जब आंबेडकर ने चेताया: असंवैधानिक तरीकों से बचना ही लोकतंत्र की असली कसौटी

पुस्तक अंश: डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने आजादी, समानता एवं बंधुत्व को राजनीतिक एवं सामाजिक लोकतंत्र की बुनियाद बताते हुए कहा कि 'बंधुत्व का मतलब सभी भारतीयों के मध्य आपसी भाईचारा है. यही एक सिद्धांत है, जो सामाजिक जीवन में एकता और एकात्मता लाता है. संयुक्त राज्य में जातीय समस्या नहीं है. भारत में जातियां हैं. ये जातियां राष्ट्रविरोधी हैं.'

पुस्तक का आवरण (साभार: लोकभारती प्रकाशन)

भारतीय संविधान की निर्माण प्रक्रिया को विस्तार से समझाती अनूप बरनवाल ‘देशबंधु’ की किताब भारतीय संविधान की निर्माण यात्रा (प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन) भारतीय संविधान सभा की ऐतिहासिक चर्चाओं, फैसलों और घटनाओं का जीवंत वर्णन प्रस्तुत करती है.

आंबेडकर ने सवाल किया कि ‘क्या इतिहास पुन: अपने को दोहराएगा? यह चिंता इस तथ्य से और भी गहरी हो जाती है कि जाति एवं नस्ल के स्वरूप में अपने पुराने शत्रुओं के अलावा हम परस्पर विरोधी राजनीतिक मत वाली अलग-अलग कई राजनीतिक पार्टियों को रखने जा रहे हैं. मुझे नहीं पता है कि क्या भारतीय लोग देश को इन नस्लों से ऊपर रखेंगे या इन नस्लों को देश के ऊपर रखेंगे? किंतु यह निश्चित है कि यदि राजनीतिक पार्टियां नस्लों को देश के ऊपर रखेंगी, तो हमारी आजादी दूसरी बार खतरे में हो जाएगी और सम्भवत: हमेशा के लिए इसे खो देंगे. हम सभी को इसका ध्यान रखना होगा. हमें अपने खून के अंतिम बूंद तक अपनी आजादी को बचाना होगा.’

इसी तरह लोकतंत्र को बनाए रखने का सवाल उठाते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि ’26 जनवरी, 1950 को भारत इस विचार के साथ एक लोकतांत्रिक देश हो जाएगा कि इस दिन से भारत के पास जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए सरकार होगी. इसे बनाए रखने के लिए पहला कार्य यह करना होगा कि हमें अपने सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक उपाय अपनाने होंगे. इसका मतलब यह है कि हमें क्रांति के रक्तरंजित तरीकों से अवश्य ही बचना होगा. हमें अब सिविल अवज्ञा, असहयोग एवं सत्याग्रह के तरीकों से बचना होगा. जब आर्थिक एवं सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं बचे, तभी असंवैधानिक तरीकों को औचित्यपूर्ण बनाया जाना चाहिए. किंतु जहां संवैधानिक तरीकों के लिए रास्ता खुला है, वहां असंवैधानिक तरीके औचित्यपूर्ण नहीं हो सकते हैं. ये तरीके कुछ और नहीं, बल्कि अराजकता का आमंत्रण हैं और जितनी जल्दी हम इनका त्याग कर दें, उतना ही हमारे लिए अच्छा है.’

डॉ. बीआर आंबेडकर ने आजादी, समानता एवं बंधुत्व को राजनीतिक एवं सामाजिक लोकतंत्र की बुनियाद बताते हुए कहा कि ‘बंधुत्व का मतलब सभी भारतीयों के मध्य आपसी भाईचारा है. यही एक सिद्धांत है, जो सामाजिक जीवन में एकता और एकात्मता लाता है. संयुक्त राज्य में जातीय समस्या नहीं है. भारत में जातियां हैं. ये जातियां राष्ट्रविरोधी हैं. सर्वप्रथम इसका कारण यह है कि ये सामाजिक जीवन में भेद लाती हैं. ये इस कारण भी राष्ट्रविरोधी हैं क्योंकि ये जातियों में परस्पर ईर्ष्या और द्वेष पैदा करती हैं. लेकिन यदि हम वास्तव में एक राष्ट्र होना चाहते हैं तो हमें इन सब कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करनी है. क्योंकि बंधुत्व तभी सत्य हो सकता है जब कि एक राष्ट्र हो. बिना बंधुत्व के समानता एवं आजादी दिखावे से अधिक कुछ नहीं है.’

