‘यंगहे’ बेहद साधारण महिला है. साधारण से भी साधारण. बहुत कम बोलती है. वह इतना कम बोलती है कि उसके बोलने के क्षण को लेखिका इस तरह दर्ज करती है- ‘उसके होंठ धीमे से एक दूसरे से जुदा हुए और आवाज आई कि मैंने एक सपना देखा था.’ अपने पति मिस्टर च्योंग को यथासमय भोजन और सेक्स मुहैया कराना ही उसका काम है.
लेकिन यह बेहद साधारण महिला यंगहे एक दिन बेहद असाधारण हो जाती है. एक रात हिंसक सपने के कारण सुबह उठते ही काफ्काई ‘मेटामॉर्फोसिस’ की तरह वह एकाएक शाकाहारी हो जाती है और अपने पति के विरोध के बावजूद फ्रिज में रखा सभी तरह का मीट बाहर फेंक देती है.
दक्षिण कोरिया के मांसाहार वाले समाज में यह उसी तरह एक असाधारण बात थी जैसे किसी गुजराती कट्टर जैन परिवार में किसी महिला का अचानक मांसाहारी हो जाना. सोचिये कैसा भूकंप पैदा होगा. खाने की भी अपनी राजनीति होती है.
लेकिन साल 2024 की नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका ‘हान कांग’ यहां खाने की राजनीति पर कोई बात नहीं कर रही हैं, उनका विषय यंगहे का यह निर्णय है. उसका यह निर्णय ही इस साधारण महिला को असाधारण बना देता है और फिर पूरा 140 पेज का यह उपन्यास इसी निर्णय के परिणामों की एक श्रृंखला बनकर पेज दर पेज किसी सामाजिक थ्रिलर सा आगे बढ़ता है.
लेकिन ‘यंगहे’ के पति च्योंग को असली सदमा तब लगता है जब यंगहे उसके साथ सेक्स करने से इनकार कर देती है. कारण पूछने पर वह कहती है कि उसके शरीर से मांस की बू आती है. पत्नी जब सेक्स से इनकार करे तो आमतौर पर पति क्या करता है? च्योंग यंगहे का बलात्कार करता है. उसे आश्चर्य होता है कि इस साधारण-सी कमजोर महिला में प्रतिरोध की इतनी ताकत कहां से आ गई है.
यहां एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि तीन भागों में बंटे इस उपन्यास का पहला हिस्सा लेखिका ने प्रथम पुरुष में यानी मिस्टर च्योंग की तरफ से वर्णित किया है और च्योंग जब यंगहे के साथ बलात्कार का वर्णन करता है तो यंगहे को चीनी ‘कम्फर्ट वीमेन’ और अपने आपको जापानी सैनिक के रूप में देखता है. यानी लेखिका ‘हान कांग’ बहुत सशक्त तरीके से नितांत ‘व्यक्तिगत’ मैरिटल रेप को बड़े पैमाने के सामूहिक बलात्कार से जोड़ देती हैं और पति की हिंसा को युद्ध की बर्बर हिंसा से. और उपन्यास को एक बड़ा परिप्रेक्ष्य मिल जाता है.
यंगहे की दूसरी असाधारण बात यह है कि वह ब्रा नहीं पहनती और इस कारण पति च्योंग को अपने दोस्तों के सामने कभी-कभी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है. ब्रा न पहनने का कारण वह अपने पति को बस यही बताती है कि वह ब्रा के साथ सहज नहीं है.
यहीं पर हमें 70 के दशक में पश्चिम में ब्रा जलाने का आंदोलन याद आता है. उस समय ब्रा बंधन का प्रतीक माना जाता था. लेकिन आगे उपन्यास में ब्रा न पहनने की बहुत ही दिलचस्प फिलोसफी भी है. यंगहे कहती है- ‘शरीर में पैर, हाथ और यहां तक की जबान भी दूसरों को नुकसान पहुंचा सकते हैं, लेकिन स्तन शरीर का सबसे अहिंसक हिस्सा हैं. वे कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते.’
एक अन्य जगह हॉस्पिटल के सामने सूरज की रोशनी के सामने अपना स्तन खोलकर बैठी यंगहे का शब्द चित्र स्तन के पूंजीवादी वस्तुकरण के खिलाफ एक सशक्त प्रतीक बनकर उभरता है.
