उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कार सिंह धामी ने आखिरकार वायदे के अनुसार राज्य विधानसभा में बहुप्रतीक्षित नया भूमि व्यवस्था कानून पारित करा दिया है. मुख्यमंत्री ने ऐसा सख्त कानून बनाने का वायदा किया था, ताकि पहाड़ के आम लोग भूमिहीन न हो सकें और इस सीमांत प्रदेश की जनसांख्यिकी में अवांछित परिवर्तन भी न हो सके. लेकिन इतनी जद्दोजहद के बाद जो भूमि कानून आया है, उससे लोग संतुष्ट होने के बजाय नाराज हो गए हैं.
देखा जाए, तो सरकार ने कानून को जितना कसना था वह कस दिया मगर कुछ मामलों में उसे उतना ही ढीला भी कर दिया.
ऊपरी तौर पर हरिद्वार और उधमसिंह नगर को छोड़कर सरकार ने शेष 11 पहाड़ी जिलों में जमीनों की खरीद फरोख्त पर अंकुश तो लगा दिया, मगर नगर निकाय चाहे कहीं की भी हों, उन्हें इस कानून से मुक्त कर दिया. जबकि नगर पालिका, नगर निगम और नगर पंचायत क्षेत्रों में ही जमीनों के सर्वाधिक सौदे होते हैं. विधि विशेषज्ञ और भूकानून के लिए आंदोलन करने वाले इसे प्रदेश की जनता के साथ धोखा बता रहे हैं.
उत्तराखंड में जितने ब्लॉक, तहसील और जिला मुख्यालय हैं वे सभी नगर निकायों के अंतर्गत हैं और शेष सभी पर्यटन, धार्मिक, औद्योगिक, व्यवसायिक महत्व के स्थान भी नगर निकायों के अंतर्गत आते हैं.
कुल मिलाकर उत्तराखंड में 11 नगर निगम, 45 नगर पालिका परिषद और 51 नगर पंचायतों को मिला कर कुल 107 नगर निकाय है. इनके अलावा राज्य में 9 छावनी क्षेत्र भी हैं और इनके बारे में नए कानून की धारा दो में कहा गया है कि ‘नगर निगम, नगर पंचायत,नगर पालिका परिषद, छावनी परिषद क्षेत्रों की सीमा के अंतर्गत आने वाले और समय–समय पर सम्मिलित किए जा सकने वाले क्षेत्रों को छोड़ कर यह कानून सम्पूर्ण उत्तराखंड राज्य में लागू होगा.’
विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते लोग गांव छोड़ कर कस्बों में तेजी से बस रहे हैं
उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण लोग गांव छोड़कर आसपास के कस्बों में बहुत तेजी से बस रहे हैं और इन्हीं नगरीय क्षेत्रों में भूमि की सर्वाधिक खरीद फरोख्त होती है. गांव में भले ही अकृषकों द्वारा कृषि योग्य जमीन खरीदने पर रोक हो मगर उन निर्जन होते जा रहे गांवों में जमीनें खरीदने वाला कोई नहीं है.
मूल निवास भूकानून संघर्ष समिति के नेता माहित डिमरी कहते हैं कि यह कहना धोखा है कि पहाड़ी जिलों में जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक लग गई है. सरकार को अक्सर शिकायत आती थी कि जिला मजिस्ट्रेटों द्वारा आबंटित भूमि का दुरुपयोग होता है. इसलिए राज्य सरकार ने अब यह जिम्मेदारी स्वयं अपने हाथ ले ली है. अब उद्योग, आयुष, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा, उद्यान, पर्यटन, के लिए निजी न्यास, संस्था, कंपनी, फर्म, पंजीकृत सहकारी संस्था आदि के लिए भूमि का अंतरण पर पहले भी प्रतिबंध नहीं था. लेकिन अब नई व्यवस्था ये की गई है कि अगर भूमि का अंतरण जनहित में है तो जमीन चाहने वालों की वास्तवित आकलन कर भूमि अनिवर्यता प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा. साथ ही अंतरण अनुमति से पूर्व संबंधित विभागों द्वारा निवेश की मात्रा, रोजगार सृजन तथा प्लांट और मशीनरी इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में प्रस्ताव का आकलन करते हुए भूमि अनिवार्यता प्रमाणपत्र विभागाध्यक्ष या उससे एक रैंक नीचे के अधिकारी द्वारा जारी किया जाएगा.
