30 जनवरी 1948 को 78 साल के महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे ने हत्या कर दी थी. पिछले 11 सालों में जब से केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी है, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के समर्थन में सांप्रदायिक ताकतों द्वारा एक माहौल बनाया जा रहा है. एक तरफ जहां भारत सरकार अपने स्वच्छ भारत अभियान में गांधी जी के चश्मे को प्रतीक बनाती है, वहीं सत्तारूढ़ भाजपा के ही कुछ नेता गोडसे को देशभक्त कहते दिखाई देते हैं. कभी हिंदू महासभा के नेता गांधी जी के पुतले को गोली मारते दिखते हैं. तो कभी ये ही लोग गांधी के हत्यारे गोडसे का मंदिर बनाते दिखाई देते हैं.
आज गोडसे को नायक की तरह पेश करती फिल्में और यूट्यूब वीडियो भी लगातार बनाए जा रहे हैं. 2023 में गांधी की हत्या और उसके बाद आरएसएस पर प्रतिबंध से संबंधित हिस्से को एनसीईआरटी की किताबों तक से हटा दिया गया. 2020 और 2021 में गांधी जयंती के दिन दक्षिणपंथी लोगों द्वारा ‘नाथूराम गोडसे ज़िन्दाबाद’ ट्विटर पर ट्रेंड तक करा दिया गया था.
ऐसे दौर में जब इस नफ़रत और घृणा के प्रतीक को हीरो बनाने के प्रयास जारी हैं, तब उसके और उसकी विचारधारा के सत्य को उजागर करना सभी का कर्तव्य हो जाता है. इस लेख में प्रयास है गोडसे के सत्य को तथ्यों के ज़रिये सामने लाना.
क्या थी गोडसे की विचारधारा और उसका आरएसएस से संबंध ?
आरएसएस हमेशा से कहता रहा है कि गोडसे ने जब गांधी जी की हत्या की तब तक वो आरएसएस छोड़ चुका था. गोडसे ने भी अदालत में यही बयान दिया था. लेकिन गांधी हत्या में शामिल उसके भाई गोपाल गोडसे ने जनवरी 1994 में फ्रंटलाइन को दिए एक साक्षात्कार में कहा ‘नाथूराम आरएसएस में बौद्धिक कार्यवाह (बौद्धिक कार्यकर्ता) बन गया था. उसने अपने बयान में कहा कि उसने आरएसएस को छोड़ दिया था. उनसे ऐसा इसलिए कहा क्योंकि गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस काफी परेशानी में थे. लेकिन उनसे आरएसएस को नहीं छोड़ा था.’
याद दिला दें कि गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस और हिंदू महासभा को भारत सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था.
इस मुद्दे पर पत्रकार धीरेन्द्र के. झा अपनी किताब ‘गांधीज़ असैसिन: द मेकिंग ऑफ नाथूराम गोडसे एंड हिज़ आइडिया ऑफ इंडिया’ में लिखते हैं कि गांधी की हत्या के बाद ‘पूछताछ में दिए गए बयान से पता चलता है कि उसने आरएसएस के एक सक्रिय सदस्य के रूप में शुरुआत की और फिर अपनी पिछली निष्ठा को समाप्त किए बिना हिंदू महासभा के लिए काम करना शुरू कर दिया.’
इसके आगे झा लिखते हैं कि गांधी हत्या के बाद जब आरएसएस के नागपुर मुख्यालय पर छापा मारा गया तो वहां से मिले दस्तावेज़ भी यही गवाही देते हैं.
वे लिखते हैं ‘एक अन्य दस्तावेज 11 मई 1940 को पुणे में आयोजित बॉम्बे प्रांतीय आरएसएस इकाई की बैठक से संबंधित है, जो गोडसे के हिंदू महासभा में शामिल होने के लगभग दो साल बाद हुई थी.’ वे आगे लिखते हैं ‘गोडसे ने 1940 की बैठक में न केवल सांगली के मूल सदस्य के रूप में, बल्कि पुणे के संगठकों में से एक के रूप में भाग लिया था. 1940 में आयोजित बॉम्बे प्रांतीय आरएसएस बैठक का विवरण एक फाइल में उपलब्ध है, जिसमें आगे कहा गया है: इस फाइल में एनवी गोडसे, दर्जी का नाम आरएसएस संगठकों की सूची में पृष्ठ 8 पर दर्ज है.’
