महाराष्ट्र के कपास उत्पादक किसान इन दिनों घरेलू बाजार में फसल का सही दाम नहीं मिलने और लगातार बढ़ती उत्पादन लागत से परेशान हैं. पिछले दो साल से कपास की फसल का दाम खुले बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य तक भी नहीं पहुंचा है. बढ़ रही उत्पादन लागत ने किसानों को कर्ज के दलदल में फंसने के लिए मजबूर किया है. सरकार की बेरुखी तथा हाल ही में आयातित कपास ने घरेलू बाजार में लाभप्रद दाम मिलने की उनकी बची-खुची आशाओं को भी ख़त्म कर दिया है.
उत्तर महाराष्ट्र के जलगांव, नासिक, धुले और नंदुरबार अच्छे किस्म के कपास उत्पादन के केंद्र हैं. क्षेत्र के बहुसंख्यक कुर्मी पाटील समुदाय के लिए यह फसल उनके सामाजिक, राजनैतिक वर्चस्व और आर्थिक स्थिरता का प्रमुख स्रोत है.
राज्य में विधानसभा चुनाव के दौरान जब कपास के खेतों से फसल चुनाई का काम शुरू हुआ था, किसानों को आशा थी कि उनकी समस्याओं पर राजनैतिक दल बात करेंगे और उनके लिए कोई ठोस वादा किया जायेगा. लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ और ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारों ने किसानों की आशाओं पर पानी डाल दिया.
आज उनकी उत्पादित फसल लागत मूल्य से भी कम दाम पर बाजार में खरीदी जा रही है. महाराष्ट्र की कृषि बाजार उत्पन्न समितियां इन किसानों को कोई ठोस राहत दे पाने में असफल हैं, और सरकार-नियंत्रित क्रय केंद्रों में किसानों को अपनी बारी के लिए कई दिनों का इंतजार करने के साथ फसल क्रय केंद्र प्रभारियों की खुशामद करनी पड़ती है.
जलगांव के अमलनेर और पारोला तालुका ऊन्नत किस्म के कपास उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं. अमलनेर के शहापुर गांव के सरपंच भाऊ साहिब पाटील बताते हैं कि पूरे क्षेत्र में जेनेटिकली मॉडिफाइड कपास की फसल बोई जाती है. साल दर साल कपास के बीजों की क्वालिटी घटती जा रही है, और रोगों से लड़ने की उसकी क्षमता कमजोर होती जा रही है. इसलिए किसानों को ज्यादा पेस्टीसाइड इतेमाल करने के बावजूद ज्यादा उत्पादन नहीं मिल पा रहा है.
भाऊ साहिब पाटील की बात को आगे बढ़ाते हुए नन्दगांव-लाडगांव के सरपंच दामोदर पाटील बताते हैं, ‘आज कल जो बीज बाजार में मिल रहा है वह केवल नवंबर तक फसल देता है. जैसे ही तापमान गिरता है कपास की इस फसल में ‘सुंडी’ कीट का प्रकोप बढ़ जाता है जो पूरी फली को छेदकर खा जाता है. लिहाजा जिस कपास के पौधे में फ़रवरी तक कपास निकलना चाहिए वह नवंबर के अंत तक नष्ट हो जाता है.’
‘जेनेटिकली मॉडिफाइड हुआ यह पौधा तापमान गिरने पर कीटों का प्रकोप एकदम नहीं झेल पाता है. साल दर साल यह पौधे कमजोर होते जा रहे हैं और कपास का उत्पादन गिरता जा रहा है. नकली बीजों का प्रकोप अलग से किसानों को बर्बाद कर रहा है और इस समस्या को कोई सुनने वाला नहीं है,’ उन्होंने आगे जोड़ा.
कपास की फसल के उत्पादन के गणित को भाऊ साहिब पाटील समझाते हैं, ‘एक एकड़ खेत में जब कपास की फसल को बोया जाता है तब उसकी बिजाई, सिंचाई, खाद, पेस्टीसाइड, मजदूरी और खर-पतवार नियंत्रण में कम से कम बत्तीस से तैंतीस हजार रुपये का खर्च आता है. फिर इस खेत से लगभग छह क्विंटल कपास पैदा होगा.’
वह आगे कहते हैं, ‘इस खेत से उत्पन्न होने वाली फसल का न्यूनतम खर्च प्रति क्विंटल पांच से छह हजार रुपये के आसपास आता है. इस खर्च में फसल को तोड़ने, उसके ट्रांसपोर्ट करने, सुखाने और मंडी पहुंचाने का खर्च शामिल नहीं है. यह खर्च उत्पादन के बतौर जब हम जोड़ते हैं तो इसमें एक हजार रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी हो जाती है. अगर मौसम अनुकूल नहीं रहा तो फिर इस फसल में कुछ भी हाथ नहीं आता है.’
गौरतलब है कि इस साल राज्य में कपास की फसल 302 लाख गांठ होने का अनुमान है (एक गांठ 170 किलो की होती है). यह पिछले साल के मुकाबले सात फीसदी कम है. उत्पादन में यह गिरावट प्रतिकूल मौसम के कारण हुई है जिससे किसानों की उत्पादन लागत में इजाफ़ा हुआ है.
