यह बरस भी रहा उन किताबों के नाम जिनसे गुजरा था अरसा पहले

एक पाठक के तौर पर फर्नान्दो पेसोआ लेखकों-किताबों की बनती-बिगड़ती रहने वाली मेरी उस लिस्ट में हमेशा शामिल रहा है जिन्हें हर साल पढ़ा-गुना जाना होता है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जिन किताबों को पढ़ कर इस साल सबसे अधिक सुकून हासिल किया उनमें नेविल कार्डस की आत्मकथा, एस. नटेश की ‘आइकोनिक ट्रीज़ ऑफ़ इंडिया’, रामचंद्र गुहा की ‘द कुकिंग ऑफ़ बुक्स’, रोद्रीगो गार्सीया की ‘फेयरवेल टू गाबो एंड मेरसेदेस’ और एलिफ शफ़क़ की ’10 मिनट्स 38 सेकेंड्स इन दिस स्ट्रेंज वर्ल्ड’ तुरंत याद आ रही हैं लेकिन मेरे लिए यह बरस कुछ पसंदीदा लेखकों को दुबारा से पढ़ने-खोजने का रहा.

आधुनिक पुर्तगाली कवियों में महानतम गिने जाने वाले फर्नान्दो पेसोआ के जीवन और उसके रचनाकर्म से मेरा परिचय कोई तीस बरस पुराना है. उसकी एक छोटी सी कविता ‘मुझे भयंकर जुकाम हो गया है’ एक अमेरिकी साहित्यिक पत्रिका में पढ़ने को मिली थी. छींकों और सरदर्द से जूझ रहा कवि उस कविता के अंत में कहता है कि उसे सच और एस्पिरिन की दरकार है. हकबका देने वाली इस पहली छवि से रू-ब-रू होने के बाद मैंने बहुत समय तक पेसोआ के विशद काम खोज-खोज कर पढ़ा. उसकी हैरतंगेज़ ज़िंदगी और अनूठी रचनाधर्मिता से पैदा होने वाला आश्चर्य आज तक कम नहीं हुआ है.

वह एक ऐसा जीनियस रचनाकार था जिसकी उर्वर फंतासियों ने अस्सी से अधिक काल्पनिक लेखकों का सृजन किया, उनके नामों से रचनाएं कीं, उनकी जीवनियां लिखीं और कुछ की तो जन्मकुंडलियां तक बनाई.

इन तमाम लेखकों में से एक-एक को पेसोआ ने अलग-अलग विशिष्टताओं वाली जुबान और लेखन-शैली और विषयवस्तुएं बख्शीं. अपने खुद के जीवनकाल में वह बहुत कम छपा लेकिन नवम्बर 1935 में हुई अपनी मौत के समय वह अपने कमरे में धरे लकड़ी से एक बड़े संदूक के भीतर पच्चीस हज़ार से ज़्यादा लिखे हुए पन्ने छोड़ गया जिन्होंने उसकी मृत्यु के कुछ ही महीनों बाद उसे सर्वकालीन महानतम पुर्तगाली कवि के तौर पर स्थापित कर दिया.

एक पाठक के तौर पर फर्नान्दो पेसोआ लेखकों-किताबों की बनती-बिगड़ती रहने वाली मेरी उस लिस्ट में हमेशा शामिल रहा है जिन्हें हर साल पढ़ा-गुना जाना होता है. इस लिस्ट में अमूमन सारे एस्ट्रिक्स कॉमिक्स से लेकर मारकेज़ की ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड’ और ‘राग दरबारी’ से लेकर ‘कैचर इन द राई’ जैसी क्लासिक रचनाएं अपनी जगह बनाती रहती हैं.

फर्नान्दो पेसोआ पर वापस लौटा जाए जिसके बनाए तीन काल्पनिक रचनाकारों अलबेर्तो काइरो और उसके दो शिष्यों रेकार्दो रेईस और आल्वारो दे काम्पोस को दुनिया भर में ऐसी शोहरत मिली कि सिर्फ फन्तासी से बुने-बने गए होने के बावजूद वे स्वतंत्र महाकवियों का दर्जा रखते हैं.

पेसोआ की लिखी जीवनी के मुताबिक पुर्तगाल के पोर्तो शहर में जन्मा, उससे कोई नौ महीने बड़ा रेकार्दो रेईस पेशे से डाक्टर था और इकत्तीस साल की उम्र में अपना देश छोड़ ब्राजील जा बसा था. पेसोआ हमें उसकी लिखी शानदार कविताएं तो पढ़वाता है मगर उसके जीवन की आखिरी बरसों के बारे में कुछ नहीं बताता.

साहित्य की यह एक बात उसे कालजयी बनाती है कि किसी लेखक द्वारा छोड़ी गई कोई अधखुली गांठ कभी न कभी किसी दूसरे कालखंड में किसी दूसरे लेखक की निगाह में आती है जो उसे बांधने की फ़िराक में उसमें कुछ और खुले-अधखुले धागे जोड़ देता है.