बहरहाल, च्योंग अपनी पत्नी यंगहे के शाकाहारी हो जाने की बात को उसके परिवार वालों के सामने लाता है. समझाने बुझाने और फिर डांटने के बाद भी जब बात नहीं बनती तो पिता अपनी ‘पिता’ की भूमिका में आ जाता है और परिवार के अन्य सदस्यों की मदद से मांस का एक टुकड़ा जबरदस्ती यंगहे के मुंह में डाल देता है. प्रतिरोध में पिता को धकेलती हुई वह मेज पर पड़े चाकू से अपनी नस काट लेती है और फिर अस्पताल पहुंच जाती है. इस दृश्य को जिस अंदाज में हान कांग ने पेश किया है वह सदियों से स्त्रियों पर होने वाली पारिवारिक हिंसा का बहुत ही सशक्त बिंब बनकर उभरता है.
अस्पताल से लौटने के बाद वह शरीर से तो स्वस्थ हो गई है लेकिन अब वह शाकाहार के प्रति अपने प्रेम को पागलपन की हद तक ले जाने लगती है.
लेकिन उसका यह ‘पागलपन’ महज एक तथ्य नहीं बल्कि इस उपन्यास में एक ‘मेटाफ़र’ की तरह आया है जो स्त्री के प्रतिरोध का प्रतीक बन जाता है. ठीक उसी तरह जैसे इसी उपन्यास की प्रेरणा से लिखे गए ‘चो नाम जू’ [Cho Nam-Joo] का बहुचर्चित उपन्यास ‘किम जी युंग बोर्न 82’ में पागलपन का मेटाफ़ोर औरतों की दारुण स्थिति का बहुत ही सशक्त प्रतीक है या फिर ‘टोबा टेक सिंह’ का पागलपन विभाजन की व्यर्थता का प्रतीक बन जाता है.
एक स्वतंत्र पागल स्त्री यंगहे अब पति च्योंग के किसी काम की नहीं. न वह उसे खाना दे सकती है और न ही सेक्स. लिहाजा च्योंग उसे तलाक दे देता है. तलाकशुदा पागल स्वतंत्र स्त्री अब परिवार के भी किसी काम की नहीं. लिहाजा पिता और परिवार के दूसरे सदस्य भी उससे किनारा कर लेते हैं.
लेकिन उससे चार साल बड़ी बहन ‘इनहे’ उसका साथ कभी नहीं छोड़ती. उपन्यास का दूसरे और तीसरे हिस्से [क्रमशः ‘मंगोलियन मार्क’ और ‘फ्लेमिंग ट्री’] में इनहे का यह बहनापा बहुत सशक्त तरीके से सामने आता है. यह बहनापा पुरुषों की दुनिया को थोड़ा परे धकेल कर अपने लिए थोड़ी-सी जगह बनाने की जद्दोजहद है.
‘इनहे’ अपने बच्चे का ‘लक्षण’ [जन्म से पैदा निशान] देखकर अपने पति से यूं ही जिक्र कर देती है कि उसकी बहन के नितंब पर भी एक ‘लक्षण’ यानी ‘मंगोलियन मार्क’ है. यह सुनते ही छोटे छोटे वीडियो फिल्म बनाने वाले इनहे के पति के मन में यंगहे को लेकर एक सेक्स फंतासी शुरू हो जाती है. यहां लेखिका ने बहुत सशक्त तरीके से यह पकड़ा है कि ‘मेल गेज़’ सबसे पहले स्त्री को ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में ही देखता है.
लेकिन यहां ‘मंगोलियन मार्क’ का मतलब मासूमियत से भी है क्योकि आम तौर से यह ‘मंगोलियन मार्क’ 5-6 साल बाद मिट जाता है. लेकिन यंगहे के नितंब पर यह अभी भी मौजूद है. दूसरी ओर कोरियन मिथक में जन्म की देवी ‘सम्शिन हल्मी’ [Samshin halmi] बच्चे को उसके पीछे के हिस्से पर मारती है ताकी वह जल्दी मां के गर्भ से बाहर आ जाए. यंगहे अब किस गर्भ से बाहर आना चाहती है? या उसने गर्भ से बाहर इस अन्यायी दुनिया में आने से इनकार कर दिया है? [भले ही उसका शरीर बाहर आ गया हो]
बहरहाल यंगहे की मासूमियत, नग्नता के प्रति यंगहे के सहज भाव और वनस्पति, फूलों के प्रति उसके पागलपन भरे प्रेम का फायदा उठाकर ‘इनहे’ का पति उसके शरीर को पत्तों और फूलों से रंग देता है. इसके बाद जब उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करता है तो उसके भयंकर प्रतिरोध को देखते हुए वह अपने नग्न शरीर को भी फूल पत्तों के रंग देता है और यंगहे के साथ संबंध बनाता है. यंगहे अब अपनी बहन के पति के साथ नहीं बल्कि फूल पत्तियों के साथ शारीरिक रूप से एकाकार हो रही है.
