खुली आंखों से देख रही हूं, हर रोज सूरज उगता है, हर रोज आसमान पर चांद एक तय समय पर चमकने लगता है. सृष्टि में सब कुछ कितना व्यवस्थित, कितना अनुशासित दिखाई देता है. फिर जाने हमारे हिस्से का आसमान हमसे इतनी आंख-मिचौली क्यों करता है. साल के अंत में अपने हिस्से का गुल्लक तोड़ती हूं, तो देखती हूं कितना शून्य जमा कर रखा है. एक तरफ मंगली की मौत (एक छः माह की बच्ची, जिसे गोली लगी थी), तो दूसरी तरफ दो मासूम बच्चों की आईडी ब्लास्ट में मौत. हर दिन का सूरज हमारे हिस्से थोड़ा और गहरा, थोड़ा और लाल होता जा रहा है.
हरे जंगल मुरझाने लगे हैं, इन दिनों वो भी उदासी की चुप्पी ओढ़कर धीरे-धीरे अपनी जड़ों की ओर झुककर अपने ही आंसुओं से डरने लगे हैं. बंदरों की एक पूरी फौज डामर की सड़कों को कोसने लगी है. उनके लिए अब जंगल पराया हुआ जा रहा है, उनके हिस्से का दाना-पानी उनसे दूर होता जा रहा है, जिन्हें पकड़ने की आस में वे लोग डामर की सड़कों को नोंच रहे हैं, किसी क्रांति होने की झूठी उम्मीद में. इस वर्ष हाथियों के हिस्से भूख बढ़ी है, उनके बचे-खुचे रहवास को भी उखाड़ा जा चुका है, वे इंसानों की दुनिया में अपने हिस्से की प्यास ढूंढ रहे हैं. उनके हिस्से एक नदी थी, जिसका पानी हवा बनकर उड़ चुका है, रेत की सूखी नदियां आंधियों में बदल चुकी हैं. रेत के कण उनकी आंखों में चुभ रहे हैं, वे लोग दौड़कर भाग जाना चाहते हैं किसी ऐसी जगह, जहां पेड़ों की पत्तियां हरी हों, जहां घास नरम हो, जहां जंगल इतना घना हो कि एक दूसरे को दूसरा दिखाई न दे.
हाथियों ने जानबूझकर कुछ नहीं किया, उनकी कोई गलती नहीं, वे क्या जानें कि यह इक्कीसवीं सदी का 2024 है, जहां कंक्रीट का जंगल उनके जंगलों से कहीं आगे निकल चुका है. बस्तर से दूर मध्य छत्तीसगढ़ में हसदेव के जंगल, जो अब ठूंठ में बदल चुके हैं, उनकी रुलाई का कोरस दिन-रात जारी है. कभी चिहुंक कर उठ जाती हूं और देखती हूं कि साल के अंत में इस धरती से हसदेव का नाम मिटा दिया जाएगा. तब क्या इस धरती पर रहना-खाना, सोना-जागना, हंसना-बोलना सब कुछ इतना ही सहज रह पाएगा?
क्या सूरज से आंख मिला सकने की हिम्मत दिखाने वाला कोई महानायक इस मिट्टी में जन्म लेगा जो सूरज की गर्मी, सूखी नदियों, सूखे जंगल और बंजर होती धरती के भीतर उम्मीदों की एक पोटली रख जाएगा, जिसमें वही पुरानी धुन होगी, जिसके गुनगुनाने से धरती का मन हरियल हो उठेगा.
2024 का अंत हमारे हिस्से इतनी कड़वाहट लेकर आएगा, इसकी कल्पना भी दिल-दिमाग ने नहीं की. आदिवासी स्त्रियां दिनभर खटती हैं, तब कहीं जाकर मिट्टी में नमी बची रहती है. दुनिया में जितनी सादगी है, जितना प्रेम है, जितनी परंपराएं हैं, जितने नृत्य हैं, जितने लोकगीत हैं, उनकी पहली गुरु, शिष्या, पाठक यही स्त्रियां हैं. तेंदू के पत्ते का रंग हरा है इनकी हंसी से. कुसुम पककर टपकने लगता है इनकी खुशबू से. महुआ से ज्यादा मादकता इनकी देह में भरी है. पर यह नहीं जानतीं कि इनके हिस्से शोषण, बलात्कार, विस्थापन, अत्याचार के अलावा एक और कड़ी जुड़ गई है, जो इतना भयानक है कि एक सामान्य इंसान की रूह भी कांप जाए.
