पत्रकार से कवि की यात्रा: ‘मैं बस तुकांत और अतुकांत पद्य में अपना समय दर्ज कर रहा हूं’

बिहार के प्रतिनिधि पत्रकार संतोष सिंह अपनी धारदार ख़बरों के लिए जाने जाते हैं. उनके हालिया प्रकाशित कविता संग्रह ने उनके एक नए रूप से हमें परिचित कराया. अपने कवि-कर्म पर उन्होंने यह ख़ास लेख लिखा है.

संतोष सिंह (दाएं) और 'करवट' का कवर. (फोटो साभार: फेसबुक/वाणी प्रकाशन)

ये 1988 सर्दियों की बात है जब मैंने भागलपुर के प्रतिष्ठित टीएनबी कॉलेज में स्नातक (अंग्रेजी) में दाखिला लिया था. क्लास के पाठ्यक्रम में भले ही शेक्सपियर, थॉमस हार्डी, पीबी शैली थे, मन में हिंदी साहित्य के प्रति समानांतर अनुराग पल रहा था. पर लोगों ने कहा, हिंदी पढ़ने से नौकरी नहीं मिलेगी और अंग्रेजी से कुछ न कुछ मिल ही जाएगा, तो चल पड़े अंग्रेजी पढ़ने. पिताजी अंग्रेजी के प्रख्यात शिक्षक थे तो हम चारों भाइयों को अंग्रेजी सहज लगती थी.

इन्हीं दिनों किसी मित्र ने रवीन्द्रनाथ टैगोर का अज्ञेय द्वारा अनूदित ‘गोरा’ पढ़ने को दिया. कोमल मन ऐसी प्रांजल भाषा पढ़कर भाव विभोर हो गया. लगा ही नहीं कि ये हिंदी अनुवाद है. इतनी मौलिक भाषा और सुंदर शब्द संयोजन! इसमें प्रेम का एक अलौकिक दृश्य है जब एक नाव में प्रेमी और प्रेमिका अकेले हैं, फिर भी दोनों के बीच कोई शारीरिक अंतरंगता नहीं है. किताब के समापन पर मैं संवेदनाओं में डूबा हुआ था. वहीं से मेरी पहली कविता उद्भूत हुई,

‘कांता से पूछ बैठा कांत, क्यों, क्या कहोगी इसे प्रिये?’
कांता बोल उठी, प्रेम सिर्फ हृदय का अच्छवास नहीं है,
धड़कन ही दिल का इतिहास नहीं है!’

अनजाने, अनकहे मेरी कच्ची-अधपक्की काव्य यात्रा शुरू हो गई. वो बड़ी वाली डायरी आज भी मेरे पास है जिसमें मैं कविताएं लिखता था. पिताजी को पता चल गया. मेरी आदत थी हर कविता को किसी न किसी को समर्पित करता था. पहली पिताजी को ही की- ‘पूज्यास्पद पितृदेव श्री संजय प्रसाद सिंह को’. पिता ने उस कविता पर हस्ताक्षर किए. आज जब वो नहीं हैं, वो लाल स्केच से किया हुआ आर्टवर्क की तरह वो ऑटोग्राफ मेरी अनमोल अमानत है.

बहरहाल, पिता को लगा कि लड़का भटक रहा है. साहित्य का सिलसिला शुरू हो चुका था. हजारी प्रसाद द्विवेदी की सारी किताबें पढ़ गया. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ ने बहुत प्रभावित किया. अमृत लाल नागर के ‘नाच्यो बहुत गोपाल’, हरिवंश राय बच्चन की ‘दशद्वार से सोपान तक’, जय शंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ और इसी तरह के क्लासिक पड़ने लगा. अंग्रेजी सिलेबस भी साथ चल रहा था. दोनों भाषाओं के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी चलने लगा. एक और साहित्यकार जिसने अपनी भाषा से बहुत प्रभावित किया वो हैं राजा राधिका रमन प्रसाद सिंह.

एक दिन महात्मा गांधी पर कविता लिख डाली, ‘रे क्या मरेगा तू बापू को’

‘सत्यांशु सांध्य वंदन को चला,
वर्धक्य के तेज धुंधलके मंथर मंथर पग थाप चुना,
नाथू आया, न्यस्त हुआ,
सहसा विस्फोटक आवाजें आई,
बापू महान भू न्यस्त हुए,
हा हंत! गूंजा दिगंत.
हो गया अंत महास्थिवर का.
*****
रे क्या मारेगा तू बापू को,
क्या मरता कभी आदित्य,
क्या मौन मयंक हो सकता है,
मारा प्रकाश के लघु चेरे को,
झर गया वो बिंदु बिंदु प्राण,
अंगीठी सत्य की सुलगाने को,
अहिंसा की ज्योति जलाने को.’

