हिंदी-उर्दू विवाद: ‘फूट डालो, राज करो’ का एक और प्रयास

हिंदी और उर्दू को लेकर शुरू हुए विवाद को लेकर उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता डॉ. सुधांशु बाजपेयी लिखते हैं कि आज भी जो लोग हिंदी-उर्दू विवाद को बढ़ाने में लगे हैं वो अंग्रेजों की सांप्रदायिक विरासत ‘फूट डालो और राज करो’ को ही आगे बढ़ा रहे हैं.

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(फोटो साभार: विकीपीडिया/इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

हिंदी और उर्दू दो भाषा नहीं एक ही भाषा थी जिसे हिंदोस्तानी कहा जाता था. जिस तरह आज खुशी-खुशी अंग्रेजी बांचने को गर्वितदृष्टि से देखते हैं, जबकि कट्टरपंथी तर्क से वह तो हमारी ग़ुलामी की निशानी है, लेकिन चूंकि वह इस देश के शासकवर्ग/ एलीट क्लास की भाषा है, इसलिए उस भाषा में बोलकर उन्हें/हमें भी शासकवर्ग/अभिजन होने का गर्वित आनंद मिलता है.

अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी थी, जैसे उनकी भाषा में बोलकर हम गर्व महसूस करते रहे हैं ,उसी तरह मुगलिया सल्तनत की भाषा फारसी थी, तब भी हम उनकी भाषा में बोलकर गर्व महसूस करते थे, लेकिन जैसे आज भी अधिकांश आम जनता समय और सुविधाओं के अभाव में फटाफट अंग्रेजी सीखकर अंग्रेज नहीं बन सकती, वैसे ही तब भी फारसी सीखना आज से अधिक ही दुरूह रहा होगा.

तब जिस तरह हम आज (अंग्रेजों के समय से ही) अपनी भाषा में अंग्रेजी के कुछ शब्द मिलाकर अंग्रेजी के जानकार होने या अभिजन होने वाले अनुभूति ले लेते हैं, फिर धीरे-धीरे बहुत से शब्द जनता में और नीचे पहुंचते- पहुंचते इतने घिस-पिट जाते हैं कि पता ही नहीं चलता यह कब और कैसे हमारी भाषा में फिट हो गया जैसे इस ‘फिट’ शब्द को ही ले लो, जो अस्वाभाविक नहीं लगा होगा, जबकि इसका हिंदी ‘उपयुक्त’ अधिक शुद्धतावादी हो जाता.

ख़ैर तो इसी तरह दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली खड़ी बोली में दरबारियों/हाकिमों/व्यापारियों की देखा-देखी फारसी के शब्द जब मिलते गए तो एक नई ही ज़बान (भाषा) बन गई जिसे विदेशियों ने ‘ज़बान ए हिंद या हिंदोस्तानी’ कहा, फारसी जानने वालों ने इसे ‘रेख्ता’ यानी गिरी हुई (भाषा) कहा.

उर्दू का मूलतः तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है शाही शिविर या खेमा जिससे अनुमान यह लगाया जाता है कि जो सैनिक भर्ती होते थे या जो शाही दरबारों में आने वाले व्यापारी होते थे वो इस जनभाषा में बात करते थे सो इसे उर्दू कह दिया गया. हिंदी/उर्दू को विदेशी ख़ासकर विदेशी मुस्लिमों (अरबी-फारसी विद्वानों) ने ज़बान-ए-हिंद या ज़बान ए हिंदी कहा, क्योंकि उर्दू कहीं विदेश में नहीं हिंदोस्तान में जन्मी, विकसित हुई. ज़बान ए हिंद से हिंदुई/हिंदोस्तानी और फिर हिंदी कहीं जाने लगी. ‘

सिंधु’ शब्द का प्रथम प्रयोग ऋग्वेद में सामान्य रूप से नदी और उसके आस-पास के प्रदेश के लिए हुआ है जबकि हिंदू या हिंदी शब्द का वहां कोई वर्णन नहीं.

माना यह जाता है कि 500 ई. पू.  के आस-पास दारा प्रथम के काल में सिंधु प्रदेश का अधिपत्य ईरानियों के हाथ में था, सो संस्कृत के सिंधु का ईरानी में हिंदु हो गया. सिंधु नहीं के इस पार के लोग हिंदु और उनकी भाषा हिंदुई या हिंदोस्तानी हो गई. सबसे पहले हिंदी शब्द का प्रयोग कलीला-दिमना में पाया गया. ईरान के बादशाह नौशेरवां (531-579ई०) के हाकिम बजरोया ने पंचतंत्र की कहानियों का फ़ारसी अनुवाद कलीला-दिमना नाम से किया जिसकी भूमिका में नौशेरवां के मंत्री बुजुर्च मिहिर ने कहा कि यह अनुवाद ज़बाने-हिंदी से किया गया है.

तैमूरलंग के पोते शरफुद्दीन यज्दी ने भी सन् 1424 ई में अपने ग्रंथ जफरनामा में भारतीय भाषा के अर्थ में हिंदी शब्द का प्रयोग किया.

डॉ. धीरेंद्र वर्मा द्वारा संपादित हिंदी साहित्य कोश (भाग-1) में 13-14 वीं शती में देशीभाषा को ‘हिंदी या हिंदकी या हिंदुई’ नाम देने वाले अबुल फ़ज़ल हसन या अमीर खुसरो का नाम सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. डॉ. भोलानाथ तिवारी लिखते हैं कि खुसरो ने ‘हिंदवी’ शब्द का प्रयोग मध्यदेशीय भाषा के रूप में किया, हिंदवी शब्द मूलतः हिंदुवी या हिंदुई है जो घिस-पिटकर जनभाषा में हिंदी हो गया. इसीलिए यह संयोग नहीं स्वाभाविक है कि खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि खुसरो ही हैं.