इस ठोस प्रमाण से गोडसे और आरएसएस का ये झूठ उजागर होता है, कि उसने हिंदू महासभा से जुडने के बाद आरएसएस को छोड़ दिया था. जहां तक विचारधारा का संबंध है हिंदू महासभा और आरएसएस दोनों हिंदू राष्ट्र को अपना आदर्श मानते थे और कई महत्वपूर्ण नेताओं का संबंध दोनों से था. गोडसे भी इन लोगों में से एक था.
गोडसे का सावरकर से क्या संबंध था?
आज आरएसएस/भाजपा आधिकारिक तौर पर जहां गोडसे से दूरी बनाती दिखती है, वहीं हिंदुत्व की विचारधारा के जनक विनायक दामोदर सावरकर को अपना नायक बताती है. लेकिन वे यह नहीं बताते कि न सिर्फ गोडसे बल्कि गांधी हत्या में दोषी पाए गए सभी लोग सावरकर के शिष्य थे. धीरेन्द्र. के झा अपनी किताब में लिखते हैं कि गोडसे को हिंदुत्व की राह पर लाने वाले ही सावरकर थे. गोडसे के अखबार ‘अग्रणी’ के लिए सावरकर ने 15,000 रुपये लोन के तौर पर दिए थे. इसका अखबार का नाम बाद में ‘हिंदू राष्ट्र’ हुआ और इस पर भी सावरकर की तस्वीर छपी होती थी.
गांधी हत्या के मुकदमें के दौरान गोडसे ने कोर्ट में कहा था कि सावरकर या किसी और ने गांधी हत्या के षड्यंत्र में कोई भूमिका नहीं निभाई. जबकि कोर्ट में नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा और गोपाल गोडसे को दोषी पाया और सज़ा सुनाई थी. यानी कोर्ट ने षड्यंत्र को माना यहां गोडसे का दूसरा झूठ उजागर होता है. इस केस में सावरकर पर्याप्त सबूतों की कमी के कारण बरी हो गए थे.
लेकिन मुकदमा खत्म होने के सालों बाद भारत सरकार द्वारा गांधी हत्या की जांच के लिए बने कपूर कमीशन ने 1969 में जो रिपोर्ट पेश की उसमें सावरकर को भी गांधी हत्या के षड्यंत्र में शामिल पाया था. तब तक सावरकर की मृत्यु हो चुकी थी.
कपूर कमीशन की रिपोर्ट कहती है, ‘इन दोनों गवाहों के बयान ये बताते हैं कि आप्टे और गोडसे, दोनों बंबई में सावरकर के यहां नियमित रूप से आते जाते थे और हर कॉन्फ्रेंस तथा हर बैठक में सावरकर के साथ रहे हैं. जनवरी 1948 में वे सावरकर के साथ ही दिल्ली गए और वापस आए. यह साक्ष्य यह भी प्रदर्शित करता है कि करकरे भी सावरकर से अच्छी तरह परिचित था और अक्सर उनके यहां आता जाता था. भड़गे भी सावरकर के यहां अक्सर आता था. डॉ. परचूरे भी उनसे मिलते थे. यह सब बताता है कि वे सभी जो बाद में गांधी की हत्या में शामिल हुए कभी न कभी सावरकर से उनकी लंबी बातचीत हुई थी. यह महत्वपूर्ण है कि करकरे और मदनलाल दिल्ली के लिए निकलने से पहले सावरकर से मिले और आप्टे तथा गोडसे बम फेंके जाने से पहले तथा गांधी हत्या के लिए निकलने से पहले, दोनों बार उनसे मिले और लंबी बातचीत की.’
कपूर कमीशन की रिपोर्ट में आगे दर्ज़ है, ‘आयोग की राय है कि इन सभी तथ्यों को मिलाकर देखें तो ये सावरकर और उनके समूह द्वारा हत्या के षड्यंत्र के अलावा किसी और थ्योरी को खारिज कर देते हैं.’ (पेज- 185,186 ‘उसने गांधी को क्यों मारा‘- अशोक कुमार पांडेय ) यहां गोडसे का तीसरा दावा भी ध्वस्त हो गया कि सावरकर का गांधी हत्या के षड्यंत्र से कुछ लेना देना नहीं था.
