सिनेमा जगत में समानांतर सिनेमा की नई धारा का आगाज़ करने वाले श्याम बेनेगल (14 दिसंबर 1934-23 दिसंबर 2024) हमारे बीच नहीं रहे. गत 14 दिसंबर को उन्होंने अपना आख़िरी जन्मदिन मनाया और जन्मदिन की पार्टी में फ़िलहाल एक दो प्रोजेक्ट में संलग्न होने का स्वयं ज़िक्र भी किया. नब्बे वर्ष की आयु में भी अपने काम के प्रति ऐसी सजगता और गंभीरता बहुत दुर्लभ है.
कला, सिनेमा एवं साहित्यिक जगत में कई प्रयोगधर्मी हुए, जिन्होंने अपनी लेखनी, विचार व शैली से कला के नए रूप को सृजित किया. साहित्य में अज्ञेय को प्रयोगधर्मी के रूप में स्मरण किया जाता है वहीं समानांतर सिनेमा जगत में -‘श्याम बेनेगल’. साठ-सत्तर का दशक भारतीय सिनेमा जगत में बदलाव का रहा. इस समय व्यवसायिक सिनेमा के समानांतर जो धारा पनपी उसे ही सिने समीक्षकों ने कला सिनेमा, समानांतर सिनेमा, सार्थक सिनेमा आदि उपनामों से अभिव्यंजित किया.
समानांतर सिनेमा ने जन मानस की चेतना को विकसित करते हुए सामाजिक यथार्थ को उद्घाटित किया. इसी परिप्रेक्ष्य में बेनेगल ने अंकुर (1974), मंथन (1976), भूमिका (1977), मंडी (1983), मम्मो (1994), जुबैदा (2001) , वेल-डन अब्बा (2009) जैसी सार्थक फिल्में बनाईं. इसके अलावा छोटे परदे पर जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ को दूरदर्शन के लिए ‘भारत एक खोज’ के रूप में रूपांतरित किया. ‘यात्रा’,‘संविधान’ जैसे टेली-शो के माध्यम से भारत के घर-घर में उन्होंने अपनी पहचान बनाई.
इनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का ही प्रमाण है कि इन्हें भारत के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे में शिक्षण कार्य के लिए आमंत्रित किया गया. इन्हें भारत सरकार से कई पुरस्कार व सम्मान भी प्राप्त हुए. इन्हें पद्मश्री (1976), पद्म भूषण (1991) और दादा साहेब फ़ालके पुरस्कार (2005) . वहीं इन्हें आठ राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (लगातार पांच वर्ष) भी प्राप्त हुए हैं.
सिनेमा और कैमरे के माध्यम से बेनेगल ने जीवन को बड़ी शिद्दत से जीया. वह जनसंचार और डिजिटल क्रांति की महत्ता से भली-भांति परिचित थे तभी उन्होंने अपने सिनेमा के जरिये असली भारत की तस्वीर को बड़े परदे पर उकेरा. जहां केवल रोमांच नहीं बल्कि वास्तविक यथार्थ है. उन्होंने फिल्मों को बनाने का एक तय फॉर्मूला के विपरीत यथार्थवादी रास्ता चुना. इतना ही नहीं उन्होंने सिनेमा के ट्रेंड को बदल दिया, जहां हाशिए का समाज सिनेमा के केंद्र में आया. इनके सिनेमा का मूल स्वर-संघर्ष एवं समतामूलक समाज पर आधारित है.
इनके सिनेमा की स्त्री-समर्थ, स्वतंत्र और स्वावलंबी है. वह शोषण, दमन के खिलाफ सिर्फ आवाज़ ही नहीं उठाती अपितु पूरी गरिमा के साथ अपनी लड़ाई स्वयं लड़ती है. उनका सिनेमा इसी संघर्षरत स्त्री की दास्तान है. उनकी स्पष्ट मान्यता है कि समाज में स्त्रियों की स्वतंत्रता की नींव बराबरी पर टिकी है. लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने समाज में स्त्रियों के लिए एक निश्चित ढांचा तय कर रखा है और वह उसे उसी पारंपरिक रूप में स्वीकार करना चाहता है. इसे बने बनाए खांचे से अलग कुछ भी स्वीकार्य नहीं.