फर्नान्दो पेसोआ के मरने के कोई साठ बरस बाद उसी के देश के एक महान लेखक होसे सारामागो ने रेकार्दो रेईस के काल्पनिक जीवन की इसी अधखुली गांठ को अपने कालजयी उपन्यास ‘द ईयर ऑफ़ द डेथ ऑफ़ रेकार्दो रेईस’ का विषय बनाया.

‘द ईयर ऑफ़ द डेथ ऑफ़ रेकार्दो रेईस’ का आवरण

इत्तफाकन साल 2024 में पढ़ने की शुरुआत मैंने इन्हीं होसे सारामागो के उपन्यास ‘ब्लाइंडनेस’ से की थी. एक नगर में अंधेपन की महामारी के अचानक फैल जाने की थीम पर लिखा गया यह उपन्यास हाल ही में कोरोना से उबरी हमारी दुनिया के लिए एक ज़रूरी दस्तावेज है.

फिर यूं हुआ कि ऐसे ही आदतन पेसोआ की किताब में रेकार्दो रेईस की कविताएं पढ़ते हुए मुझे कुछ बरस पहले पढ़ा गया सारामागो का वह उपन्यास याद आया जिसका नायक रेकार्दो रेईस अपने सर्जक पेसोआ की मौत के एक माह बाद, 1935 के दिसंबर के आख़िरी दिनों में ब्राजील से वापस पुर्तगाल आता है. सोलह सालों की अनुपस्थिति के बाद अपने मुल्क लौटा यह नियतिवादी कवि लिस्बन पहुंचने के बाद उस कब्रिस्तान में जाता है जहां उसका सर्जक पेसोआ दफनाया गया है.

दो दिन बाद नए साल के दिन, जब समूचा नगर खुशियां मना रहा है, होटल के कमरे में आराम कर रहे रेकार्दो से मिलने फर्नान्दो पेसोआ का प्रेत आता है और उसे भविष्य में घटने वाली घटनाओं की बाबत चेताता है. इतिहास, स्मृति, राजनीतिक चेतना और मानवीय दुःख के तानेबाने से बुने गए इस उपन्यास की बेहद दिलचस्प संरचना आपको होसे सारामागो का दीवाना बना देती है.

‘द ईयर ऑफ़ द डेथ ऑफ़ रेकार्दो रेईस’ जैसी असामान्य किताब को दुबारा से पड़ने के बाद होसे सारामागो के जीवन के बारे में जानने की उत्कंठा हुई तो उनके आत्मकथात्मक नोट्स की किताब ‘स्मॉल मेमोरीज़’ हासिल की.

‘स्मॉल मेमोरीज़’ का आवरण

सारामागो बेहद गरीब पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते थे. उनके माता-पिता के पास इतने पैसे न थे अपने इस बच्चे को ढंग से पाल सकते सो वे उसे एक छोटे से गांव में रहने वाले उसके निर्धन नाना-नानी के पास छोड़ आये.

ननिहाल के अभावों के बीच बड़े हुए बालक होसे ने जो सबक सीखे वे उन्हें ताज़िन्दगी याद रहे. जब उन्हें 1998 में साहित्य का नोबेल हासिल हुआ तो स्टॉकहोम सिटी हॉल में की गयी अपनी तकरीर में उन्होंने सबसे पहले अपने ननिहाल को याद किया और अपने निरक्षर नाना-नानी को दुनिया के सबसे बुद्धिमान और सबसे संवेदनशील लोगों में गिना.

जब उनके नाना को यह अहसास हो गया था कि उनकी मृत्यु बहुत नज़दीक है तो वे अपने बरामदे में गए और एक-एक कर वहां उगे सारे पेड़ों से लिपट कर रोये. वह विदा का रुदन था. वे जानते थे वे उन पेड़ों को फिर कभी नहीं देख सकेंगे.

अशोक पांडे

जीवन को लेकर, फर्नान्दो पेसोआ के रचे रेकार्दो रेईस के विचार बेहद सीधे और सपाट थे – मृत्यु का खौफ न करना और उसे इकलौती निश्चित घटना के तौर पर स्वीकार करना. रेकार्दो रेईस मानता है कि इस निर्भय मनःस्थिति में रहते हुए ही मनुष्य रोज़मर्रा के जीवन की खुशियों को हासिल कर सकता है. ज़ाहिर है नाना के रोने में मुझे रेकार्दो रेईस का रोना भी सुनाई दिया.

नाना के जाने के कुछ बरस बाद तक होसे सारामागो की नानी अकेली रहीं. मृत्यु के कुछ ही दिन पहले एक शाम वे अपनी छोटी सी कॉटेज के दरवाजे पर बैठी थीं. आसमान पर छोटे-बड़े तारे छितरे हुए थे. तारों को निगाह भर देख चुकने के बाद वे बालक होसे से बोलीं – ‘दुनिया किस कदर खूबसूरत है और कितने अफसोस की बात है कि मुझे एक दिन मर जाना है!’

सारामागो को दुबारा से खोजना खुद को खोजने जैसा साबित हुआ. हर अच्छा लेखक आपके साथ यही करता है.

(अशोक पांडे लेखक और अनुवादक हैं.)