मुकदमे के दौरान कोर्ट में गोडसे ने एक बहुत लंबा बयान पढ़ा था, जिसमें महात्मा गांधी पर कई आरोप लगाए थे व उसने गांधी जी की हत्या क्यों कि यह बताने का दावा दिया था. इस बयान में कही गई तथ्यहीन और नफरती बातें सोशल मीडिया के ज़रिये लोगों तक पहुंच रही हैं और कई लोग इन बातों को सच मानने लगे हैं. हम अब इन दावों की असलियत आपके सामने रखेंगे.
गोडसे ने दावा किया था कि गांधी जी देश के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए अनशन किया, गांधी जी ने हिंदू हितों को दरकिनार किया और वे मुस्लिम परस्त थे. उसका कहना था गांधी जी की हत्या इन वजहों से की गई थी.
गांधी जी पर 1934 में हुआ था पहला हमला
इस मुद्दे पर अपनी किताब ‘गांधी की हत्या क्या सच क्या झूठ’ में लेखक चुन्नीभाई वैद्य पेज 61 पर लिखते हैं,
‘वर्ष 1934 से शुरू होकर चौदह वर्षों की अवधि में, छह बार गांधीजी की हत्या के प्रयास किए गए. 30 जनवरी 1948 को गोडसे द्वारा किया गया अंतिम प्रयास सफल रहा. शेष पांच प्रयास 1934, जुलाई और सितंबर 1944, सितंबर 1946 और 20 जनवरी 1948 में किए गए. जब 1934, 1944 और 1946 के असफल प्रयास किए गए, तब विभाजन संबंधी प्रस्ताव और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये जारी करने का मामला अस्तित्व में ही नहीं था.’
पहले हमले पर उनके परपोते तुषार गांधी लिखते हैं, ‘उनकी (गांधी जी की) हत्या करने का पहला प्रलेखित प्रयास 1934 में पूना में हुआ था, जब उन्हें एक आधिकारिक समारोह में ले जा रही कार पर एक हथगोला फेंका गया था. यह उनकी हरिजन यात्रा के दौरान हुआ था, जिसमें उन्होंने तथाकथित निचली जातियों’ और दलितों के लिए मंदिर और गांव के कुएं खोलने का आग्रह किया था. इसने पूना और नागपुर के साथ-साथ कई रियासतों में रहने वाले सवर्ण सनातनी हिंदुओं को नाराज़ कर दिया था.’
ऊपर दर्ज तथ्यों से यह साफ है कि गोडसे ने गांधी हत्या की जो वजह कोर्ट में बताई पूरी तरफ बकवास थी, क्योंकि 1934 में न पाकिस्तान था अन्य मुद्दे. इससे सांप्रदायिक ताकतों का दलित विरोधी चरित्र भी दिखाई देता है.
गांधी से इनकी नफ़रत की असली वजह पर लेखक सुभाष गाताडे लिखते हैं, ‘एक बात तो तय है कि समय बीतने के साथ-साथ समावेशी राष्ट्रवाद का विचार समाज में गहरी जड़ें जमाने लगा, जिसमें गांधी एक प्रमुख व्यक्ति थे. इस वजह से, हिंदुत्वादियों को यह विश्वास होता गया कि अगर कोई बड़ा कदम नहीं उठाए गए तो हिंदू राष्ट्र बनाने की उनकी परियोजना हमेशा के लिए धरी की धरी रह जाएगी.’
इसलिए नाथूराम गोडसे और उसके समर्थकों द्वारा किया गया प्रचार निराधार और तथ्यहीन है. गोडसे और उसके पदचिह्नों पर चलने वालों को देशभक्त कहना आज़ादी के लिए कुर्बानी देने वाले हर स्वतंत्रता सेनानी का बहुत बड़ा अपमान है.
(लेखक ‘भारत की जनवादी नौजवान सभा’ (DYFI) राजस्थान राज्य कमेटी के नेता हैं और प्रगतिशील युवा आंदोलन से जुड़े रहे हैं.)