टुकड़ा नागरिक संहिता: सृष्टि का उत्सव मनाता लीलावान गद्य

पुस्तक समीक्षा: उदयन वाजपेयी की 'टुकड़ा नागरिक संहिता' के निबंधों में बंधी-बंधाई लीक नहीं है. अच्छे निबंध का सबसे ज़रूरी गुण है विचारों की बढ़त, जो पढ़नेवाले के दिमाग़ में भी होती रहती है. कोई बात निबंध में जहां से शुरू हुई है वहीं ख़त्म नहीं होती, पाठक के मन में बढ़ती बदलती रहती है.

(साभार: सूर्य प्रकाशन मंदिर)

उदयन वाजपेयी को पढ़ना जैसे किसी कुम्हार टोले की सैर करना है जहां एक ओर मिट्टी के नाज़ुक, नए नकोर दीये, सरइया, सकोरे, पुरवे, कुल्हड़, सुराहियां, मटके और अमृतबान रखे है जो हाथ जरा टेढ़ा-मेढ़ा लगते ही गिरकर टूट सकते है वहीं दूसरी ओर करीने से जमे है कुम्हारी के औजार- चाक, लहांसू, फावड़ा, झौआ और फिर आवां है जहां आग होती है.

उदयन वाजपेयी का गद्य यही औजार हैं, लोहे के बने हुए, मजबूत और सबसे बढ़कर नितांत उपयोगी बल्कि बहुत ज़रूरी. जो आग यहां धधकती है उसके ही कारण उनकी कविता में बहती शीतलता है और यही आग इस जलते संसार को शीतल और निर्मल करने का यत्न करती दिखाई देती है.

‘टुकड़ा नागरिक संहिता’ का ही नहीं, बल्कि उदयन वाजपेयी का समग्र गद्य ऐसा ही आवां है जो एक नई दुनिया बनाने में लगा है. इतनी अग्नि भीतर लिए जीना कितना कठिन होगा इसकी हम मात्र कल्पना कर सकते है या संभवतः कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि हम कभी जीवन के इन बृहत्तर विषयों पर सोचते ही नहीं. हमने संसार के इस गहन अंधकार में एक जीरो वाट का बल्ब जला रखा है और जितना हमें दिख रहा है उसे ही अपनी दीन-दुनिया मानकर मगन हैं, लेकिन उदयन वाजपेयी नहीं है.

उनके गद्य का उत्स ही है— नहीं. नहीं, यह सही नहीं है, नहीं, उससे कुछ अलग हो सकता है, नहीं हमारा लोकतंत्र इससे कहीं अधिक लोकतांत्रिक हो सकता है. सत्ता चाहे वह साहित्यिक सत्ता हो या राजनीतिक सत्ता, उदयन उसके मुंह पर कहते है— नहीं.

हमारे देशकाल के इस चिंतक की मूल चिंताओं में से एक कलाओं में घटित होनेवाले नित-नए देशकाल के प्रति अपने पाठकों को सजग करना, ‘प्राचीन मनुष्य और हम’ निबंध इस चिंता का बीज निबंध है, जिसे लेखक अपने कई अन्य निबंधों में विकसित करता है. इन निबंधों में विशेष बात है कि इतने बौद्धिक विषयों में भी सांगीतिक उपज (improvising) है. यह निबंध किन्हीं अकादमिक स्थापनों की तरह जड़ नहीं है बल्कि उसमें एक सहज प्रवाह है जैसे विद्वत्मंडली में कोई प्रज्ञामंत गप्प गोष्ठी करने बैठ जाए.

उदयन वाजपेयी के बौद्धिक से बौद्धिक लेखों में भी लीलातत्त्व है. किसी भी प्रकार की शक्ति हो, चाहे वह शारीरिक शक्ति हो, वाक् शक्ति हो या विद्वता उसमें एक लीलाभाव होता है और उदयन वाजपेयी के गद्य में यह शब्द-शब्द में उजागर होता है.

काश्मीर तंत्र की शब्दावली में कहूं तो यहां केवल प्रकाश नहीं है विमर्श भी है जैसे दर्पण को कोई सुंदर अभिनेता केवल देख ही नहीं रहा बल्कि वह भांति-भांति की मुद्राएं और भंगिमाएं भी बना रहा है और मात्र उसी से रस विशेष की चर्वणा संभव हो रही है .

यह किताब और इससे पहले उनके निबंधों के अन्य संग्रह भारत के वि-औपनिवेशीकरण की जैसे एक सुदीर्घ योजना है जहां लेखक बार-बार दक्षिण पूर्वीय उपमहाद्वीप की मूल परंपराओं को पुनः पाना चाहता है. वह औपनिवेशिक विच्छेद से पहले के भारत को आज के भारत से सीधे जोड़ना चाहता है. सन 1947 में स्वतंत्रता के लिए हमारा संघर्ष पूर्ण नहीं हो गया था, तब तो मात्र राजनीतिक संप्रभुता प्राप्त हुई थी. स्वतंत्रता का संघर्ष आज भी अविराम चल रहा है. हमारी चेतना के वि-औपनिवेशीकरण किए बिना यह पूरा नहीं हो सकता. उदयन वाजपेयी इस अर्थ में स्वतंत्रता संग्रामी हैं. भारतीय भाषाओं में यह काम कर रहे कम लेखक हैं, हिंदी में तो बहुत कम हैं.

