माटी राग: आज़ादी के अमृत काल में किसानों के नरक

पुस्तक समीक्षा: ‘माटी-राग’ उपन्यास में लेखक हरियश राय किसानों के साथ पूरी हमदर्दी के साथ खड़े हैं. वे सरकारी आंकड़ों और मीडिया के प्रचार-प्रसार से बचते हुए आंखों देखे भयावह यथार्थ को अपनी गहन पीड़ा के साथ रखते हैं.

/
(साभार: वाणी प्रकाशन)

अपने समय को रेखांकित करने से कोई भी रचना धरोहर का रूप ग्रहण करती है. हर लेखक की इच्छा होती है कि वह अपने समय और उसकी प्रमुख प्रवृतियों को रचना का आधार बनाए लेकिन यही उसकी समझदारी के मूल्यांकन का क्षण भी होता है. समय मूल्यवान होता है पर उसे देखने समझने की दृष्टि उससे भी अधिक मूल्यवान होती है.

हर युग में कई प्रवृतियां एक साथ विद्यमान होती हैं, उनमें से चयन करने का साहस और बुद्धिमत्ता जिस लेखक में होती है, वह अपने समय और भविष्य का लेखक होता है. मसलन, इक्‍कीसवीं शताब्दी में, जिस समय में हम रह रहे हैं, उसमें बहुत सारी चीजें गड्डमड्ड हैं, किसी को बहुत कुछ हरा-हरा दिखाई दे सकता है, कोई अंधभक्त बनकर खुश रह सकता है लेकिन बहुतों को बहुत कुछ विषमता के अंधेरे जैसा लगता है. यह लेखक के अपने अनुभव जगत और वैचारिक दृष्टि पर निर्भर करता है कि वह उनमें से किसे चुने?

विश्व गुरु बनने की कगार पर खड़े और दुनिया की बड़ी इकोनॉमी होने की भयावह आशाओं के बीच किसानों की दुर्दशा और मध्यवर्ग के दैनंदिन अभावों को देखने की आंख उस यथार्थ से रूबरू कराती है, जो हमारे अपने अनुभव संसार की देन है. सुपरिचित कथाकार हरियश राय ने अपने नये उपन्यास ‘माटी राग’ में उन धड़कनों को सुनने और उन्हें रेखांकित करने का महत्वपूर्ण काम किया है, जिन्हें मुंबई की महानगरीय चकाचौंध अपने पास तक नहीं आने देती.

यह उपन्यास बड़ी बातों और घोषणाओं से बचकर ज़मीनी यथार्थ की सतह पर बिखरी उन बारीकियों के निकट ले जाता है, जिन्हें कॉरपोरेट की चमकदार दुनिया के कथित भद्र लोग भुला देते हैं.

यह महज संयोग नहीं है कि हरियश राय अपनी इसी दुनिया पर उपन्यास की कथा भूमि तैयार करते हैं. उपन्यास तीन स्तरों पर एक साथ चलता है- विजयगढ़ की स्‍मृतियां और उनके प्रति अनुराग, मुंबई की कॉरपोरेटीय दुनिया तथा कस्‍बे से शहर में बदलते लोगों की मानसिकता और आसपास के गांवों में रहकर जन्मजात ऋण के जाल में फंसे हुए मेहनतकश किसान. हरियश राय इन तीनों की तनी हुई रस्सियों पर एक साथ चलते हैं, बारी-बारी से उन्हें देखते-परखते हैं और तीनों के प्रति अपनी आलोचकीय दृष्टि को बराबर बनाए रखते हैं. इसलिए उपन्यास मध्यवर्गीय भावुकता से बचता है, जबकि सुख-सुविधाओं में रह रहे लोगों को अपना बचपन भावुकता के साथ याद आता है, उसके अभाव और संघर्ष किस्से कहानियों की तरह रोमांचित करते हैं.

हरियश राय इस भावुकता से बचकर एक ऐसी दुनिया से परिचय कराते हैं जो अपने बचपन के क़स्बे से सटी होने के बावजूद उनके अनुभव जगत से अपरिचित थी. उपन्यास का प्रमुख पात्र सुमेर सिंह बैंक के मुंबई स्थित कॉरपोरेट कार्यालय में अधिकारी है. एक दिन सुबह-सुबह उसके जीएम का संदेश आता है कि बैंक के चेयरमैन बैंक की विजयगढ़ ब्रांच में किसानों के ऋण की वापसी न होने से चिंतित है इसलिए उन्होंने सुबह एक मीटिंग रखी है. चेयरमैन के साथ मीटिंग किसी भी अधिकारी के लिए सामान्य बात नहीं है इसलिए उसकी चिंताएं और तैयारियां भी सामान्य नहीं हैं.