जब ये सब लिखा जा रहा था, पिताजी ने तारापुर, मुंगेर के सहयोगियों को कह दिया था कि मेरी कविता लेखन को प्रोत्साहित न करें. फिर भी मैं श्रोता खोज लेता था. तारापुर कॉलेज के प्रिंसिपल बालेश्वर सिंह, अंग्रेजी शिक्षक सत्यदेव चौधरी और अनुज मित्र गन, आशुतोष, भानु और विजित. उदय भानु प्रताप जो अभी एनटीपीसी में बड़ा अधिकारी है, मेरी कविता को अपने सुलेख में ढालता था.

इसी बीच 1989 का भागलपुर दंगा हुआ. तीन वर्ष का स्नातक पांच वर्षों में पूरा हुआ. कुल जमा 70 कविताएं डायरी में रह गई. साल था 1993. घर छोड़ना था. पहले साल भर पटना रहा. फिर 1994 में विक्रमशिला एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली. डायरी और कविता घर ही छोड़ आया. और कविता छूट गई.

ब्रज किशोर गुप्ता, जो अब प्रख्यात मोटिवेशन गुरु हैं, ने शरण दी. पंजाबी बाग के एक कमरे में तीन लोग कुछ दिन रहे. इस्कॉन के मंदिर में कुछ दिनों एक शाम खाने का इंतजाम हो जाता था. हिंदी हार्टलैंड, खासकर बिहार से, तकरीबन सब सिविल सर्विसेज की तैयारी करने आते हैं. मैंने भी शुरुआत वहीं से की. दो साल में औकात पता चल गई. मुझे लगा मैं इसके लिए नहीं बना हूं. मेरे पीछे तीन भाई की पढ़ाई का जिम्मा पिता के हाथों था. घर से जल्दी कुछ करने का दवाब होने लगा.

एक डिफेंस वाली परीक्षा पास की पर दौड़ नहीं पाया. फिर 1996 में एक दोयम दर्जे के प्रकाशन जिसके नाम में एक्सप्रेस जुड़ा था में काम करना शुरू किया. 2,000 मासिक तनख्वाह पर. जिंदगी चलने लगी. कविता तो याद भी नहीं आती थी. जीवन अब नीरस गद्य था. साल 1997 अच्छी खबर लाया. देश के प्रतिष्ठित एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म का टेस्ट पास कर लिया. किसी ने कहा था वर्ड पावर मजबूत होना चाहिए, सो पॉकेट ऑक्सफर्ड डिक्शनरी पूरा पढ़ गया था. सारे शब्द याद होने का दावा नहीं करता.

अब पत्रकारिता सीधी राह थी. पिता खिन्न हुए. कहा, झोला लटकने वाला व्यवसाय है. पर मैं अब अडिग था.

‘एशियन एज’, दिल्ली, स्टेट्समैन’, दिल्ली और भोपाल होते हुए अपने गृह प्रदेश बिहार पहुंचे ‘टेलीग्राफ’ के साथ 2006 में. जीवन में ठहराव आ गया था. लेकिन कविता वापस नहीं आ रही थी. साल 2008 में इंडियन एक्सप्रेस से जुड़ा. इस अखबार के उच्च स्तर ने तो पत्रकारिता के इतर और भी कुछ सोचने का मौका ही नहीं दिया. लेकिन बिहार का भ्रमण कर रिपोर्ट लिखना, लोगों को ऑब्जर्व करना और थोड़ा मनन करना, कविता की नई जमीन तैयार कर रहा था.

साल 2010 आते आते सोशल मीडिया का परवान चढ़ने लगा था. मै भी ऑरकुट के बाद फेसबुक से जुड़ा. इंटरनेट के विशाल संसार में हिंदी कविताएं ढूंढने लगा. केदारनाथ सिंह, नरेश सक्सेना, विनोद कुमार शुक्ल से लेकर उर्दू के बड़े शायर, खासकर, फैज अहमद फैज, अहमद फ़राज़, फिराक गोरखपुरी और अली सरदार जाफरी ने बहुत प्रभावित किया.

अब कविता ने फिर से हिलोरें मारना शुरू कर दिया था, 16 वर्षों के लबे अंतराल के बाद.

अब मेरी भाषा सरल थी. हजारी प्रसाद द्विवेदी वाली हिंदी का भूत उतर चुका था. भाषा नहीं, भाव, शब्द नहीं, तत्व, अब महत्वपूर्व थे. साथ में ग्राम्य जीवन, बचपन की स्मृति, मां का अनन्य प्रेम, मेरी कविता की नई राह दिखा रही थी. नारी शक्ति मेरे प्रिय विषयों में एक था. पत्नी पर भी लिख डाली,

‘तुम गर बनो शाहजहां,
तो मैं मुमताज हूं,
अंक में भर के तो देखो,
हमकदम, हमराज हूं,
नहीं चाहिए मुझे कोई ताजमहल,
बस कर लेने दो अपने दिल पर दखल.’

जब ये कविताएं लिखी जा रही थी, उद्देश्य महज स्वांतः सुखाय ही था. 2010 से 2022 तक 70 से अधिक कविताएं लिख चुका था. पर पाठक बहुत दूर थे. मेरी सहचरी चित्रा को तो सब सुनना ही पड़ता था.