यही कारण है कि उनका वाक्य विन्यास ठोस है किंतु ठस नहीं, द्विवेदी युगीन निबंधकारों से जुड़ता हुआ जब निबंध सचमुच में निर्बंध था उस पर न ललित होने का दवाब था न अकादमिक होने की बाध्यता. वह संसार के समस्त नागरिकों और अनागरिकों से लेखक की चलने वाली रसवंती गोष्ठी थी. ऐसा करने के लिए लेखक का बहुश्रुत मात्र होना ही आवश्यक नहीं बल्कि उसका जहांदीदा और ख़ानाबदोश होना भी ज़रूरी है.

उदयन वाजपेयी ख़ानाबदोश नहीं हैं किंतु यात्री अवश्य हैं. जब वे दूर यूरोप के बारे में लिखते हैं या सुदूर किसी पूर्वी देश के बारे में तो एक यात्री की भांति ही लिखते है. ऐसा लेखक जो पर्यटन पर नहीं निकला न यात्रावृतांत लिखने के लिए ब्यौरे इकट्ठे कर रहा है और जो दुनिया से ‘वैचारिक ऊहापोह के शहर’ के विलुप्त होते जाने से विषण्ण है.

इसी वजह से जब वे प्रसिद्ध थियोरिस्ट एलन सिक्सू से मिलते हैं, तो सिक्सू को उनकी दार्शनिक गहराई और व्यापकता के लिए अद्भुत नहीं बताते बल्कि अपनी एक सौ तीन वर्षीय मां की धैर्य से देखभाल करने पर वे मुग्ध होते है. विद्वता से अधिक मानवीय ऊष्मा से वे सतत मोहित रहते हैं, मनुष्य के मनुष्य से संबंध से और मेरी दृष्टि में यह बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है.

इस पुस्तक में अनेक निबंध है और उनमें कई स्थापनाएं है किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण बात मुझे यह लगती है कि लेखक मानुषी संबंधों का कीर्तन करता है. इसी वजह से उनके निबंध अपने विषय से चाहे जो विषय हो, महत्तर (transcend) हो जाता है, वह मानवीय दशा के बारे में हो जाता है.

फ्रांसीसी निबंधकार मोंतेन की तरह उदयन वाजपेयी भी बतौर लेखक वह लिखते हैं जो एक मनुष्य के रूप में वे अनुभव करते हैं. वह एक लेखक की जगह से दुनिया नहीं देखते एक आम आदमी की तरह दुनिया देखते हैं, शायद यही कारण है कि उनके निबंधों में बंधी-बंधाई लीक नहीं है न सुनी-सुनाई है. अच्छे निबंध का सबसे ज़रूरी गुण है विचारों की बढ़त और यह बढ़त पढ़नेवाले के दिमाग़ में भी होती रहती है. कोई बात निबंध में जहां से शुरू हुई है वही ख़त्म नहीं होती और जहां निबंध में ख़त्म हुई है वहां ख़त्म न होकर पाठक के मन में बढ़ती बदलती रहती है.

निबंधों के मूल तत्त्वों की ब्यौरेवार व्याख्या या उनका संक्षिप्त रूप मैं यहां देने का लोभ संवरण कर रहा हूं ताकि पढ़नेवाले के लिए उनका अर्थ संकुचित न हो मगर यह बताना चाहता हूं कि सभी निबंधों को पढ़ने के बाद निबंधकार की कैसी छवि मन में उतरती है? अंततः निबंध पूरी दुनिया के बारे में होकर भी सबसे ज़्यादा तो निबंधकार के विषय में होता है.

‘टुकड़ा नागरिक संहिता’ के निबंधकार ने कलम संसार का अनुकीर्तन करने को ही उठाई है, किंतु वह देखता है कि कीर्तन के अवसर निरंतर कम होते जा रहे है, लोक से लोक घटता जा रहा है, मानुष मानुष का हाथ कम गहता है, राह चलते अपरिचितों में यों ही मुस्कुराकर अब परिचय की गांठ नहीं लगती, भक्त कवियों के से भाव से वह दुनिया को देखता है पर दुनिया से मुंह नहीं फेरता, जोग नहीं धारता न बैरागी होता है. तब भी यह निबंधकार संसार से बहुत संपृक्त है, ख़ासा यारबाज़ है.

जितने रेखाचित्र या कहे मित्रों पर निबंध इस संग्रह में उतने हमें हिंदी में केवल उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं के पहले दो दशकों के निबंधकारों में ही मिल सकते है. उन निबंधों में मित्रों और अग्रजों के प्रति प्रकट आत्मीयता और ऊष्मा अनन्य है.

पणिक्कर कावलम पर उदयन बाजपेयी लिखते हैं कि भारतीय परंपरा में कलाकार का कीर्तिगान किया जाता है और ऐसा हम असंशय भाव से इसलिए कर पाते है क्योंकि हम मानते है कि यह केवल व्यक्ति विशेष का कीर्तन नहीं है, जिस परंपरा में उसने यह महत् कार्य किया है, यह उस परंपरा का कीर्तिमान है. इस तर्क से ‘टुकड़ा नागरिक संहिता’ से जब मैं निशंक रूप मुग्ध होता हूं तो केवल उदयन वाजपेयी के निबंधों से ही मुग्ध नहीं होता बल्कि हिंदी के निबंधों की परंपरा से मुग्ध होता हूं जिसमें यह पुस्तक संभव हो पाई और मैं केवल मुग्ध क्यों हूं गौरवान्वित भी क्यों न हूं क्योंकि मैं भी तो इस परंपरा का एक हिस्सा हूं.

(लेखक कवि और कथाकार हैं. उनका उपन्यास ‘मतलब हिन्दू’ हाल ही प्रकाशित हुआ है.)