इसी संदर्भ में यह विचारणीय है कि भारत में लोकतांत्रिक व संवैधानिक अधिकार प्राप्त होने के बावजूद क्यों स्त्रियों को घर, परिवार समाज में वह बराबरी नहीं मिल पाती जिनकी वे हकदार हैं. 1960-70 के दशक में लोकप्रिय सिनेमा स्त्री की पारंपरिक छवि को गढ़ता है जिसे समाज बहुत सरलता से अपना लेता है. समाज कभी भी पारंपरिक छवि पर प्रश्न खड़ा नहीं करता. बेनेगल इसी रूढ़ हो गई पारंपरिक छवि को अपने सिनेमा में तोड़ते हैं.
उनके सिनेमा की सबसे बड़ी ताकत यही है कि उन्होंने अपने समय की चली आ रही परिपाटी को अस्वीकार किया और उसके बरक्स स्त्री के स्वावलंबी स्वतंत्र रूप को गढ़ा. इसके पीछे का मूल कारण – बराबरी की दरकार थी. अपने कई इंटरव्यू में उन्होंने ज़िक्र किया है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ही देन है कि समाज स्त्रियों की मेंटल कंडीशनिंग इस तरह से करता है कि जब धर्म, जाति,परम्परा के नाम पर स्त्रियों का शोषण किया जाता तो उन्हें उसमें कुछ भी गलत नहीं लगता.
कितनी बड़ी विडंबना है कि स्वयं स्त्रियों को इसका अहसास भी नहीं होता. संवैधानिक रूप से बराबरी मिलने के बावजूद भी स्त्रियों के जीवन में स्वतंत्रता एक मिराज है.
बेनेगल साहब का लेंस समाज में स्त्री-पुरुष समानता का पुरज़ोर समर्थन करता है. इसकी झलक- अंकुर, निशांत, भूमिका, मंडी में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है.
अंकुर : हाशिये की आवाज़
देखा जाए तो कलात्मक सिनेमा का ज़िक्र अंकुर के बिना अधूरा है. स्त्री जीवन पर जब भी बातें हुईं भी तो भावों का अतिरेक कर दिया जाता है या कथा अपने मूल रूप से भटक जाती है पर श्याम बेनेगल ने इस बात का विशेष ध्यान रखा. उनकी यह फिल्म पारंपरिक मूल्यों पर चोट करती है जहां ग़ैर-बराबरी, शोषण, अत्याचार है. बड़ी बारीकी से इन्होंने दिखाया कि वर्ग-विभेद के कारण व्यक्ति कोई भी निर्णय लेने को स्वतंत्र नहीं है. शबाना आज़मी (लक्ष्मी) को जमींदार का बेटा अनंत नाग (सूर्या) जिंदगी भर की सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा का आश्वासन देता है और फिर समाज में उसे उपेक्षित जीवन जीने पर मजबूर कर देता है.
निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही शबाना आज़मी (लक्ष्मी) अनंत नाग (जमींदार) से आखिर में कहती है – ‘हम तेरे खरीदे गुलाम नहीं हैं’.
बेनेगल पंच के रूप में पितृसत्ता के क्रूरतम रूप से भी परिचय करवाते हैं. क्या पंचायत के द्वारा लिया गया निर्णय वास्तविकता में पितृसत्तामक की जड़ों को और मजबूत नहीं करता? क्या स्त्री को अपने जीवन के निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं? पंचों के निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि समाज स्त्री की गिनती वस्तु के रूप में ही करता है. पंचायत में राजम्मा स्त्री की प्राकृतिक ज़रूरतों की चर्चा करती है जिसे पंच अनसुना करते हुए अपना निर्णय सुनाते हैं.
इनकी फिल्में दृश्यों में खुलती हैं, पंचायत का निर्णय और अगले ही क्षण मृत्यु का दृश्य इस समाज के बड़े बड़े पदों पर आसीन पितृसत्तामक विचार को पोषित करने वालों का प्रतिनिधित्व करता है. यह समाज हमेशा से स्त्री से जुड़े सवालों को हाशिए पर धकेल देता है. ‘अंकुर’ भी इन्हीं संदर्भों को उद्घाटित करती है.
ज़मींदारी प्रथा,जातिवाद, शोषण और हाशिए का समाज कहानी का मुख्य विषय है. शबाना आज़मी का किरदार उस मानसिक कश्मकश को अभिव्यक्त करता है जिसमें आपका सामाजिक स्तर न केवल वर्तमान में आपके निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है, बल्कि अच्छे भविष्य की कल्पना भी करने का हक नहीं देता.