ये बात दिसंबर 2022 की है जब मैं कलिंग साहित्य उत्सव में भाग लेने भुवनेश्वर गया था. वहीं हिंदी के निष्णात कवि अरुण कमल मिले. वे मुझे अंग्रेजी के पत्रकार के रूप में जानते थे और मिलते ही मेरी कई गवेषणात्मक रिपोर्ट की चर्चा की. उनसे हिंदी कविता पर कोई बात नही हुई.

अगले दिन अरुण कमल के साथ वाणी प्रकाशन की कार्यकारी संपादक अदिति माहेश्वरी गोयल का संवाद सत्र था. किसी कारण अदिति नहीं आ पाई. आयोजक मंडल के सूत्रधार आशुतोष कुमार ठाकुर अब परेशान थे. अदिति के बदले में कौन साक्षात्कार करेगा ऐसे मूर्धन्य कवि का. मैंने आशुतोष से धीमे स्वर में कहा, मैं करूं? आशुतोष मेरा हिंदी प्रेम जानते थे. मुझे जैसे ही हां मिली, मैं रात तीन बजे तक नोट्स बनाता रहा. अरुणजी को तनिक भी भान नहीं था कि मैं उनके साथ संवाद करने वाला हूं.

विशिष्ट अतिथियों के सामने सत्र शुरू हुआ. जब मैंने शुरुआत में कहा, ‘जुल्फों के पेचोखम में इसे मत तलाशिए, ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की’, सभागार तालियों से भर गया. सत्र सफल रहा.

फिर अरुण सर ने मुझसे मेरी कुछ कविताएं मांगी. बाद में मैंने पूरा संकलन ही उन्हें दे दिया. तीन महीनों बाद उनका मेल आया. उन्होंने एजरा पौंड को उद्धृत करते हुए लिखा, कविता वैसी खबर है जो वादा खबर बनी रहती है. उन्होंने मेरी एक कविता- ‘प्रकाश और तम’ की खास चर्चा की:

‘कभी सोचा क्यों शुरू होती है श्रीमद्भगवद गीता धृतराष्ट्र उवाच से?
ये शुरू हो सकती थी अर्जुन के संशय से?
भीष्म-कर्ण के ऊहापोह से?
या फिर सीधे श्रीभगवान उवाच से.
धृतराष्ट्र शायद इसलिए कि जीवन का आरंभ ही अंधकार से हुआ है,
गर्भ के गहन अंधकार से,
रोशनी तो सूरज का करतब है, नैसर्गिक तो तम ही है.’

उन्होंने आगे लिखा:

‘संतोष सिंह की कविताओं का वायुमंडल विस्तृत और सघन है. बचपन की स्मृतियों से लेकर घर-परिवार के अनुभव और वृहत्तर सामाजिक-राजनीतिक प्रसंगों तक प्रशस्त ये कविताएं पाठक के हृदय के समस्त तारों को झंकृत कर देती हैं. बचपन के खेल और सरस्वती पूजा के आख्यान सामूहिक स्मृतियां हैं और तत्काल पाठक को कवि से जोड़ देती हैं…’

ऐसी प्रस्तावना पढ़कर मैंने कहा, अब मेरी कविता छपे न छपे, मेरा कवि-कर्म सफल हुआ.

लेकिन इसे प्रकाशित होना था. समाजवादी चिंतक और साहित्यकार प्रेम कुमार मणि ने ‘करवट’ शीर्षक दिया. इस संग्रह में कोविड पर कई कविताएं हैं, जिस वक्त मैंने अपना पिता को खोया था. दर्द के लम्हों में ‘ऑक्सिमीटर’ नामक कविता लिखी थी :

‘आप बरबस कहा करते थे-
‘तुम सब मुझसे बड़े हो गए हो’
ऐसा हर पिता बोलता है,
पिता ही ऐसा बोल सकता है.
आपकी उंगलियां पिता का अथाह प्यार था,
एक शिक्षक की ओजस्वी लेखनी थी, ऑक्सिमीटर में फंसकर आपकी अंगुली बेचैन हो जाती थी,
आप हाथ झिड़क देते थे,
कोई यंत्र क्या आपकी सांसों का हिसाब करेगा,
सांसें तो सभी गिनकर ही लाता है, आपने कभी आंखें बंद नहीं कीं,
आप खुली आंखों से अपना अंत देख रहे थे.’

लेकिन मुझे कवि होने का भ्रम नहीं है. मैं बस तुकांत और अतुकांत पद्य में अपना समय दर्ज कर रहा हूं. ‘करवट’ की एक कविता से समापन करना चाहूंगा. इसका शीर्षक है, ‘मैं पत्रकार हूं’

‘मेरी औकात मेरी अद्यतन बायलाइन है,
मेरी कहानी में गुल है और कार्बाइन भी हैं…..

मेरी पूंजी मेरा जुनून है,
और पूंजी का लाभ मेरा खून है,
एक दबी कहानी के धागे का शिरा हूं,
कुछ न बदल पाऊं तो एक सिरफिरा हूं.’

(संतोष सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार हैं, उनका एक कविता संग्रह ‘करवट’ प्रकाशित हुआ है.)