अंत में डॉ. आंबेडकर द्वारा ‘जनता के लिए सरकार’ और ‘जनता द्वारा सरकार’ के मध्य पैदा अंतर के कारण होने वाले खतरे से सावधान किया गया. उनके शब्दों में, ‘नि:सन्देह आजादी आनंद का विषय है, किंतु यह आजादी हमारे ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी भी है. आजादी प्राप्त करने के साथ अब हम किसी भी गलती के लिए ब्रिटिश हुकूमत को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं. अब यदि कोई गलती होती है, तो अब सिवाय खुद के किसी दूसरे पर दोषारोपण नहीं कर सकेंगे. अब गलत कार्य के बहुत खतरे हैं. समय तेजी से बदल रहा है. लोग नए-नए विचार के साथ आगे बढ़ रहे हैं. वह ‘जनता द्वारा सरकार’ से थकान महसूस करते हैं. वह ‘जनता के लिए सरकार’ रखने के लिए तैयार हैं और इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि सरकार जनता की है या जनता द्वारा है. यदि हम संविधान को सुरक्षित रखना चाहते हैं, जिसमें जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार के सिद्धांत को प्राप्त करने की इच्छा है, तो हमें संकल्पित होना होगा कि हम उन बुराइयों को समझने में देरी न करें, जो हमारे मार्ग में पड़ी हुई हैं और जो लोगों को ‘जनता के लिए सरकार’ को ‘जनता द्वारा सरकार’ पर वरीयता देने के लिए प्रेरित करती हैं, और इसे समाप्त करने हेतु पहल करने के लिए कमजोर न हों. देश की सेवा करने का यही एक तरीका है. इससे अच्छा कुछ भी नहीं है.’

अगले दिन 26 नवंबर को बैठक की शुरुआत वल्लभभाई पटेल की इस घोषणा के साथ हुई कि प्रथम अनुसूची के भाग ‘ख’ में उल्लिखित हैदराबाद रियासत सहित सभी नौ रियासतों ने इस संविधान को स्वीकार करने पर अपनी सहमति उस तरीके से दे दी है, जैसा 12 अक्टूबर, की उद्घोषणा में बताया गया है.

बी. दास ने सभाध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद से जानना चाहा कि क्या यह घोषणा की जा रही है कि हमारा राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् होना चाहिए और हमारा राष्ट्रगान क्या होगा. सभाध्यक्ष ने जवाब दिया कि अभी हम ऐसी किसी बात की घोषणा नहीं करने जा रहे हैं. यदि आवश्यक हुआ तो जनवरी में होने वाली बैठक के समय इस पर विचार किया जाएगा. इसके बाद सभाध्यक्ष ने श्रीप्रकाश एवं डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा भेजे गए शुभकामना संदेश को पढ़कर सुनाया.

तत्पश्चात अलगू राय शास्त्री ने सभाध्यक्ष को याद दिलाया कि पूर्व में उनके द्वारा यह घोषणा की गई थी कि देश के इस संविधान का अनुवाद राष्ट्रीय भाषा में किया जाएगा, किंतु इस संबंध में कोई घोषणा नहीं की गई है. शास्त्री ने आगे सुझाव दिया कि हमें इस संविधान को इस देश की भाषा में पारित करना चाहिए, भले ही हमें दो-तीन दिन के बाद पुन: बैठना पड़े. यह भाषा (अंग्रेजी) लोगों की भाषा नहीं है, यह आमजन की भाषा नहीं है. इसलिए भारतीय लोगों के नाम पर इस संबंध में एक निश्चित घोषणा की जानी चाहिए.

किंतु सभाध्यक्ष ने कहा कि ‘अगले पंद्रह वर्ष तक अंग्रेजी केंद्र की आधिकारिक भाषा रहेगी और यदि आवश्यक हुआ तो हिंदी को भी स्थान दिया जाएगा. इस समय इस संविधान को हिंदी में रखना सम्भव नहीं है. कोशिश की जाएगी कि 26 जनवरी तक संविधान का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हो जाए.’

इसके बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपना अध्यक्षीय संबोधन दिया.

एक कठिन कार्य की साधना करने के लिए सभा को बधाई देते हुए डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि ‘इतनी बड़ी जनसंख्या एवं इतनी तरह की विभिन्नताओं के बावजूद हम एक संविधान बनाने में सफल रहे हैं.’ भारतीय रियासतों की समस्या से निपटने में वल्लभभाई पटेल के योगदान को याद करते हुए डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि ‘अभी उनके द्वारा की गई घोषणा के बाद अब भारतीय रियासतों और प्रांतों के मध्य अंतर समाप्त हो गया है. अब ये सभी राज्य हो गए हैं.’

