जो सामान्य रूप से अमीर देशो की जलवायु विमर्श पर तालमटोल की नीति के जैसा ही है. मौजूदा लक्ष्य के पहले जो बाइडेन साल 2021 में साल 2030 तक उत्सर्जन में कम से कम पचास प्रतिशत की कमी करने की घोषणा कर चुके है. वो अलग बात है कि जो बाइडेन की पिछले चार साल की इन तथाकथित कठोर फैसलों के बाद  भी एनर्जी इनोवेशन के एक विश्लेषण के अनुसार मौजूदा नीतियों के तहत अमेरिका 2030 तक अपने उत्सर्जन मे मात्र 37 प्रतिशत की ही कमी ला पाएगा.

वैसे पिछले दिनों लिया गया जो बाइडेन का फैसला धरातल पर न ही उतना महत्वाकांक्षी है और न कठोर है, क्योंकि  साल 2035 तक का नया लक्ष्य यह बताने के लिए काफी है कि अमेरिका अपने जलवायु प्रयासों में अपने जलवायु लक्ष्य से कितना दूर चल रहा है. एक स्वतंत्र विश्लेषण के अनुसार, साल 2050 के नेट जीरो लक्ष्य के लिए अमेरिका को साल 2030 तक कम से कम 62% उत्सर्जन कम करने की दरकार होगी. और इस लिहाज से भी जो बाइडेन की मौजूदा घोषणा पेरिस जलवायु समझौते के लिहाज से कम से कम पांच साल पीछे है.

जो बाइडेन का कार्यकाल ट्रंप के पेरिस समझौते से अलग होने के बाद जलवायु संदर्भ में अमेरिका को पटरी पर लाने वाला जरुर रहा है पर कई मामलों में पेरिस जलवायु समझौते से उलट भी रहा. इस दौरान अमेरिका प्राकृतिक गैस का विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश बना और अमेरिका में तेल उत्पादन रिकार्ड ऊंचाई तक जा पंहुचा.

अमेरिका के मौजूदा प्रशासन का नया लक्ष्य गैर-बाध्यकारी लेकिन प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण एनडीसी पेरिस समझौते का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो सभी देश हर पांच साल में नए लक्ष्यों के साथ इसे घोषित करते है. किसी देश का एनडीसी, या जलवायु लक्ष्य, यह बताता है कि वह पूर्व-औद्योगिक समय से तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के वैश्विक लक्ष्य को पूरा करने में मदद करने के लिए वह अपनी क्षमता और जिम्मेदारी के अनुरूप ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कैसे कम करने की योजना बना रहा है.

नए लक्ष्यों के साथ एनडीसी घोषित करने की अगली समय सीमा फरवरी 2025 ही है. खैर बाइडेन प्रशासन ने जो भी लक्ष्य निर्धारित करे, अगले महीने सत्ता संभालने वाले डोनाल्ड ट्रंप अपनी मंशा स्पष्ट रूप से जहिर कर चुके है कि जलवायु परिवर्तन एक झूठा प्रचार है. ऐसे में  ज्यादा संभावना है कि ट्रंप प्रशासन अमेरिका के लिए मौजूदा एनडीसी के लक्ष्य को या तो पूरी तरह से ख़ारिज कर दे ये व्यपक स्तर पर बदलाव के साथ सामने आए. ज्यादा संभावना है कि ट्रंप कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस आधारित परम्परागत ‘उर्जा का प्रभुत्व’ की अपनी धारना को ही लागू करें, जो कि वैश्विक उष्मन और जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है. ऐसे में संभावना है कि सरकारी सहयोग से पनप और फलफूल रहे पवन उर्जा और इलेक्ट्रिक वाहन सेक्टर पहला शिकार बने.

अभी अमेरिका जलवायु को लेकर राजनीतिक रस्साकस्सी का मैदान बना हुआ है. जहां एक तरफ बाइडेन प्रशासन मौजूदा लक्ष्य को अमेरिकी  लोगों की जलवायु संकट से बचाव की इच्छा शक्ति बता रही है. वहीं, ट्रंप का खेमा अपने पिछले कार्यकाल में पिछले दो दशक के सबसे कम कार्बन उत्सर्जन स्तर तक पहुंचाने को अपनी उपलब्धि बता रहा है कि कैसे ये सब अर्थव्यस्था को बिना नुकसान पहुंचाए हासिल हुआ. वो अलग बात है कि ना तो जो बाइडेन की सरकार वैश्विक समुदाय द्वारा निर्धारित जलवायु लक्ष्य के प्रति संजीदा रही है और ट्रंप के पहले कार्यकाल में सबसे कम कार्बन उत्सर्जन का दावा दरअसल कोविड के दौरान आए बंदी का परिणाम था, ना कि सरकारी प्रयासों का.

दुनिया के सबसे बड़े तेल उत्पादक, प्राकृतिक गैस के सबसे बड़े उत्पादक और निर्यातक और सबसे बड़े ऐतिहासिक जलवायु प्रदूषक के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका पर जलवायु संकट से बचाव में सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है, भले ही वहां की अंदरूनी राजनीति  की तासीर जो भी हो.  ट्रंप के पहले  कार्यकाल से अब तक जलवायु परिवर्तन की गति तेज हुई है, वैश्विक परिदृश्य बदले है यहां तक कि अमीर देशों तक मौसम बदलाव की धमक बाढ़, तूफान, जंगल की आग और प्रचंड गर्मी के रूप ने लोगों  को प्रभावित किया है, और अमेरिका भी इससे अछूता नहीं रहा है. ऐसे में ट्रंप के लिए भी पेरिस समझौते से दोबारा मनमाने ढंग से बाहर बाहर निकलना संभव नहीं होगा. पर आने वाले कुछ साल वैश्विक स्तर स्तर पर जलवायु गतिरोध के हो सकते है, वो अलग बात है कि मौजूदा दौर में जहां सबसे अधिक वश्विक एकजुटता की जरुरत थी वही विश्व आने वाले समय में एक बार फिर अमेरिका के गैर संजीदा व्यहार को ले कर सशंकित दिख रहा है.

(लेखक एमिटी विश्वविद्यालय, हरियाणा, के पृथ्वी और पर्यावरण विभाग के प्रमुख हैं.)