साहित्य की जरूरत पर प्रायः विचार होते आए हैं. ये कभी तो, समाज के आगे-आगे चलने वाली मशाल बना भविष्य की राह सुझाता है, तो कभी हालिया वर्तमान को अपने आयामों में समेटता समाज का प्रतिबिंब बन जाता है. पर साहित्य की प्रासंगिकता एक अन्य कारण से भी है, और वह है- इतिहास में मौन रह गई आवाज़ों को ध्वनि देने, राष्ट्र के दस्तावेज में दर्ज होने से चूक गए चेहरों को विस्मृति के गर्त से बाहर निकालने में.
दक्षिण एशिया के रक्तरंजित इतिहास और इसके विविधतापूर्ण समाजों से निकलने वाली साहित्यिक ऊर्जा ने कई अर्थों में इतिहास की कमियों पर प्रश्न उठाया है और इसी सिलिसिले में पाकिस्तानी लेखिका बापसी सिधवा का नाम उल्लेखनीय है. बहुत कम साहित्यकार इतिहास के महत्त्वपूर्ण क्षणों को अपनी रचना के माध्यम से एक ऐसी कालातीत प्रासंगिकता दे पाते हैं, जो उनकी रचना को उनके अपने व्यक्तित्व से कहीं अधिक विस्तृत-प्रचलित कर देती है.
बापसी सिधवा का नाम भी भले ही भारतीय साहित्यिक संदर्भों के लिए बहुत अधिक प्रचलित न हो, पर उनकी ही किताब आइस कैन्डी मैन (Ice Candy Man, 1988) जिसे बाद में क्रैकिंग इंडिया (Cracking India, 1991) के नाम से प्रकाशित किया गया, पर आधारित फिल्म 1947: अर्थ, भारत और वैश्विक स्तर पर बहुत मक़बूल हुई थी.
कराची में साल 11 अगस्त 1938 को जन्मी बापसी सिधवा, अमेरिकी नागरिकता रखते हुए भी दक्षिण एशिया, विशेषकर पाकिस्तान से जुड़ी रहीं. आजीवन उन्होंने अमेरिका की कॉलेजों में अंग्रेज़ी का अध्यापन किया और आगे चल कर कोलंबिया विश्वविद्यालय और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया. पर देखा जाए तो सिधवा उन चंद साहित्यकारों में हैं, जिनकी पहचान के कई आयाम थे: पारसी अल्पसंख्यक, गुजराती पारसी सांस्कृतिकता, प्रवासी पाकिस्तानी, अमरीकी ऐंगलोफोन वर्गीयता और इन सब में अपनी विशिष्टता की मुहर लगाती उनकी स्त्रीवादी दृष्टि.
पहचान की इतनी परतें उनके लेखन में भी बहुआयामिता, बारीकियां और संश्लिष्ट संवेदनशीलता लेकर आती है. अपने एक साक्षात्कार में सिधवा अपनी किसी एक नियत पहचान न होने के संदर्भ में कहा था: ‘एक पारसी के रूप में, एक पाकिस्तानी के रूप में, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो मुसलमानों के बीच पला-बढ़ा था – इन सभी प्रभावों ने मेरी आवाज़ को आकार दिया. यह सिर्फ़ पारसी नहीं थे. लाहौर में सिर्फ़ लगभग डेढ़ सौ पारसी थे और मेरी उम्र की सिर्फ़ तीन या चार पारसी लड़कियां थीं. इसलिए मेरे दोस्त मुख्य रूप से मुस्लिम और ईसाई समुदायों से थे.’