कहानी का अंत प्रतिरोध की आवाज़ का प्रतिध्वनित कर रहा है. फिल्म के अंतिम दृश्य में अपनी बेबेसी और गुस्से में एक बच्चा जमींदार के घर पर पत्थर फेंकता है जिससे घर की खिड़की का कांच टूट जाता है और अगले ही क्षण फिल्म समाप्त हो जाती है.
यह प्रयोगधर्मी अंत, समाज के बीच के वर्ग भेद को बखूबी अभिव्यक्त करता है जहां अब हर वर्ग में सही और गलत के फ़र्क को समझा जा रहा है और उसके खिलाफ आवाज़ उठाने की चेतना विकसित हो चुकी है. शोषितों के बीच प्रतिरोध का स्वर प्रबल है. सिनेमा सामाजिक बदलाव लाने में कितना सफल होता है यह विचारणीय है पर सामाजिक चेतना ज़रूर विकसित करता है.
मंथन: सामाजिक एकजुटता की मिसाल
साल 1976 में फिल्म ‘मंथन’ की नींव श्याम बेनेगल और विजय तेंदुलकर ने एक साथ मिलकर रखी. इसकी पृष्ठभूमि दुग्ध क्रांति से संबंधित है. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी फिल्म के निर्माण के लिए जन समुदाय द्वारा (क्राउडफंडिंग) राशि एकत्रित की गई हो.
यह भारत के 5,00,000 किसानों के सामाजिक एकजुटता का ही प्रमाण है, जहां उन्होंने 2-2 रुपये की सहायता राशि जमाकर गुजरात के दुग्ध क्रांति को बड़े परदे पर स्थान दिलाया.
मंडी: नैतिकता का प्रश्न
श्याम बेनेगल के रचनात्मक विज़न में उनकी फिल्म ‘मंडी’ (1983) पर बात किए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता. इन्होंने मंडी में एक साथ स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, सोनी राजदान, अनिता कंवर, रत्ना पाठक, पंकज कपूर, ओम पुरी, नीना गुप्ता आदि को शामिल किया था.
फिल्म समाज के उस वीभत्स रूप से परिचय कराती है, जहां सामाजिक व्यवस्था (फिल्म में मौजूद पूंजीपति धनाढ्य वर्ग और नगर निगम के कर्मचारी) किस तरह से स्त्री के लिए बेड़ियां बुनता है, यह स्पष्ट किया गया है. इसमें नैतिकता के प्रश्न को कठघड़े में रखा गया है. यहां वेश्यावृति के मूल कारणों की पड़ताल है. यह फिल्म समाज से यह प्रश्न करती है कि- ‘क्या वेश्यावृति के लिए बस स्त्रियां दोषी है?’
‘मंडी’ में वीरान स्थान का फिर से गुलज़ार होना बेनेगल साहब का समाज के सभी प्रश्नों का प्रतीकात्मक जवाब है.
ज़ुबैदा: स्त्री मन की दास्तान
बेनेगल स्त्री मन के हर भाव को अभिव्यक्त करने में सफल हुए हैं. उनके द्वारा निर्देशित ज़ुबैदा (2001) स्त्री के अंतर्मन की तस्वीर है. ज़ुबैदा एक स्वतंत्र, स्वावलंबी स्त्री की दास्तान है जो सच्चे प्रेम की तलाश में भटकती रही पर उसे अपने जीवन में पाने में असफल रहीं.
बेनेगल ने फिल्म में सामाजिक प्रथाओं, रिश्तों में मिलावट और संबंधों की शिथिलता को बखूबी अभिव्यक्त किया है. इसमें मंदिरा देवी और ज़ुबैदा समाज के दो अलग-अलग ख़ेमे का प्रतिनिधित्व कर रही स्त्रियां हैं. उनके बीच का संवाद इसकी पुष्टि करता है. रानी मंदिरा देवी कहती हैं, हमारी ज़िंदगी के दो पहलू हैं, एक अधिकार का, दूसरा कर्तव्य का, एक के बिना दूसरा मुमकिन नहीं.’
फिल्म का अंत दर्शकों को यह सोचने पर बाध्य कर देता है कि ज़ुबैदा की मौत क्या सचमुच एक दुर्घटना थी या साजिश? इसका फैसला वे दर्शकों के ऊपर छोड़ देते हैं.