बैठक में चेयरमैन की चिंताएं साफ झलक रही थीं, उनके लिए यह असामान्य घटना थी, जिसकी तह तक जाना वे ज़रूरी समझते थे. वे यह भी जानते थे कि इस प्रकार की स्थितियों को कॉरपोरेट कार्यालय की चमकती दुनिया में बैठकर नहीं समझा जा सकता. धूसर रंग अधिक रोशनी में और अधिक मद्दिम दिखते हैं इसलिए बैंक के वरिष्ठ अधिकारी सुमेर सिंह को विस्तार से समस्या को समझने तथा उसके निदान के उपाय सुझाने के लिए विजयगढ़ भेजने का आदेश दिया जाता है.

कहना न होगा कि विजयगढ़ सुमेर सिंह का अपना कस्बा है, वह कस्बा जहां उनका बचपन बीता था लेकिन जिस समस्या से कॉरपोरेट की दुनिया चिंतित है, वह उनके लिए नई और चुनौती भरी है. देखने की महत्वपूर्ण बात यह है कि हरियश राय कॉरपोरेट कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारी सुमेर सिंह को उनके अपने क़स्बे में सहज-सामान्य व्यक्ति के रूप में ले जाते हैं और उस भावुकता से बचाते हैं, जो बचपन की स्मृतियों में डुबाकर तर्क को बाधित करती है. वे अपने उन दोस्तों से मिलते हैं, जिनके साथ वे गलियों में खेले-कूदे थे, जिनके साथ पढ़े थे और जिनके साथ कस्बाई सपने देखे थे. उनके दोस्तों में प्राध्यापक, होटल मालिक, पाखंडी पंडित, साधु, दलाल, दर्जी तथा नेता के साथ एक ऑटो चालक भी है. वे सभी दोस्त अपने बचपन के साथी सुमेर सिंह से मिलकर खुश थे लेकिन वे स्वयं खुशी के साथ संताप से भर गए थे.

उन्हें लगा ‘जैसे यह शहर ठहरा हुआ है वैसे ही मेरे दोस्त ठहरे हुए-से हैं. वे चाहकर भी जीवन में कुछ खास नहीं कर पाए और अब चाहते हैं कि अपने बच्चों के लिए कुछ करें. लेकिन वे इस शहर में रहकर कुछ कर पाएंगे, ऐसा मुझे नहीं लगता. आगे बढ़ने के जो अवसर होने चाहिए, वे इस छोटे-से शहर में नहीं हैं. विकास का सारा ढांचा बड़े शहरों में ही सिमट गया है. उनके बच्चों को आगे बढ़ने के लिए अपने पंखों को फैलाना होगा, निकलना होगा इस शहर से बाहर.

यह निष्कर्ष नहीं है, यह संवेदना के विस्तार की अनुगूंज है, इसमें उनके बड़े अधिकारी होने का दर्प भी नहीं है बल्कि चिंताएं हैं, जो उन्हें दोस्तों और उनके बच्चों के भविष्य से जोड़ती हैं. उपन्यास पढ़ते हुए यह अहसास पूरी शिद्दत के साथ होता है कि सुमेर सिंह ने अपने क़स्बे की जिस दुनिया को बचपन में देखा था, अनुभव किया था, वह एकदम बदल गई है. बदलने के इस क्रम में बचपन का वह कस्बा अन्य कस्‍बों और शहरों की तरह अनियंत्रित विकास का शिकार हुआ है, जिसके कारण उसकी अपनी पहचान भी गायब हो गई है.

उपन्यासकार अत्यंत सजग होकर उन स्थानों को चुनते हैं, जो हमारी संवेदनाओं से जुड़े हैं मसलन विद्यालय और अपना घर. घर जिस गली में था, उसके नुक्कड़ पर बड़ा हनुमान मंदिर बन गया है और घर तब से तीन बार बिककर अपरिचित-सा हो चुका है. विद्यालय जहां था, वह ढहकर मलबे में तब्दील हो गया है.