अपने कई साक्षात्कारों में सिधवा ने यह स्वीकार किया कि उनकी रचनाशीलता गुजराती, उर्दू और अंग्रेजी भाषा की जड़ों से निकली हैं, इसलिए अंग्रेजी में लिखते हुए भी उनके कथ्य की संवेदनशीलता और उसकी अभिव्यंजना दक्षिण एशियाई ही है. इस अर्थ में एक प्रवासी पाकिस्तानी लेखिका होने के साथ ही सिधवा एक प्रमुख उत्तर-औपनिवेशिक स्वर भी बन जाती हैं, जिनकी रचनाओं से तीसरी दुनिया की दबी हुई आवाज़ों को प्रतिनिधित्व मिलता है. पाकिस्तानी-भारतीय परिवेश से उपजी यह रचनात्मकता स्त्रियों की वह तस्वीर प्रस्तुत करती है, जो उनके पहले उपन्यास ‘द ब्राइड’ में एक पश्तूनी लड़की जैतून की मर्मस्पर्शी गाथा बनकर आती है, तो वहीं आइसकैंडी मैन में पुरुष वर्चस्ववादी इतिहास की शक्ति के प्रदर्शन का क्षेत्र बन जाती है.
एक रचनाकार के रूप में सिधवा पर स्वयं अपनी गहरी अध्ययनशीलता का भी प्रभाव पड़ा. इस संदर्भ में उन्होंने कहा था: ‘समकालीन लेखकों में, मैं नायपॉल और राजा राव से अधिक प्रभावित थी, बचपन में पढ़ी गई रचनाओं में जो कुछ भी पढ़ा, वह मेरे वाक्यों की संरचना, मेरे विचारों को व्यक्त करने के तरीक़े में समा गया, पर आत्मसात करने के बावजूद मैंने इसे एकदम निजी रूप से पारसी/पंजाबी/पाकिस्तानी या यूं कहें बहुत स्वदेशी बना दिया और इस प्रकार जिन आवाज़ों को मैंने पढ़ा उससे बिल्कुल अलग, एक नई आवाज़ के तौर पर सामने आया’.
कराची में जन्म के कुछ वक़्त बाद ही बापसी परिवार के साथ लाहौर आ गईं थीं. बचपन में पोलियो से ग्रस्त होने के कारण उनकी शिक्षा पंद्रह साल तक घर पर ही रह कर हुई और उसके बाद लाहौर के किन्नअर्ड कॉलेज से साल 1957 में उन्होंने स्नातक किया. उनकी प्रमुख कृतियों में द क्रो ईटर्स (The Crow Eaters, 1978), द ब्राइड (The Bride, 1982), आइसकैंडी मैन (Ice Candy Man, 1988) एन अमेरिकन ब्रैट (An American Brat, 1993) और सिटी ऑफ़ सिन एंड स्प्लेंडर: राइटिंग्स ऑन लाहौर (City of Sin and Splendour: Writings on Lahore, 2006) शामिल हैं, जो दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिदृश्य को उसकी संपूर्णता में ग्रहण करता है.
सिधवा ने ही वाटर: ए नॉवेल भी लिखा, जिसे दीपा मेहता ने अपनी फिल्म वाटर में पटकथा के रूप में उपयोग किया और आगे इस फिल्म को आस्कर पुरस्कारों के लिए भी नामांकित किया गया. सिधवा की रचनात्मक विरासत को दर्ज करने के उद्देश्य से ही साल 2022 में सिटीजन आर्काइव्स ऑफ पाकिस्तान ने उनके जीवन पर एक डाक्यूमेंट्री ‘बापसी: साइलेंसेस ऑफ माई लाइफ’ बनाई है. साल 1991 में उन्हें पाकिस्तान में कला के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान, सितारा-ए-इम्तियाज़ से भी नवाजा गया था. सिधवा की रचनाओं का रसियन, फ्रेंच और जर्मन में भी अनुवाद किया गया है और वह वस्तुतः एक वैश्विक लेखक थीं.