बहरहाल, बेनेगल साहब के फिल्मों की सूची तो बहुत लंबी है, पर एक अनोखी बात यह है कि इन्होंने न केवल फिल्में बनाईं बल्कि हर फिल्म के साथ कुछ न कुछ अलग प्रयोग भी किया. चाहे वह पूर्व दीप्त शैली (फ्लैशबैक) या फास्ट फॉरवर्ड शैली का प्रयोग हो या फिर तकनीक से लेकर कथ्य तक में कोई नया बदलाव. कभी-कभी फिल्म के भीतर एक अलग फिल्म को डालकर एक नए चलन का (भूमिका, 1977) भी सूत्रपात किया.
ये प्रयोगधर्मी स्वभाव ही इन्हें अन्य सिने निर्देशकों से अलग बनाता है. 1970-80 के दशक में कलात्मक सिनेमा धीरे-धीरे अपनी ज़मीन तैयार कर रहा था. ‘अंकुर’ से लेकर ‘वेल-डन अब्बा’ तक उनकी सिनेमा में प्रतिरोध का स्वर प्रबल रहा. केवल सिनेमा ही नहीं अगर बेनेगल साहब को सही में क़रीब से जानना हो तो उनके वृत्तचित्रों के विषय व उनकी प्रस्तुति को ज़रूर देखना चाहिए. वह स्वयं, सत्यजीत राय के काम (पाथेर पांचाली, 1955) से बहुत प्रभावित थे.
उनका मानना था कि कलात्मक सिनेमा के लिए राय ने पाथेर पांचाली के बाद असीम संभावनाओं के द्वार खोल दिए. 1982 में उन्होंने सत्यजीत राय पर डॉक्यूमेंट्री बनाई, जिसे साहित्य से लेकर सिनेमा जगत तक में बहुत सराहना मिली. बेनेगल, इसमें सत्यजीत राय के काम करने के अंदाज़ और सोचने-समझने की शैली के साथ-साथ उनकी फिल्मों के पीछे छिपे संवेदनशील सत्यजीत रे से मिलवाते हैं जिन्होंने, साहित्य सिनेमा जगत की सोच व दिशा बदल दी.
बेनेगल साहब की सबसे ख़ास बात यह है कि इनमें अपने समय के प्रति परिवर्तन का आग्रह था. जब समानांतर सिनेमा उस तरह से सफल नहीं हो रहा था तब उन्होंने समय का तकाज़ा देखते हुए बॉलीवुड की मुख्यधारा के लिए भी कुछ बेहतरीन फिल्में बनाई. हालांकि कलात्मक सिनेमा ही उनकी असल ताकत थी. इनके कथानक का स्वर सामाजिक प्रतिरोध है. वहां अगर-मगर के लिए स्थान नहीं बल्कि प्रतिरोध की अनुगूंज है.
हिंदी सिनेमा में स्त्री विमर्श को जो स्थान मिला है उसमें समानांतर सिनेमा का एक अहम योगदान है. समसामयिक समय में बेनेगल साहब की फिल्में एक नई दृष्टि विकसित करने का अवसर देता है. राजकपूर, केए अब्बास, बिमल रॉय, वी. शांताराम, बीआर चोपड़ा आदि निर्देशकों की फिल्मों में भी स्त्री संबंधी चिंतन है पर समानांतर सिनेमा में सामाजिक यथार्थ को बिना किसी अतिरेक के परदे पर उतारा गया है.
यह एक ऐसे अलग जॉनर की फिल्में है जिसमें जीवन के श्याम पक्ष को तवज्जो दिया गया है श्याम बेनेगल की फिल्में साहित्य में उदय प्रकाश की लंबी कहानी ‘मोहनदास’ की याद दिलाता है. एक सामान्य, साधारण मनुष्य की यात्रा और इसी यात्रा को उन्होंने सिनेमा के परदे पर पिरोया है. जो मुद्दे समाज को साधारण से लगते हैं या जिन पर चिंतन करने की ज़रूरत नहीं या जो लोग समाज द्वारा हाशिए पर फेंक दिए गए हैं, वही इनकी पटकथा के केंद्र में आ खड़े हुए हैं.
हिंदी सिनेमा जगत के व्याकरण को बदलने में गुरुदत्त की ‘प्यासा’ फिल्म का अहम योगदान है और इसी क्रम को सत्यजीत राय ने और फिर उनके बाद बेनेगल साहब ने जीवित रखा. उनके बिना न केवल समानांतर सिनेमा बल्कि हिंदी सिनेमा का पाठ भी अधूरा है.
(डॉ. शांभवी स्वतंत्र लेखक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी की है और फिलहाल अमेरिका के वॉशिंग्टन डी.सी में हिंदी से जुड़ी गतिविधियों में सक्रिय रहती हैं.)