एक बुजुर्गवार का कहना है, ‘अब सरकारी स्कूल में लोग अपने बच्चों को नहीं भेजते. वह स्कूल एक दूसरे स्कूल में मर्ज कर दिया गया. इस शहर में अंग्रेजी में पढ़ाने वाले स्कूलों की बाढ़ आ गई है. छोटे-छोटे मोहल्ले में एक से एक आलीशान स्कूल खुल रहे हैं, जहां अंग्रेजी में पढ़ाई होती है. ऐसे में सरकारी स्कूल कहां रह पाएंगे? आपका ज़माना चला गया साहब. फिर भी आप अपना स्कूल देखना ही चाहते हैं तो आगे चलकर बायें तरफ मुड़ जाइये, वहां पर बड़ा-सा मॉल है. उसी के बाजू में एक खंडहर है, वही रानी गंज हायर सेकेंडरी स्कूल है, जिसे आप देखना चाहते हैं.’ इस शहर के बारे में आदित्य का मानना है कि ‘अपराधियों का शहर बन गया है विजयगढ़ सर, मेरे साथ पढ़ने वालें कई लड़के दादा बनकर घूम रहे है. इस शहर में छुटभैये नेताओं के पीछे. अपराध फिल्में देखकर बड़े हुए हैं इस शहर के लड़के. बदला बहुत कुछ है लेकिन गलत दिशा में बदला है.’

यह सच है कि सुमेर सिंह किसानों की समस्याओं को पहली बार इतना निकट से देखा था. क़स्बे की दुनिया में किसान नहीं है और कॉरपोरेट की दुनिया से गांव नदारद हैं. अब तक सुमेर सिंह का जीवन क़स्बे और महानगर के अनुभव जगत का साक्षी और भोक्ता रहा है लेकिन जब उसने गांव और किसान देखे तब उसका नजरिया एकदम बदल गया. उनके बैंक के अधिकारी यह मानते हैं कि किसान चालाक और बेईमान है इसलिए बैंक से कर्ज़ तो ले लेता है लेकिन उसे चुकाने की ईमानदारी उसके अंदर नहीं है. सुमेर सिंह उनकी इन बातों से सहमत नहीं हैं.

वे गांव की दुर्दशा देखकर अपनी पत्नी को मैसेज करते हैं- ‘बहुत बुरा हाल है गांव का. हम लोग यहां रहकर देखें तो पता चले कि सूखा और बारिश किस तरह जानलेवा भी हो सकते हैं. बारिश किस तरह फसलों को बरबाद भी कर सकती है और किस तरह किसान इसी बारिश के कारण आत्महत्या भी कर सकता है. मुंबई में लगातार होने वाली बारिश के मज़े लेने वाले लोग यहां आकर देखें तो पता चले कि बारिश किसानों के लिए कितनी तबाही लेकर आती है. सरकार की लापरवाही से किसान के सामने एक ऐसा ताना-बाना बुना जा चुका है जिसमें फंसकर वह आत्महत्या कर रहा है. इन आत्महत्याओं को रोका जा सकता था और अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है. अभी भी बहुत कुछ किया जा सकता है, इन किसानों के लिए, देश के अन्नदाताओं के लिए.’

विजयगढ़ से लौटते हुए उनका मन खिन्न और उदास था, वे जिस उत्साह के साथ विजयगढ़ गए थे, वह समाप्त हो चुका था.

‘सुमेर सिंह के बैंक ने किसानों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए लोन देने की योजनाएं तो बहुत बनाई थीं, पर सुमेर सिंह ने किसानों के जीवन को पहली बार इतना नजदीक से देखा था. एक धिक्कार-सा आ रहा था उनके मन में. किसके लिए हम बनाते हैं योजनाएं? किसके लिए हम देते हैं लाखों-करोड़ों के लोन? किसकी बेहतरी के लिए हम मुंबई की आलीशान बिल्डिंगों में बैठकर काम करते हैं? उनके मन में रह-रहकर यह ख्याल आ रहा था कि किसानों की हालत को सुधारने का जिम्मा एक ऐसी व्यवस्था ने ले लिया है जो निहायत बिगड़ चुकी है और उस व्यवस्था को ऐसे गलत लोग चला रहे हैं जो किसानों के नाम पर कॉरपोरेट जगत की सेवा कर रहे हैं.’

‘माटी-राग’ उपन्यास में हरियश राय किसानों के साथ अपनी पूरी हमदर्दी के साथ खड़े हैं. वे सरकारी आंकड़ों और मीडिया के प्रचार-प्रसार से बचते हुए सुमेर सिंह की आंखों से देखे भयावह यथार्थ को अपनी गहन पीड़ा के साथ रखते हैं. यह उपन्यास ‘गोदान’ की तरह गांव और शहर की सामूहिक पीड़ा का माटी राग है, जो आज़ादी के अमृत काल में लिखा गया है.

(सूरज पालीवाल साहित्यिक आलोचक हैं.)