अपने पहले विवाह के बाद सिधवा कुछ अरसे के लिए बंबई आ गईं थीं और यही वह समय है जिसमें मिले अनुभवों से ही उन्होंने अपने उपन्यास ‘द क्रो इटर्स’ का ताना-बाना बुना. इस उपन्यास में उनकी रचनात्मकता, उनके अपने समुदाय को एक आलोचकीय दृष्टि से देखने में लगी है. पारसी समाज की इस कहानी में सूक्ष्म व्यंग्यात्मक तेवर रख वह इस समाज के अंतर्विरोधों और विचित्रताओं को तो उभारने में सफल हुईं, पर जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें स्वयं पारसी समाज से काफी आलोचना झेलनी पड़ी. वह समुदाय जो अपने आप के विषय में प्रायः एक उत्तेजना और गर्व से बात करने का आदी था, उसके लिए वाकई सिधवा की रचना उस ढके-छुपे अंतरंग से पर्दा उठाने का सबब बना. पर स्वयं पारसी होकर सिधवा यह आत्मलोचन कर सकीं उसकी वजह उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में स्पष्ट की थी कि कैसे बॉम्बे में, जहां बनिस्बत कराची या लाहौर के ऐतिहासिक रूप से एक विशाल पारसी समुदाय रहता था, सिधवा को अपने समुदाय को अधिक नज़दीकी से देखने का अवसर मिला. वह अपने समाज के सामूहिक स्वभाव या विशिष्टताओं को एक तटस्थता से देखती हुई उस पर आलोचनात्मक नज़र डाल सकती थीं. हालांकि उनका यह उपन्यास काफ़ी लोकप्रिय हुआ.
भारतीय उपमहाद्वीप में 1947 के विभाजन जैसे त्रासद ऐतिहासिक क्षण को उपमहाद्वीप के साहित्यकारों ने अपनी अपनी भाषिक विशिष्टताओं के साथ देखा है. प्रायः वह रचनाकार रहे हैं जो अपनी-अपनी पक्षधरताओं के साथ इस क्षण की व्याख्या करते रहे हैं. पर सिधवा की विशिष्टता इस अर्थ में रही कि चूंकि वह पारसी समुदाय से संबद्ध थी तो इस घटना को एक ऐसी आपेक्षिक दूरी और तटस्थता के साथ देख सकती थीं, जिसका लाभ विभाजन के कई रचनाकारों को नहीं था. और इस दूरी ने ही उनके कथ्य में वह वस्तुनिष्ठता लाई जिससे कि वह इस कठिन समय में सभी पक्षों की भागीदारी को देख सकती थीं.
उनके समुदाय की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विरासत ने उन्हें विभाजन को सुरक्षित दूरी से देखने की एक विशिष्ट स्वतंत्रता दी, क्योंकि पारसी जो स्वयं अपनी जड़ों से उखड़ कर इन नए प्रदेशों में बसे थे, उस स्थान विशेष की धार्मिक और राजनीतिक नीतियों के प्रति एक तटस्थ स्थिति रखते थे. अपने एक साक्षात्कार में अपनी इस विलक्षण स्थिति के संदर्भ में सिधवा ने भी कहा था कि चूंकि संघर्ष हिंदुओं और मुसलमानों के बीच था और इसीलिए एक पारसी के रूप में वह इस विशद और अहम संघर्ष का निष्पक्ष और उत्तेजनारहित विवरण दे सकती थीं. पर इस निष्पक्षता का यह अर्थ नहीं था कि उन्होंने बस एक मूक दर्शक की तरह सारी कहानी कह दी भर हो.
सिधवा ने क्रैकिंग इंडिया में राष्ट्र-राज्य के राजनीतिक निर्णयों की भेंट चढ़ गई स्त्रियों का इतना बारीक वर्णन किया है जो यह स्पष्ट करता है कि कैसे राष्ट्र का निर्माण अंततः स्त्रियों की देह पर किया गया. उन्हें इस पूरी हिंसा में केवल संपत्ति की तरह कभी तो उनके समुदाय के पुरुषों ने उपभोग में लाया और कभी अभिभावक बना राष्ट्र-राज्य अपनी-अपनी सीमाओं के निर्धारण भी उनकी लैंगिकता के आड़ में करता रहा.