कानून में यह भी स्पष्ट किया गया है कि भूमि अंतरण की अनुमति केवल हरिद्वार और उधमसिंहनगर में दी जाएगी. अगर भूमि की खरीद फरोख्त की बंदिशें शेष 11 जिलों के लिए हैं तो उन पहाड़ी जिलों के नगर निकाय क्षेत्र इन दो जिलों की तरह कानून से मुक्त क्यों कर दिए गए? सेवानिवृत्त वरिष्ठ आइएएस अधिकारी एवं उत्तर प्रदेश रेवेन्यू बोर्ड के सदस्य रह चुके सुरेंद्र सिंह पांग्ती का कहना है कि सरकार ने उधम सिंह नगर और हरिद्वार में जमीनों की खरीद फरोख्त में छूट दे कर पहाड़ के लोगों की जमीनें हड़पने के लिए पिछला दरवाजा खोल दिया है. अब बाहरी भूखोर इन दो जिलों में जमीनें खरीदकर राज्य के भूमिधर हो जाएंगे और फिर पहाड़ी नगरों के आसपास जमीनें हड़पने लगेंगे.
एक परिवार एक ही बार जमीन खरीद सकेगा
नए कानून में व्यवस्था की गई है कि अगर कोई व्यक्ति जो धारा 129 के तहत उत्तराखंड का खातेदार न हो तो उसे रजिस्ट्रार के सामने शपथ पत्र देना होगा कि उसके परिवार के किसी भी सदस्य ने आवासीय उद्देश्य के लिए अपने जीवनकाल में 250 वर्गमीटर जमीन नहीं खरीदी है.
सरकार को शिकायतें मिलीं थीं कि कानून का दुरुपयोग करते हुए कुछ लोगों ने परिवार के अन्य सदस्यों के नाम भी 250 वर्गमीटर जमीनें खरीद ली हैं. जबकि मूल कानून में व्यवस्था थी कि एक परिवार (जिसकी व्याख्या भी की गई थी) एक परिवार एक ही बार जमीन खरीद सकेगा और जमीन खरीदने के बाद भी वह और उसकी पीढ़ियां उत्तराखंड में भूमिधर नहीं मानी जाएंगी.
सामाजिक कार्यकर्ता एवं एडवोकेट रणवीर सिंह चौधरी कहते हैं कि यह प्रावधान तो पहले सही मौजूद है. चौधरी पूछते हैं कि भूकानून में त्रिवेन्द्र सिंह सरकार द्वारा किए गए संशोधन तो हटा दिए मगर 202 में 143 क और ख में हुए संशोधनों का क्या हुआ?
मूल अधिनियम में कुछ खास श्रेणियों के अलावा निजी तौर पर गैर कृषकों द्वारा जमीनों की खरीद पर रोक थी. लेकिन नए कानून के अनुसार जिस व्यक्ति की 2003 या उससे पहले उत्तराखंड में अचल संपत्ति थी उसे भूमिधर मान लिया गया है इसलिए उसे भी जमीनें खरीदने का अधिकार दे दिया गया है. मसूरी जैसे नगरों में अचल संपत्ति वाले लोग बड़ी संख्या में मौजूद हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों से हैं. ऐसे लोग प्रायः बड़े उद्योगपति, धनाड्य और बड़े व्यवसायी होते हैं जो कि बड़े पैमाने पर जमीनों का व्यवसाय कर मूल निवासियों को भूमिहीन बना सकते हैं.