उन्होंने यह भी बताया कि संविधान निर्माण पर 22 नवंबर तक कुल 63 लाख, 96 हजार 7 सौ 29 रुपये खर्च आया है. इस दौरान डॉ. प्रसाद ने संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं यथा संसदीय शासन-प्रणाली, राष्ट्रपति एवं मंत्रिपरिषद, केंद्रीय विधायिका, वयस्क मताधिकार, ऊपरी सदन की स्थिति, स्वतंत्र संस्थानों जैसे न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, नियंत्रक महालेखा परीक्षक एवं चुनाव आयोग का महत्त्व, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का कल्याण एवं सुरक्षा, केंद्र एवं राज्य के मध्य शक्तियों का वितरण, भाषा, संशोधन, निदेशक सिद्धांत, मूल अधिकार का भी विस्तार से उल्लेख किया.

भाषा के सवाल पर बोलते हुए डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि ‘एक समस्या जिसके समाधान ने संविधान-सभा का सबसे अधिक समय लिया है, वह देश के आधिकारिक प्रयोग के लिए भाषा से संबंधित है. यह स्वाभाविक इच्छा है कि हमारे पास अपनी भाषा होना चाहिए और देश में भाषायी बहुलता की समस्या होने के बावजूद हम हिंदी को, जिसे इस देश में सबसे अधिक लोगों द्वारा समझा जाता है, स्वीकार करने में समर्थ हुए हैं. यह हमारे अनुकूल होने की आत्मशक्ति और एक देश के रूप में संगठित होने के संकल्प को दर्शाता है कि उन्होंने, जिनकी भाषा हिंदी नहीं है, इसे स्वेच्छा से आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया है. इतिहास में पहली बार हमने एक भाषा को स्वीकार किया है, जो पूरे भारत में आधिकारिक उद्देश्य से प्रयोग की जाने वाली भाषा होगी और विश्वास है कि यह राष्ट्रीय भाषा के रूप में विकसित होगी, जिसमें हम सभी समान रूप से गर्व का अनुभव करें.’

महात्मा गांधी द्वारा साधन की पवित्रता पर जोर देने के लिए दी गई शिक्षा को याद करते हुए डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने आगे कहा कि ‘गांधी का आशय इस पवित्रता को केवल तनाव एवं संघर्ष के दौरान बनाए रखना नहीं है, बल्कि यह आज भी उतने ही महत्त्व की है, जितनी पहले हुआ करती थी.’

संविधान निर्माण में डॉ. बीआर आंबेडकर के योगदान की डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भूरि-भूरि प्रंशसा की. डॉ. प्रसाद ने कहा कि ‘अध्यक्ष की इस कुर्सी पर बैठकर सभा की कार्यवाही को देखते हुए जो मैंने महसूस किया है, वह और कोई नहीं कर सकता कि कितने उत्साह और लगन से मसौदा समिति के सदस्यों ने, खासकर इसके अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर ने अपने प्रतिकूल स्वास्थ्य के बावजूद, कार्य किया है. इससे अच्छा कभी कोई निर्णय नहीं होता या हो सकता था, जब हमने उन्हें मसौदा समिति में रखा और उन्हें अध्यक्ष बनाया. उन्होंने न केवल अपने चयन को सही साबित किया, बल्कि उन्होंने किए गए कार्य में अभूतपूर्व सौन्दर्य प्रदान किया है.’ अंत में सभाध्यक्ष ने संविधान परामर्शदाता बी. एन. राव, संविधान-सभा के सचिव एच. वी. आर. येनगर, उपसचिव जुगल किशोर खन्ना, अनुवादन समिति के अध्यक्ष घनश्याम सिंह गुप्ता के योगदान को महत्त्वपूर्ण बताते हुए संविधान-सभा के सभी लोगों को धन्यवाद ज्ञापित किया.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के संबोधन के बाद संविधान-सभा ने डॉ. आंबेडकर के प्रस्ताव कि ‘संविधान, जैसा सभा द्वारा निश्चित किया गया है, को पारित किया जाए’ को करतल हर्षध्वनि के साथ अंगीकृत कर लिया.

तत्पश्चात सत्यनारायण सिन्हा ने प्रस्ताव किया कि संविधान-सभा को 26 जनवरी के पूर्व अगली तिथि तक के लिए, जैसा सभाध्यक्ष निर्धारित करें, स्थगित कर दिया जाए. इस प्रस्ताव को सभाध्यक्ष द्वारा रखे जाने के बाद संविधान-सभा ने स्वीकार कर लिया. इसके बाद सभा में उपस्थित सभी सदस्यों ने एक-एक करके सभाध्यक्ष से हाथ मिलाया.