क्रैकिंग इंडिया (आइस कैंडी मैन) में सिधवा ने दिखलाया है कि कैसे 1947 में जब दो नए स्वतंत्र राष्ट्रों का जन्म हो रहा था, तब कहीं बहुत गहरे में कुछ विघटित भी हो रहा था. अगर पितृसत्तात्मक बुर्जुवा राष्ट्र इस नव-निर्माण का स्वागत कर रहा था, तो वहीं सामाजिक-सांस्कृतिक निरंतरताओं का मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का विनाश भी हो रहा था. जैसा कि उपन्यास के शीर्षक से पता चलता है, यह वह आम आदमी थे, वह स्त्रियां थीं, जो भारत के इस विभाजन की ‘दरारों’ में फंस कर रह गए थे. एक रचनाकार के रूप में सिधवा की संवेदनशीलता को विभाजन ने सबसे गहरे में प्रभावित किया था.
8-9 साल की बालिका रही सिधवा ने विभाजन को एक ऐसे पक्ष का प्रतिनिधि होकर देखा था, जिसे प्रत्यक्ष रूप से कोई हानी नहीं हुई थी, पर उस युग की, उन स्याह समयों के त्रास में वह पूरी पीढ़ी आजीवन रही थी. इस बचपन के अनुभव को, उन हिंसक महीनों के त्रास को उनकी बाल-संवेदनशीलता ने इतनी गहराई से पकड़ा था, जिसकी ही परिणति क्रैकिंग इंडिया उपन्यास के रूप में हुई. उपन्यास में आठ वर्षीया बालिका लेनी जो पारसी संभ्रांत परिवार की बेटी है, उसकी आंखों से विभाजन पूर्व के लाहौर के एक सौहार्दपूर्ण मुहल्ले की स्थितियों को लेखिका ने दिखलाया है और इस अर्थों में इस उपन्यास में स्वयं लेखिका के निजी जीवन की स्मृतियों से उपजा लगता है. मसलन कथ्य में लेनी भी पोलियो से ग्रस्त होकर घर पर ही शिक्षा ग्रहण कर रही है और विभाजन के समय स्वयं लेखिका की उम्र भी आठ-नौ साल की ही थी. पर सिधवा की इस कथा के केंद्र में मुख्य पात्र आया शांता है जो लेनी की देख रेख के लिए सेठी परिवार में रहती है.
शांता के माध्यम से सिधवा कथा में निहित स्त्रीवादी पक्ष को उभारती हैं. शांता, विभाजन से पूर्व के लाहौर में अपेक्षाकृत स्वतंत्र ज़िंदगी जीती है, जहां वह एक साथ कई पुरुषों के आकर्षण और प्रेम का केंद्र है. एक स्त्री के रूप में शांता की स्थिति को लेखिका ने सामाजिक-पितृसत्तात्मक अपेक्षाओं से अपेक्षाकृत स्वतंत्र दिखलाया है. पर वही शांता, विभाजन के समय पुरुषों की हिंसा का शिकार होकर अंततः न केवल आइसकैंडी मैन से विवाह कर देने पर मजबूर कर दी जाती है बल्कि लाहौर की हीरा मंडी में एक वेश्या बना दी जाती है. सिधवा का यह सशक्त स्त्रीववादी पाठ यह संकेत करता है कि कैसे स्त्रियों की अस्मिता को उत्तर-औपनिवेशिक राष्ट्र निर्माण के पूरे विमर्श में निर्मित करना तो दूर, बल्कि उन्हें कुचल दिया गया या उसका स्वरूप ही बदल दिया गया.