नए कानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि अगर धारा 129 के तहत कोई व्यक्ति विशेष श्रेणी का भूमिधर है, तो बैंक आदि का ऋण न चुका सकने पर उसकी संपत्ति की नीलामी हो जाती है तो उसकी संपत्ति को उसी श्रेणी का भूमिधर भी खरीद सकेगा और नीलामी में संपत्ति गंवाने वाला व्यक्ति बिना अनुमति के दोबारा उतनी ही जमीन खरीद सकेगा.
राज्य सरकार के पूर्व विधि सलाहकार डॉ. एनके पंत के अनुसार, इस कानून ने जमीनें हड़पने का एक नया रास्ता खोल दिया है, जिनका खेती से कोई लेना देना नहीं था, वे भी अब खेती की जमीनें खरीद सकेंगे.
कोई भी भूमिधर पूर्व स्वीकृति के बिना अपनी भूमि अनुसूचित जाति से इतर किसी और को नहीं दे सकता
उत्तराखंड राज्य द्वारा पूर्ववर्ती राज्य से अंगीकृत जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यस्था अधिनियम 1950 की धारा 157 (ए) में अनुसूचित जातियों की जमीनों के ट्रांसफर या अंतरण पर रोक है. धारा 157-ए के अनुसार अनुसूचित जाति से संबंधित कोई भी भूमिधर या असामी कलेक्टर की पूर्व स्वीकृति के बिना अपनी भूमि को अनुसूचित जाति से इतर किसी व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं कर सकता है, जबकि धारा 157-एए के तहत यह प्रतिबंध है कि अनुसूचित जाति से संबंधित कोई व्यक्ति अनुसूचित जाति का हो जाने पर भूमि हस्तांतरित नहीं कर सकता है.
उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की धारा 157-बी के तहत, अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को अपनी जमीन गैर–सदस्यों को नहीं बेचने, उपहार देने, बंधक में देने, पट्टे पर देने या किसी अन्य तरीके से देने की अनुमति नहीं है. लेकिन उत्तराखंड के नए भूमि कानून के अनुसार इन दोनों जातियों की जमीनों को 30 साल के लिए कृषि, बागवानी, जड़ी-बूटी उत्पादन, वृक्षारोपण पशुपालन, मुर्गीपालन तथा पशुधन प्रजनन, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन, कृषि फल प्रसंस्करण, चाय बागान एवं प्रसंस्करण तथा वैकल्पिक उर्जा परियोजनाओं के किसी व्यक्ति, संस्था, समिति, न्यास, फर्म, कंपनी एवं स्वयं सहायता समूह को पट्टे पर शर्तें निर्धारित करते हुए पट्टा किराया सहित अधिकतम् 30 वर्षों के लिए दी जा सकेगी. जबकि मूल कानून में इन संवेदनशील जातियों की जमीनों को पट्टे पर देने की भी मनाही है. क्योंकि इससे जनजातियों की जमीनें जो पहले से ही अतिक्रमित हैं अब उन पर कब्जा और आसान हो जाएगा. सुरेंद्र सिंह पांग्ती इस व्यवस्था को जनजातियों के खिलाफ मानते हैं.
डॉ. एनके पंत नए कानून को गुमराह करने वाला मानते हैं. उनका कहना है कि एक तरफ हरिद्वार और उधमसिंहनगर जिलों के अलावा शेष 11 जिलों में जमीनों की खरीद पर रोक बताई जा रही है. दूसरी तरफ इन पहाड़ी जिलों के नगर निकायों में खरीद फरोख्त की छूट दे दी गई. एक तरह सरकार कलक्टरों के अंतरण संबंधी अधिकार अपने हाथ में ले रही है दूसरी तरफ एक्ट में कहा गया है कि इसमें विधायी शक्तियों का प्रत्यायोजन या डेलिगेशन नहीं है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)