इसके उपरान्त संविधान-सभा की अगली और अंतिम बैठक 24 जनवरी, 1949 को आहूत की गई. सभाध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रगान के सम्बन्ध में निर्णय लेने हेतु प्रस्ताव लाने के बजाय एक घोषणा जारी करने की आवश्यकता व्यक्त की और कहा कि ‘जन-गन-मन’ के रूप में जानी जाने वाली रचना इस प्रतिबन्ध के साथ भारत का राष्ट्रगान है कि सरकार द्वारा इसके शब्दों में बदलाव किया जा सकता है और गीत ‘वंदे मातरम्’, जिसने आजादी के आन्दोलन के लिए किए गए संघर्ष में ऐतिहासिक योगदान निभाया है, का भी समान रूप से आदर और समान प्रतिष्ठा होगी. डॉ. राजेंद्र प्रसाद की इस घोषणा को संविधान-सभा ने हर्षध्वनि के साथ स्वीकार कर लिया.

इसी दौरान प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने जानना चाहा कि क्या संविधान का हिंदी अनुवाद तैयार हो गया है. सभाध्यक्ष ने हां में जवाब दिया.

इसी दिन संविधान-सभा के सचिव और चुनाव अधिकारी एच. वी. आर. येनगर ने संविधान-सभा को बताया कि राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए केवल एक नामांकन-पत्र प्राप्त हुआ है. प्रत्याशी डॉ. राजेंद्र प्रसाद हैं. उनका नामांकन जवाहरलाल नेहरू ने और समर्थन वल्लभभाई पटेल ने किया है. इसके बाद सर्वसहमति होने के आधार पर येनगर ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को देश का प्रथम राष्ट्रपति चुने जाने की घोषणा की.

तत्पश्चात घनश्याम सिंह गुप्ता ने राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान के हिंदी अनुवाद की प्रति सौंपी. इस तरह संविधान-सभा की मेज पर संविधान की तीन प्रतियाँ—पहली अंग्रेजी में हस्तलिखित प्रति, दूसरी अंग्रेजी में मुद्रित प्रति और तीसरी हिंदी में हस्तलिखित प्रति रखी गईं. हस्ताक्षर आरम्भ होने के पूर्व डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि प्रधानमंत्री को सार्वजनिक कार्य के लिए बाहर जाना है, इसलिए उनसे निवेदन है कि वह पहले हस्ताक्षर कर लें.

इसके बाद जवाहरलाल नेहरू ने इन सभी तीन प्रतियों पर हस्ताक्षर किया. तत्पश्चात सभाध्यक्ष ने सदस्यों से दाहिनी ओर से, मद्रास की तरफ से एक-एक कर आकर हस्ताक्षर करने के लिए कहा. उपस्थित सभी सदस्यों ने अपने-अपने हस्ताक्षर किए.

सबसे अंत में खुद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपना हस्ताक्षर किया और घोषणा की कि यदि कोई छूट गया है तो वह बाद में कार्यालय आकर हस्ताक्षर कर सकता है. हस्ताक्षर करने से मना करने वाले एकमात्र उपस्थित सदस्य हसरत मोहानी थे.

अंत में सभी सदस्यों द्वारा पहले पूर्णिमा बनर्जी के नेतृत्व में ‘जन-गन-मन’ का और बाद में लक्ष्मीकान्त मैत्रे के नेतृत्व में ‘वंदे मातरम्’ का सामूहिक गान किया गया. इसके पश्चात संविधान-सभा को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया.

भारतीय संविधान की मूल प्रति में कुल दस पृष्ठों पर संविधान-सभा सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं. पहला पृष्ठ आठवीं अनुसूची वाला पृष्ठ है, जिस पर 14 भाषाओं के नाम शामिल हैं. इस पृष्ठ पर यद्यपि पहला हस्ताक्षर जवाहरलाल नेहरू का है, किंतु सभाध्यक्ष/राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद का हिंदी एवं अंग्रेजी में हस्ताक्षर इसके ऊपर किया गया है. उस समय संविधान-सभा के पहले अस्थायी अध्यक्ष सच्चिदानन्द सिन्हा उपस्थित नहीं थे. इसलिए संविधान की मूल प्रति पर सच्चिदानन्द सिन्हा का हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए डॉ. राजेंद्र प्रसाद विशेष विमान से उनके पटना स्थित आवास पर गए और उनका हस्ताक्षर प्राप्त किया. सिन्हा जी का हस्ताक्षर 276 वें स्थान पर अंकित है. इसके तुरंत बाद संविधान सलाहकार बी. एन. राव का और सात अन्य सदस्यों के हस्ताक्षर हैं. इस तरह सभी दस पृष्ठों पर कुल 284 सदस्यों के हस्ताक्षर अंकित हैं.

(साभार: लोकभारती प्रकाशन)