‘एकांत में प्रार्थना’: गगन गिल और समकालीन हिंदी कविता का स्वर

गगन गिल को 'मैं जब तक आई बाहर' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा हुई है. उनकी कविताएं स्त्री मन के अकेलेपन, जीवन की क्षणभंगुरता और सामाजिक बदलाव को उकेरती हैं. उनका लेखन जीवन के स्याह पक्ष को आत्मसात करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा का गहन दर्शन प्रस्तुत करता है.

गगन गिल (तस्वीर साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)

वर्ष 2024 का साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदी साहित्य के लिए हिंदी की वरिष्ठ लेखिका गगन गिल को देने की घोषणा हुई है. यह सम्मान उन्हें ‘मैं जब तक आई बाहर’ काव्य संग्रह के लिए प्रदान किया गया है. देखा जाए तो बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से ही ‘स्त्री स्वर’ कविता के केंद्र में रहा है.

कारण कि नब्बे के दशक में भारत में कई सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिवर्तन एक साथ हो रहे थे जिससे काव्य भी अछूता नहीं रहा. गगन गिल, प्रभा खेतान, अनामिका, सविता सिंह, कात्यायनी आदि कवित्रियों ने इन परिवर्तनों को अपनी कविताओं में उकेरा. पितृसत्तात्मक व्यवस्था से सवाल करती यह हिंदी कविता, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक शोषण के खिलाफ़ भी आवाज़ उठाती रही.

एक स्त्री के रूप में अपने अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ी. देह, प्रेम, विवाह इत्यादि पर सवाल उठाती रचनाशीलता इन पारंपरिक संस्थाओं में नवीन बदलाव की उम्मीद और प्रेम के लिए एक वैकल्पिक समाज की परिकल्पना करने लगी, जिसकी नींव बराबरी पर आधारित थी.

इस पूरे संदर्भ में देखा जाए तो गगन गिल का नाम साहित्यिक जगत के लिए नया नहीं है. सन् 1983 में इनका काव्य संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ प्रकाशित हुआ जिसने इनकी लेखनी को साहित्यिक जगत में एक पहचान दिलाई. उसके बाद से ये सिलसिला बस चलता ही रहा. सन् 1984 में इन्हें साहित्यिक अवदानों के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान किया गया और अब यह प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी.

साहित्यिक जगत में सभी इनके बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचित हैं. इन्होंने साहित्य, पत्रकारिता, अनुवाद के क्षेत्र में एक लंबे अरसे तक न केवल काम किया बल्कि उनमें परिवर्तन लाने पर भी ज़ोर दिया. इन्होंने काव्य लेखन की पेचीदगी जैसे, ‘शब्द और भाव का एक लय में कागज़ पर न उतरना’ आदि बारीक विषयों पर संगोष्ठियों में बखूबी चर्चाएं की हैं. सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेश के उच्च संस्थानों जैसे हार्वर्ड इत्यादि की भी साहित्यिक गतिविधियों में इनका आना जाना लगा रहा. न केवल समकालीन साहित्य पर इनकी पकड़ है बल्कि लगभग एक दशक तक टाइम्स ऑफ इंडिया और संडे ऑब्जर्वर जैसे प्रमुख समाचार पत्रों के लिए भी उन्होंने प्रचुर काम किया.

अनुवाद के क्षेत्र में भी उतनी ही दक्षता रखने वाली गगन जी मानती हैं कि हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा की किताबों को अच्छे अनुवादक नहीं मिल पाते जो इनके मर्म व उसके विभिन्न परतों से दुनिया को मुख़ातिब करा सकें. सिर्फ इतना ही नहीं जब भी साहित्यकार निर्मल वर्मा का नाम आता है तो उनकी संगिनी के रूप में, उनके बौद्धिक सहचर के रूप में गगन जी का स्मरण किया जाता है.

डॉ. शांभवी

अभी तक उनके कुल पांच काव्य संग्रह – एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अंधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक थपक (2003), मैं जब तक आई बाहर (2018) प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अतिरिक्त उन्होंने बेहद सशक्त गद्य लेखन भी किया है, मसलन, दिल्ली में उनींदें (2000), अवाक (2008), देह की मुंडेर पर (2018) पाठकों और आलोचकों के बीच समान रूप से चर्चित रहीं.

गगन गिल की रचनाएं स्त्री मन के एकाकीपन का दस्तावेज हैं. वह अपने एकांत में विचरता है, समय के प्रवाह के साथ नहीं बहता. इसलिए वहां लेखन से भी एक विच्छेद है पर साथ ही परिवर्तन की आहटें भी. पूरे चौदह वर्ष के अंतराल के बाद उनकी तीन पुस्तकें (एक काव्य संग्रह और दो गद्य) साल 2018 में प्रकाशित हुए. गगन जी के ही शब्दों में ये कविताएं -‘एकांत की प्रार्थना है’, जहां एक लंबा इंतज़ार है. उस इंतज़ार में दुख, उदासी, अकेलापन अवश्य है पर निराशा नहीं. इस लंबे अंतराल में उन्होंने महसूस किया कि उनके आस-पास समाज से लेकर भाषा तक कितनी बदल गई:

‘मैं जब तक आई बाहर

एकांत से अपने

बदल चुका था

रंग दुनिया का/

में जब तक आई बाहर

एकांत से अपने

बदल चुका था

मर्म भाषा का‘  (मैं जब तक आई बाहर)