इन दिनों, कपास का बाजार भाव रेशे की गुणवत्ता पर आधारित होकर 6300 से लेकर सात हजार रुपये प्रति क्विंटल के आसपास चल रहा है. केंद्र सरकार द्वारा घोषित 7,500 रुपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी इन किसानों की कोई मदद नहीं कर पा रहा है. इसके साथ विदेश से कपास की 25 लाख गांठे आयात की जा चुकी हैं. ऐसी संभावना है कि कपास की फसल का दाम घरेलू बाजार में अब नहीं बढ़ेगा.
कपास किसानों की त्रासदी पर डांगरी ग्राम पंचायत के सरपंच अनिल पाटील बताते हैं, ‘पिछले दो साल से इस क्षेत्र के किसानों को कपास का बाजार मूल्य कभी सात हजार रुपये प्रति क्विंटल से ऊपर नहीं मिला. बेहतर बाजार भाव की आशा में कई किसानों ने पिछले साल का कपास ही अपने घर में रोक कर रखा है. नई फसल खेतों में आ रही है और पुराना कपास बाजार नहीं पहुंच पाया है, फिर नई फसल किसान कहां रखेंगे?’
मारवाड़ के उपसरपंच और कपास उत्पादक किसान बीकन राव पाटील कहते हैं, ‘क्षेत्र के छोटे किसान अपनी फसल छोटे व्यापारियों-बिचौलियों के यहां बाजार भाव से लगभग 500 से 600 प्रति क्विंटल नीचे दाम पर अपने घर पर ही या गांव में ही स्थापित उनकी दुकानों पर बेच देते हैं. चूंकि सरकारी क्रय केंद्रों पर बेची गई कपास के मूल्य के भुगतान की एक लंबी प्रक्रिया है, जिसमें विलंब होता है और किसानों को कई परेशानी झेलनी पड़ती है. लिहाजा, ज्यादातर किसान खुले बाजार में ही अपनी उत्पादित फसल बेचता है.’
एक अनुमान के मुताबिक, सरकारी क्रय केंद्रों पर कुल उत्पादित कपास का लगभग 40 फीसदी ही क्रय किया जाता है. बाकी फसल को किसान खुले बाजार में व्यापारियों को बेचता है.
यही नहीं, क्षेत्र के छोटे किसानों का एक बड़ा हिस्सा साहूकारों से कर्ज लेकर खेती करता है. इसलिए उसे चुकाने के लिए वह तत्काल नकदी प्राप्ति के विकल्पों पर बढ़ता है. ये व्यापारी किसानों को फसल के बदले तत्काल नकदी देते हैं, और फसल घर से भी उठा लेते हैं. निम, शहापुर, मारवाड़, सदावन, कोलपिंपरी, शेवगे, खडके जैसे गांवों में इस तरह के कई व्यापारी हैं जो किसानों से सीधे फसल खरीद लेते हैं.
अमलनेर के बोहरा गांव के किसान सुधीर पाटील कपास किसानों की एक और बड़ी समस्या बताते हैं. वह कहते हैं कि क्षेत्र के किसानों को एक रुपये हेक्टेयर के मामूली प्रीमियम पर फसल बीमा की सुविधा मिलती है. बीमे का बाकी प्रीमियम राज्य सरकार द्वारा बीमा कंपनियों (जैसे ओरिएंटल बीमा कंपनी के खाते में किसान अपना प्रीमियम ऑनलाइन सुविधा केंद्रों से जमा करता है. बीमा कंपनी बाकी प्रीमियम राज्य सरकार से लेकर किसानों का फसल बीमा कर देती है) को भरा जाता है.
किसानों का आरोप है कि प्राकृतिक आपदाओं में बीमे के बावजूद किसानों को उचित और पर्याप्त मुआवजा नहीं दिया जाता. बीमा कंपनियां मुआवजा देने में मनमानी करती हैं.
एक साल पहले ओला-वृष्टि से किसानों की फसल नष्ट हो गई. लेकिन बीमा कंपनियों ने नुकसान का केवल पच्चीस से लेकर पचास फीसदी तक मुआवजा प्रभावित किसानों को दिया था. यह मुआवजा उनकी लागत खर्च के बराबर भी नहीं था. बैंक और साहूकारों के कर्जदार किसान इससे तबाह हो गए. खड़के, अंचलवाडी, सडावण, जवखेडा आदि गांवों के कई किसानों कहा कि अब वह कपास की खेती से इसलिए दूरी बना रहे हैं क्योंकि सरकार और घरेलू बाजार उनके लिए लागत मूल्य भी देने को तैयार नहीं हैं.
कई किसानों ने बताया कि बीमा कंपनियों को उन्होंने अपने हिस्से का प्रीमियम भले दे दिया लेकिन, राज्य सरकार अपने हिस्से का प्रीमियम बीमा कंपनियों को नहीं दे पाई. नुकसान के बाद बीमा कंपनियों ने जब किसानों के क्लेम रिजेक्ट किए तब किसानों को इस मजाक पता चला.
लेकिन विधानसभा चुनाव के दौरान किसानों का यह दर्द सियासी बहस के केंद्र में नहीं था. नई सरकार के गठन के बाद इनका भविष्य बाजार के हवाले किया जा चुका है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)