कालांतर में जब धार्मिक आग्रह बढ़े तो मौलानाओं ने देशीभाषा में फारसी के ज़्यादा शब्दों और पंडितों ने संस्कृत के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग करना शुरू कर दिया हिंदी और उर्दू के समर्थक क्रमशः देवनागरी और फ़ारसी लिपि में लिखित हिंदुस्तानी का पक्ष लेने लगे थे. जबकि कर्ता,क्रिया और कर्म यही रहा, जो आज भी है. इसीलिए हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन पर पहली किताब का नाम ‘इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’ (हिंदू और हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास) है.

जब अंग्रेज आए और उन्होंने सांप्रदायिक विभाजन की नींव डाली तो भाषा को भी उस विभाजन का टूल हथियार बनाया गया. ग्रियर्सन ने पहली बार लिखित रूप से ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिंदुस्तान’ में संस्कृत-प्राकृत शब्द बहुल भाषा को हिंदी और अरबी-फारसी मिश्रित भाषा को उर्दू कहा. हिंदी और उर्दू का झगड़ा दरअसल अपने मूलतः नागरी और फारसी लिपि का झगड़ा था.

सन् 1837 में, ब्रितानी ईस्ट इंडिया कंपनी ने विभिन्न प्रांतों में फ़ारसी भाषा के स्थान वहां की देशी से आधिकारिक (राजभाषा) और न्यायालयी भाषा के रूप में मान्यता प्रदानी की. लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी क्षेत्रों में फ़ारसी भाषा को प्रतिस्थापित करने के लिए देवनागरी में के स्थान पर फ़ारसी लिपि में राजभाषा और न्याय भाषा के रूप में लागू किया. इससे समस्या यह आई कि हिंदू विद्यार्थियों को फ़ारसी लिपि अलग से सीखने में कठिनाई होती जबकि मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए धार्मिक/पारिवारिक संस्कारवश शुरू से यह लिपि सीखी हुई होती.

इस प्रकार शिक्षा में नागरी लिपि में सहज हिंदुओं में असंतोष होना बिल्कुल स्वाभाविक-सी बात थी और इसके खिलाफ सरकारी क्षेत्रों में नागरी लिपि को लागू करने की मांग भी सहज-स्वाभाविक और लोकतांत्रिक थी.

इस मांग को सबसे पहले 1868 ई. में राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ ने उठाया. उत्तर भारत में यह विवाद बढ़ता ही गया, फलस्वरूप सरकार को झुकना पड़ा और सन् 1900 में, सरकार ने हिंदी और उर्दू दोनों को सरकारी नौकरियों और न्यायालय में समान दर्जा प्रदान किया जिसका मुस्लिमों ने विरोध किया और हिंदुओं ने खुशी व्यक्त की.

1920 के दशक में इसी हिंदी-उर्दू विवाद से त्रस्त होकर गांधीजी ने दोनों भाषाओं को पुनः ‘हिंदुस्तानी’ कहने और सुविधानुसार नागरी-फारसी दोनों लिपियों में लिखने की सलाह दी. यद्यपि वो हिंदुस्तानी बैनर तले हिंदी और उर्दू को लाने के स्वयं के प्रयास में असफल रहे परंतु इसे अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदुस्तानी के रूप में ही देशीभाषा को लोकप्रिय कर दिया.

अंग्रेज़ों का उद्देश्य सफल हो रहा था, हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद के सांप्रदायिक माहौल में हिंदी और उर्दू के नाम पर तलवारें खींची जा रही थीं. हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की भाषा इतनी बार और इतने तरीकों से बताया गया कि इतना बड़ा झूठ उस दौर का सबसे बड़ा सच बना दिया गया. हिंदी और उर्दू के बीच के विरोध को इतना बढ़ा दिया गया कि मूल रूप से एक भाषा होने के बावजूद दोनों अलग-अलग भाषाएं बन गईं. उर्दू को फारसी शब्दों से और हिंदी को संस्कृत शब्दों से इस तरह बोझिल बनाया जाने लगा कि सामान्य आदमी को न उर्दू समझ में आ सकती थी और न हिंदी.

अंततः अंग्रेजों का उद्देश्य सफल रहा. हिंदोस्तान आज़ाद भी हुआ तो दो टुकड़े होकर हिंदू बहुल हिंदुस्तान की राजभाषा हिंदी बनी और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू बनी. आज भी जो लोग हिंदी-उर्दू विवाद को बढ़ाने में लगे हैं वो अंग्रेजों की सांप्रदायिक विरासत ‘फूट डालो और राज करो’ को ही आगे बढ़ा रहे हैं.

स्वाभाविक ही मुल्क तकसीम कर दिया गया, लिपि विभाजित कर दी गई लेकिन हिंदोस्तानी आत्मा दोनों जगह धड़कती है इसीलिए हिंदी फ़िल्में/कवि पाकिस्तान में और पाकिस्तानी सीरियल/शाइर हिंदोस्तान में मक़बूल होते हैं. मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि यदि कभी हिंदोस्तान-पाकिस्तान एक होंगे तो उसकी जड़ में हिंदोस्तानी होगी, जो विभाजित होकर भी विभाजित न हो सकी.

(लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता हैं.)