जस्टिस (रिटायर्ड) डीवाई चंद्रचूड़ के बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू के बाद से भारतीय न्यायपालिका में पुरुषों के वर्चस्व और महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर फिर बहस शुरू हो गई है. न्यायपालिका हमारी शासन व्यवस्था के तीन आधार स्तंभों में से एक है, जिस पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की जिम्मेदारी है.
संविधान में दिए गए मूल अधिकारों में से एक समानता का अधिकार है. लेकिन, पुरुष प्रधान भारतीय समाज में पितृसत्ता का असर न्यायपालिका समेत सभी संस्थानों पर देखने को मिलता है.
आजादी के 80 साल बाद मिलेगी पहली महिला सीजेआई
इसकी एक बानगी है कि आजादी मिलने के 80 साल बाद 2027 में देश को पहली महिला चीफ जस्टिस मिलेगी, जो जस्टिस बीवी नागरत्ना होंगी. हमें गणतंत्र बने 75 वर्ष पूरे होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में अब तक केवल 11 महिला जज ही पहुंच सकी हैं. इस दिशा में एक और आंखें खोलने वाला तथ्य यह है कि देश के 25 उच्च न्यायालयों में इस समय केवल एक, गुजरात हाईकोर्ट में महिला चीफ जस्टिस हैं.
2019 से 2021 के बीच हुए ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ ने बताया कि देश में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा हो गई है, लेकिन हम अभी भी महिलाओं को लोकतांत्रिक संस्थानों में उनकी जगह दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. महिलाओं की भागीदारी के मामले में न्यायपालिका की स्थिति बाकी लोकतांत्रिक संस्थानों के मुकाबले कहीं खराब है.
निचली अदालतों में 35% महिला जज, सुप्रीम कोर्ट तक आते-आते 6 प्रतिशत
कानून और न्याय मंत्रालय और जुलाई 2022 में लोकसभा में पूछे गए अतारांकित प्रश्न संख्या-2116 के उत्तर के मुताबिक, निचली अदालतों में मात्र 35% महिला जज हैं, लेकिन ये महिला जज इससे भी काफी कम अनुपात में प्रोन्नत होकर उच्च न्यायालयों तक पहुंच पाती हैं और उच्च न्यायालयों में इनकी संख्या केवल 13% पर रुकी हुई है. सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस को मिलाकर 32 जजों में से मात्र 2 महिला जज हैं यानी केवल 6.25% महिला जज हैं.
सिर्फ न्यायपालिका में नहीं, न्याय व्यवस्था के अहम हिस्से पुलिस में भी महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है.
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 के अनुमान के मुताबिक जिस गति से पुलिस में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, उस हिसाब से मध्य प्रदेश पुलिस में 33% महिलाओं को आने में 43 साल लगेंगे, पश्चिम बंगाल को 50 साल, ओडिशा को 78 साल, केरल को 87 साल, राजस्थान को 103 साल और झारखंड को 206 साल लगेंगे.
निचली अदालतों में 7 प्रतिशत महिला जज बढ़ीं तो उच्च न्यायालयों में केवल 2 प्रतिशत
अंग्रेजी में इस स्थिति के लिए ‘ग्लास सीलिंग’ टर्म का इस्तेमाल किया जाता है, यानी ऐसे अदृश्य अवरोध जो महिलाओं को उच्च पदों तक नहीं पहुंचने देते. शीर्ष संस्थानों में ऐसी स्थिति आने की बड़ी वजह वह नजरिया है, जिसके अनुसार महिलाओं को पुरुषों के समान और उच्च और शीर्ष पदों या चुनौतीपूर्ण स्थितियों को संभालने लायक नहीं समझा जाता.
हाालंकि, जस्टिस (रिटायर्ड) चंद्रचूड़ ने लीगल प्रोफेशन में आने वाली महिलाओं के आंकड़ों का हवाला देकर उम्मीद जताई कि आने वाले समय में महिला जजों की संख्या बढ़ेगी. लेकिन, विडंबना यह है कि सिर्फ इस उम्मीद के भरोसे यथास्थिति बदलती नजर नहीं आ रही है.
आंकड़े भी इस उम्मीद के उलट तस्वीर पेश करते हैं. पिछले पांच साल में निचली अदालतों में तो महिला जजों की संख्या बढ़ी है, लेकिन इसी ‘ग्लास सीलिंग’ के चलते यह तेजी उच्च न्यायपालिका में देखने को नहीं मिलती.
जुलाई 2017 में देश भर की निचली अदालतों में 28 प्रतिशत महिला जज थीं जो जुलाई 2022 में 7% बढ़कर 35 प्रतिशत हो गई. वहीं, जून 2018 तक देश के सभी उच्च न्यायालयों में मात्र 11 प्रतिशत महिला जज थीं, जो दिसंबर 2022 तक मात्र 2% बढ़कर 13% ही रही.
दस हाईकोर्ट में महिला जजों की संख्या घटी, तीन में यथास्थिति
इसके अलावा, एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि निचली और उच्च न्यायपालिका में महिला जजों की भागीदारी का यह औसत असल तस्वीर पेश नहीं करता. छोटे आकार और आबादी वाले राज्यों में जहां निचली और उच्च न्यायपालिका में जजों की संख्या कम है, वहां महिला जजों का अनुपात बेहतर है, लेकिन बड़े राज्यों में जहां जजों के ज्यादा पद हैं, वहां महिला जजों का प्रतिशत कम हो जाता है.
कानून और न्याय मंत्रालय के अनुसार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड के हाई कोर्ट में महिला जजों की संख्या 10% से भी कम है. यही नहीं, जून 2018 से लेकर जनवरी 2025 के बीच 25 हाईकोर्ट्स में से 10 हाईकोर्ट में महिला जजों की संख्या कम हुई, तीन हाईकोर्ट्स की संख्या में कोई अंतर नहीं आया और तीन हाईकोर्ट्स में एक-एक महिला जज बढ़ीं.
सबसे ज्यादा 12 महिला जज गुवाहाटी हाईकोर्ट में और 11 महिला जज जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में बढ़ीं.
20 प्रतिशत जिला अदालतों में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट तक नहीं
जेंडर के प्रति सवेदनशीलता का अभाव ही बड़ा कारण है कि अथक प्रयासों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट की ‘स्टेटस ऑफ जुडिशरी 2023’ रिपोर्ट में सामने आया है कि 20% जिला अदालतों में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट नहीं है और जहां ये हैं भी, काफी बुरी स्थिति में हैं.
ऐसे समय में जब समाज में महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ते जा रहे हैं, केवल सख्त कानून बनाने से ये अपराध नहीं रुकेंगे. न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा केवल आंकड़े सुधारने से संबंधित नहीं है, बल्कि यह पीड़ितों के प्रति सहानुभूति और समाज में जेंडर सेंसिटिविटी बढ़ाने के लिए भी जरूरी है.
महिलाओं को इन चुनौतियों के साथ ही उच्च संस्थानों में शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों की मानसिकता से भी लड़ना होता है. अगर किसी पुरुष जज का निचली अदालत से उच्च न्यायपालिका में प्रमोशन उसकी मेरिट पर निर्भर करता है तो महिला जज को मेरिट के साथ पुरुषसत्तात्मक सोच से भी पार पाना होता है और कई बार हालात को नकारने की स्थिति महिलाओं के लिए चुनौती बढ़ाने का काम करती है.
(लेखक ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ के साथ काम करते हैं.)