जब यह सब अचानक से इनहे के सामने घटित होता है तो वह अपने पति को जेल और बहन यंगहे को मानसिक अस्पताल भिजवा देती है. लेकिन यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि वह एक बार भी इसके लिए यंगहे को दोषी नहीं मानती. अब इनहे की जिम्मेदारी अपने बीमार बच्चे के साथ-साथ अपनी बहन की भी है. हर बार अपने बच्चे को पड़ोसी के घर छोड़कर यंगहे से मिलने जाना और फिर अपनी जीविका कमाना दक्षिण कोरिया के सामंती/अर्धसामंती समाज में आसान नहीं है.
इधर अस्पताल में यंगहे का ‘पागलपन’ और बढ़ जाता है. अब वह पेड़ होना चाहती है. इसी चाह में उसने खाना छोड़ दिया है. पेड़, वनस्पति की तरह अब वह सिर्फ पानी पीती है और खुले स्तन के साथ सूरज की रौशनी में बैठती है. मानो प्रकाश संश्लेषण की तरह वह जीवन-संश्लेषण करना चाह रही हो.
इससे भी आगे जाकर वह पेड़ बनाने की चाह में यथासंभव शीर्षासन करती है. अस्पताल में उसे देखने आई बहन इनहे के सामने शीर्षासन करती हुए वह कहती है कि मेरा सिर और हाथ जड़ बन जाएंगे मेरे ऊपर उठे दोनों पैर पेड़ की टहनियां बन जाएंगे और मेरी योनि से फूल निकलेंगे. यह शक्तिशाली दृश्य बहुत शिद्दत से यह संप्रेषित कर देता है कि जो जीवन का प्रतीक है या जीवनदायिनी है उसे ही इस समाज में जीवन नसीब नहीं होता.
लेकिन विडंबना यह है कि जीवन से यह पागलपन भरा प्यार यानी पेड़ बन जाने की असीम चाह उसे मौत की ओर ले जा रही है. लिहाजा डॉक्टर उसे जबरदस्ती नाक के माध्यम से खिलाना चाहते है. एक बार फिर उसके ऊपर बर्बरता थोपी जाती है ताकि वह इसी जीवन में बनी रहे जिस जीवन से वह भागकर पेड़ होना चाहती है यानी जीवन के आदिम उत्स तक जाना चाहती है.
बहन इनहे भी उसे समझाती है कि सभी लोग सपने देखते हैं, लेकिन एक न एक दिन सपने से जागना भी होता है. लेकिन यंगहे तो स्वप्न और यथार्थ का फर्क ही भूल चुकी है. अब तो वह सिर्फ जीना चाहती है, जीवन के उत्स तक जाना चाहती है, पेड़ बनना चाहती है.
यहीं पर लेखिका ने एक बहुत ही मानीखेज बात कही है कि लड़कियां अपने बचपन के बाद ही जीना छोड़ देती हैं. उसके बाद तो वह सिर्फ सहन करती चली जाती हैं. और इसे ही वे जीना समझ बैठती हैं.
इनहे जब पीछे मुड़कर देखती है तो पाती है कि बचपन से ही उसकी काफी तारीफ होती रही है क्योकि वह यंगहे के विपरीत काफी जिम्मेदार, कर्मठ और सबका ख्याल रखने वाली लड़की थी. लेकिन अब उसे लगता है कि यह जिम्मेदार होना, कर्मठ होना, सबका ध्यान रखना किसी परिपक्वता की निशानी नहीं बल्कि एक तरह की कायरता है.
दरअसल यह उस जैसी तमाम महिलाओं की ‘सर्वाइवल स्ट्रेटेजी’ होती है और कुछ नहीं. यंगहे के पास यह ‘सर्वाइवल स्ट्रेटेजी’ नहीं है. इसीलिए वह जीवन से प्रेम करने के बाद भी मौत की तरफ बढ़ रही है.
अपनी बहन का जीवन बचाने, उसे सपने से जगाने, उस जीवन की बजाय इस जीवन में लाने की कोशिश में इनहे यंगहे को एक दूसरे आधुनिक अस्पताल में एम्बुलेंस से ले जा रही है. हल्की बारिश और हल्की हवा में झूमते सड़क के किनारे के पेड़ इनहे को हरी आग से लहराते प्रतीत हो रहे हैं.
इधर यंगहे हरेपन और आग के बीच, सपने और यथार्थ के बीच, इस जीवन और उस जीवन के बीच बने पुल को लगातार ध्वस्त करती जा रही है.
(मनीष आज़ाद सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता व लेखक हैं.)