गगन जी की कविताएं दार्शनिक भावों की अभिव्यक्ति हैं. इनमें कोमलता में भी सुगठित और स्पष्ट भावों की दृढ़ता है. उन्होंने जीवन की क्षणभंगुरता पर बहुत गहराई से विचार किया है चाहे वह ‘तितली’ कविता हो या ‘हरश्रृंगार’ या फिर ‘मैं जब तक आई  बाहर’. जैसा कि हमने पहले भी कहा कि गगन गिल की कविताओं में एकांत, अकेलेपन की धुन मुखर है, पर बावजूद इसके, उनके यहां इस अकेलेपन से घबराहट नहीं है, बल्कि इसके बरक्स उसे पूरी शिद्दत से जीने की गाथा है. हां, समाज इस एकांत की ध्वनि को कितना स्वीकार कर सकेगा ये एक अलग प्रश्न है:

‘दोस्ती में प्रेम था

प्रेम में इच्छा

इच्छा से मुंह फेर कर

वह कहां जायेगी?(एक दिन लौटेगी लड़की)

गगन गिल अकसर कविता में बहुत सरल शब्दों में अपनी बात रख कर चली जाती हैं पर उनके एक-एक शब्द के पीछे एक गहरा दर्शन छिपा हुआ है. उनकी कविता में एक चाह है- जीवन को सही मायनों में, उसके सभी पक्षों को स्वीकारते हुए उसे जीने की. जीवन का असली आनंद आस्वादन में है, रोते बिलखने में नहीं बल्कि, उसके स्याह पक्ष को भी आत्मसात करते हुए उसे जीने में है:

‘सिर्फ कभी कभी उसमें

एक सपना धड़केगा

या सपने में लड़की’ ((एक दिन लौटेगी लड़की)

साहित्य से इतर भी अगर कोई गगन गिल को पढ़ना चाहे तो वह शायद पढ़ता ही चला जाएगा. सतही तौर पर देखने पर प्रायः यह कविताएं स्त्री मन की कविताएं मालूम होती हैं पर वास्तव में इसके पीछे भारतीय ज्ञान परम्परा का सुदृढ़-सुचिन्तित आधार उपस्थित है. कविताओं से गुज़रते  हुए ऐसा मालूम होता है कि लेखिका ख़ुद से बातें कर रही है और समाज को एक तरह से आईना भी दिखा रही कि हर स्त्री को एक ही खांचे में न ढाला जाए.

‘उदासियां तब कितनी अलग होती

शाम की यह लालसा

कुर्सियों में अलग बैठे बैठे शाम में ढल गई

वह कम से कम

इस शाम को एकांत में

दोहरा तो सकेगी’ (एक दिन लौटेगी लड़की)

पर मन के बहुत भीतर धंसे होने के बावजूद भी गगन जी की कविताओं की एक विशिष्ट सीमा भी है, जो कि रचनाकार की भाव-संवेदना के विस्तार की सीमा अधिक समझी जा सकती है. वह यह कि उनकी कविताएं मुख्यत: समाज के एक खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, जहां जीवन में भौतिक सुख सुविधाएं तो भरपूर हैं पर एक मानसिक खालीपन है. संभवतः स्वयं उस विशेषाधिकार की पृष्ठभूमि से आने के कारण वह उस मानसिक खालीपन को अधिक तीव्रता से ग्रहण कर सकीं हैं.

उन्होंने जीवन के विशद कैनवस पर इसी दुख, वेदना और एकांत के रंगों को पिरोकर एक तस्वीर उभारी है, जो आज के महानगर की उच्च-मध्य वर्गीय कामकाजी समूहों से मेल खाती है. एक ऐसा मोहाविष्ट वर्ग जिनके जीवन में सुविधाओं और बेहद व्यस्तताओं के बाद भी नितांत खालीपन है. और इस खालीपन की प्रवृत्ति भी अद्भुत है. यह खालीपन किसी व्यक्ति या वस्तु का नहीं है. जीवन के किसी भी फैसले पर इन्हें पछतावा नहीं बल्कि जो है, जैसा है – उसे वैसे ही स्वीकार करने की चेष्टा है. और यह सब करते हुए भी वह एक विचित्र सूनेपन से ग्रस्त है. पर अंततः जीत जीवन की ही होती है और जीवन के हर पक्ष को एक उत्सव की भांति भरपूर जीने की चाह ही इनकी कविताओं की अनुगूंज बन कर उभरती है:

‘लड़की सोचेगी 

जो हिस्सा अंधा होना था, हो गया 

जो चुप होना था, वह हो गया ……

…… फिर अब भला वह क्या करती है 

अंधे कुएं में बैठी?(एक दिन लौटेगी लड़की)

इसलिए जीवन की विसंगतियों से टूटना नहीं बल्कि खाली कैनवस पर रंगों को संवारना ही उनकी कविता का उत्स है. इनकी कविताएं जीवन के एक अलग रूप से परिचय करवाती हैं जहां अकेलेपन से घबराहट नहीं न ही उस अकेलेपन में दुख, आस्वाद है बल्कि उन्होंने अकेलेपन के रंग को बखूबी जिया है. उनको पढ़ने के लिए एक ऐसे चश्में की जरूरत हैं जिसमें स्त्री का केंद्र केवल उसका परिवार ही नहीं होता – परिवार स्त्री के जीवन का एक अहम हिस्सा ज़रूर हो सकता पर उसकी धुरी नहीं.

(डॉ. शांभवी स्वतंत्र लेखक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी की है और फिलहाल अमेरिका के वॉशिंग्टन डी.सी में हिंदी से जुड़ी गतिविधियों में सक्रिय रहती हैं.)