सिधवा की रचनात्मकता में वह संवेदनशीलता है, जो उन्हें विभाजन के कई रचनाकारों से सीधे तौर पर अलग कर देता है. पुरुषों ने जिस प्रकार विभाजन की हिंसा के चित्रण में स्त्री देह के साथ होने वाले अत्याचार के स्थूल चित्र उकेरे हैं, वहीं सिधवा ‘क्रैकिंग इंडिया’ में पीर पिंडों में स्त्रियों पर होने वाली हिंसा को उसकी ध्वनियों में ग्रहण करती हैं. विभाजन की भयावहता को वह सीधे तौर पर नहीं दिखातीं, यहां हम उन्हें केवल सुन सकते हैं- उन स्त्रियों की चीखों में, उनके करुण विलापों में. स्त्रियां जिन्हें न तो मारा ही जाता है और न ही ज़िंदा छोड़ा जाता है, जो स्वयं को एक अकथनीय पीड़ा के बीच की जगहों में फंसा हुआ पाती हैं, सिधवा की रचना में केंद्रीयता पाती हैं. इसलिए सिधवा द्वारा विभाजन पर विचार करना एक किस्म की वस्तुपरकता तो लाता ही है क्योंकि वह धर्म और लैंगिकता दोनों ही के स्तर पर सामाजिक समीकरण के केंद्र में अवस्थित नहीं हैं. यह एक ऐसी सबालटर्न स्थिति है जिसमें से छन कर उनका नज़रिया मुख्यधारा के पुरुषवादी आख्यान से अलग हो जाता है.
हालांकि, संवेदनशील मुद्दों, विशेषकर दक्षिण एशियाई समाजों में स्त्री के साथ होने वाले ट्रीट्मेंट को उन्होंने अपने सबसे पहले उपन्यास ‘द ब्राइड’ में भी उठाया था. यहां सिधवा ने एक स्त्री को पाकिस्तान के पूर्वोत्तर में स्थित काराकोरम पहाड़ियों में रहने वाले कबीलाई समूहों में संघर्ष करता हुआ दिखलाया है. एकदम भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में अवस्थित सिधवा की सूत्रधार जैतून, जिसे जबरन एक कबीले के नौजवान से ब्याह दिया जाता है, की कहानी उन्होंने स्वयं उन क्षेत्रों में अपने एक प्रवास के दौरान सुनी थी.
असल घटना में मैदानी भागों से खरीद कर लाई गई वह स्त्री अपने पश्तून पति के पास से भाग जाती है और चौदह दिनों तक काराकोरम पहाड़ियों के बीहड़ बियाबान में भटकती है. अंततः काराकोरम हाइवै बनाने वाली सेना के कैंप के पास तक वह पहुंचने ही वाली रहती है कि कबीलाई आन और पुरुष के अनुशासन का उल्लंघन कर भाग जाने वाली वधू को उसके कबीले द्वारा पकड़ लिया जाता है. वास्तविक घटना में तो हाथों-हाथ क़त्ल कर उस स्त्री को बहती हुई सिंधु नदी में फेंक दिया जाता है. पर सिधवा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि कैसे उपन्यासकार के पास यह रचनात्मक स्वतंत्रता रहती है जहां वह यथार्थ को नई अर्थवत्ता दे सकती हैं. इसलिए जब इस घटना को उन्होंने अपने उपन्यास का कथ्य बनाया तो सूत्रधार जैतून के इस लंबे संघर्ष की परिणति उसके क़त्ल में नहीं बल्कि किसी भी तरीक़े से बच जाने में, उसकी जिजीविषा को एक अर्थ देने में दिखलाया. यथार्थ में यह रचनात्मक हस्तक्षेप सिधवा की स्त्रीवादी दृष्टि को दिखलाता है जहां वह स्त्री के संघर्ष को एक भौतिक विजय से भी पुष्ट करना चाहती है.
बहरहाल, बापसी सिधवा की रचनात्मकता हमें हमारे समाजों को समझने की एक दृष्टि तो देती ही है पर वह हमें हमारे इतिहासों पर भी प्रश्न उठाने के बिंदु देता है. उनके साहित्य ने हमारे दक्षिण एशियाईं समाजों की सामूहिक संस्कृति और स्मृतियों को वैश्विक प्रतिनिधित्व दिया- एक ऐसा उत्तर-औपनिवेशिक प्रत्युत्तर जो हाशिए को स्वर देने वाला है. इसलिए भी बापसी सिधवा का गुज़रना इस उपमहाद्वीप की साझी संस्कृति को याद करने का भी एक मौका भी है और साझी क्षति भी.
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)