प्राचीन भारत में विरोध: चारणों की नैतिक सत्ता और गांधी के अनशन का संदर्भ

पुस्तक अंश: ‘असहमति की आवाज़ें’ में रोमिला थापर ने भारत में असहमति और विरोध के अहिंसक स्वरूपों की बात की है. वे लिखती हैं कि विरोध की अभिव्यक्ति अलग-अलग संस्कृतियों और समाजों में अलग-अलग स्वरूप लेती रही है.

पुस्तक का आवरण (साभार: राजकमल प्रकाशन)

इतिहासकार रोमिला थापर की चर्चित किताब ‘वॉइस ऑफ डिसेंट: एन एस्से’ (Voices of Dissent: An Essay) का हिंदी अनुवाद ‘असहमति की आवाज़ें’ के नाम से प्रकाशित हुआ है. इस अनुवाद को राजकमल प्रकाशन ने छापा है और इसे पत्रकार अशोक कुमार ने अनुवादित किया है. प्रस्तुत अंश में प्राचीन भारत में असहमति और विरोध के अहिंसक स्वरूपों पर गहन चर्चा की गई है, जिसमें चारण और भाट जैसे समूहों की भूमिका को रेखांकित किया गया है.

विरोध की अभिव्यक्ति अलग-अलग संस्कृतियों और समाजों में अलग-अलग स्वरूप लेती रही है. चीन और यूरोप के विपरीत जहां हिंसक क़िस्म के किसान-विद्रोह हुए, प्राचीन काल के भारत में ऐसे विद्रोह का शायद ही कोई उल्लेख मिलता है. हालांकि, आंदोलन का ख़तरा अक्सर मंडराता रहता. प्राचीन काल में किसानों के विरोध ने पड़ोसी साम्राज्य में प्रवास का रूप लिया. बताया गया है कि सम्राटों को ऐसे विस्थापन से ख़तरा महसूस होता था क्योंकि इससे राजस्व का नुक़सान होता था. बाद के काल में अवश्य किसानों और कारीगरों द्वारा विद्रोह की धमकी के कुछ उल्लेख मिलते हैं.

शहरी आबादी की ओर से हुए विरोध ने दूसरे रूप लिए. इनमें से एक तो गांधी के संग्रह में भी शामिल था. इसे कई नामों से जाना जाता था, जिनमें से एक था ‘धरना’ जो राजस्थान और गुजरात में जाना-पहचाना था. इसकी सफलता की वजह यह थी कि इसे ‘चारण’ और ‘भाट’ जैसे ख़ास वर्ग ने अपनाया. इन लोगों को ज्ञान का भंडार माना जाता था, जो शासक की सत्ता को वैधता देने के लिए महत्त्वपूर्ण था. यह इस बात का एक और उदाहरण है कि लोग आधिकारिक रूप से चुने गये व्यक्ति को नहीं बल्कि ऐसे व्यक्ति को सत्ता प्रदान करते थे जिसे समाज के अभिन्न, सम्मानित अंग के रूप में देखा जाता था.

आज, औपचारिक सत्ता पर अत्यधिक निर्भरता के कारण इस वर्ग का विरोध वह काम नहीं कर पाता जो पहले करता था, लेकिन उसकी भूमिका को मान्यता देना यह बताता है कि समाज कुछ काल पहले किस तरह चला करते थे.

इन चारणों की कुछ गतिविधियां सत्ता के लिए ज़रूरी थीं क्योंकि सत्ता को निरंतर वैधता की ज़रूरत होती है. ये चारण शासकों और कभी-कभी महत्त्वपूर्ण पदाधिकारियों के वंश का इतिहास रखा करते थे, इसी कारण वे वंश के इतिहास के दस्तावेज़ रखने वाले बन गए. सत्ताधारी वंश के इतिहास की वंशावली का ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से दावा करके ये उस वंश की वैधता स्थापित करते थे. चारणों की अपनी सामाजिक स्थिति नीची होती थी लेकिन प्राचीन काल से उन्हें अक्षुण्ण सम्मान हासिल था और विवादों में मध्यस्थता करने के लिए बुलाया जाता था.

सत्ता के कई रूप होते हैं. कुछ स्थितियों में नैतिक सत्ता राजनीतिक सत्ता से ऊपर मानी जा सकती है. यह इस विश्वास के साथ जुड़ा होता है कि एक विशेष तरह के व्यक्ति को उसकी स्थिति और कर्म के आधार पर नैतिकता से परिपूर्ण मान लिया जाता है. चारणों को यह सत्ता हासिल थी. जब उसे भरोसा हो जाता था कि लोग जो विरोध कर रहे हैं वह वैध है, तो वह उसकी अगुआई करता था. उस विरोध का समर्थन करने के लिए वह शाही महल की दहलीज़ पर बैठ जाता, संघर्ष के समाधान तक भूख हड़ताल करता या स्वैच्छिक अनशन करके अपनी जान तक देने के लिए तैयार रहता था.

अनशन का प्रभाव इस पर निर्भर करता था कि अनशन करने वाला व्यक्ति नैतिक सत्ता से सम्पन्न हो और उसे शासकों और प्रजा से भी सम्मान हासिल हो. उसकी शक्ति अदृश्य लेकिन इस सम्मान पर आधारित होती थी. उसका विरोध-प्रदर्शन अगर न्याय की मांग के लिए होता था तभी वैध होता था. अनशन के कारण हुई चारण की मृत्यु शासक के लिए विनाशकारी होती थी. इस प्रकार, अनशन के कारण जो ख़तरा पेश होता था उससे वे डरते थे. असहमति और नैतिक चुनौती के रूप में अनशन का जो दोहरा मक़सद था वह विरोध प्रकट करने के पुराने रूपों के लिए अज्ञात नहीं था. अनशन इस विरोध को दबा देता था और उसे हिंसक होने से रोक देता था.

क्या इसमें और गांधी द्वारा किये गये अनशन में कोई समानता देखी जा सकती है? ब्रिटिश राज ने इसे खुलकर भले न स्वीकार किया हो लेकिन उनका हरेक अनशन अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता के लिए चिंता का कारण बनता था क्योंकि वे एक राष्ट्रीय हस्ती थे. ‘महात्मा’ की उपाधि लोगों पर उनकी नैतिक सत्ता की पुष्टि करती थी. अनशन अन्याय के विरोध में होता था लेकिन यह डर भी रहता था कि अगर इसने प्रभावी रूप धारण किया तो यह गम्भीर ख़तरा बन सकता है जिसे अच्छी तरह समझ लिया गया था.

गांधी ने अहिंसक प्रतिरोध को जिस रूप में प्रस्तुत किया वह राष्ट्रीय आंदोलन का एक तत्त्व बन गया. हमेशा अहिंसा का पालन करने में अक्षमता एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया.

(साभार: राजकमल प्रकाशन)