यह साल इसलिए भी मुझे ताउम्र याद रह जाएगा कि बस्तर में आदिवासी स्त्रियों के हिस्से अत्याचार का एक नया अध्याय- उन्हें दर्दनाक मौत की सजा देने की शुरुआत का साल- है. नक्सली संगठनों ने अपनी रणनीति में यह कैसा बदलाव किया है यह तो वही समझ सकते हैं. पर आदिवासी स्त्रियां उनके निशाने पर रही हैं. साल 2024 आदिवासी स्त्रियों के लिए बेहद दर्दनाक रहा.
तो वही बच्चों के हिस्से हिंसा, व विस्थापन ही आया. बस्तर के बच्चों का कोई भविष्य बनता दिखाई नहीं दे रहा है. स्कूल नक्सलियों और सुरक्षा बलों की लड़ाई में संघर्ष का मैदान बन गए हैं तो किताबों के बदले बच्चे बारूद की गंध में पल रहे हैं, उनके सपने चूर-चूर हो गए. साल के अंत तक बच्चे गोलियों के शोर में पढ़ने को विवश हैं, जैसे उन्हें हिंदी की नहीं, बल्कि बारूद की लिपि पढ़ने का अभ्यास करवाया जा रहा है.
हालांकि बस्तर की नदियां, पहाड़, और जंगल अब भी उतने ही सुंदर हैं, लेकिन इस सुंदरता पर विकास की अंधाधुंध दौड़ और संघर्ष का साया है. आदिवासी संस्कृति, जो बस्तर की पहचान है, विस्थापन और शोषण के कारण लुप्त हो रही है. ऐसा लगता है जैसे ‘हमारे गीत, हमारे नृत्य, हमारी आत्मा के जीवित होने के सबूत थे, जिन्हें आधुनिकता की काली परछाई ने कहीं पीछे धकेल दिया. बावजूद इसके, जंगल की आत्मा को कैद नहीं किया जा सकता. हम लड़े थे, हम लड़ेंगे, अपनी मिट्टी के हर कण के लिए.’
उम्मीद का सपना आंखों में जिलाए रखना है.
विकास की, आधुनिकता की मुख्यधारा तक पहुंचने की इतनी तैयारियों के बावजूद आदिवासियों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं और सड़कें इस साल भी एक अभिशाप बनी रहीं. गर्भवती महिलाओं को अस्पतालों तक पहुंचने की राह में जान गंवानी पड़ी, वहीं कई बच्चे बिना इलाज मर गए. सड़कों का निर्माण और स्वास्थ्य सेवाएं अब भी सरकार और नक्सलियों की खींचतान में उलझी हुई हैं. दुनिया चांद पर पहुंच गई है, बावजूद इसके 2024 के अंत तक पानी, बिजली, स्कूल, दवाइयां, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी एक बड़ा वर्ग तरस रहा है.
यह कैसी इक्कीसवीं सदी है, यह कैसा विकास, किसका विकास है? 2024 का बस्तर हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि विकास और विनाश के बीच की रेखा इतनी धुंधली क्यों है. आदिवासियों की जड़ें उखाड़ने, उनकी मिट्टी छीनने, और उनकी संस्कृति खत्म करने का यह सिलसिला कब रुकेगा?
बस्तर का संघर्ष केवल बस्तर का नहीं, बल्कि यह पूरे समाज की आत्मा की लड़ाई है. 2024 हमें यह सवाल छोड़ जाता है कि क्या हम विकास के नाम पर अपने अस्तित्व को मिटा देंगे? या फिर बस्तर की आत्मा को बचाने के लिए खड़े होंगे? क्योंकि यह लड़ाई बस्तर की नहीं है, बल्कि देश की लड़ाई है. देशभर में जिस तरह की अराजकता फैल रही है, जिस तरह का धार्मिक उन्माद फैल रहा है, उसे रोकने का यही एक तरीका है कि हम सबको अपनी जड़ों की ओर लौटना ही चाहिए.
मूल निवासियों को उनका मौलिक अधिकार मिलना ही चाहिए. उम्मीद की एक रोशनी दिखाई दे रही है उन बच्चों की आंखों में, जो किताब उठाए दौड़ रहे हैं स्कूल की ओर. जाता हुआ साल, आते हुए साल को थोड़ी डपट लगाकर कह रहा है कि ‘देश का ख्याल रखना.
(पूनम वासम कवि हैं और छत्तीसगढ़ में शिक्षक के तौर पर कार्यरत हैं.)