21वीं सदी की कविता: 25 साल, 75 रचनाओं का दस्तावेज

पुस्तक अंश: आज जनतंत्र के आवरण में जो कुछ हो रहा है, वह केवल सत्ता के लिए नहीं है, वह नागरिकों के जीवन के हर पहलू पर राज्य के नियंत्रण के लिए है. राज्य यह तय कर रहा है कि आपको क्या खाना है, क्या पहनना है, क्या पढ़ना-लिखना है, किस देवता की उपासना करनी है, आप किससे प्यार कर सकते हैं, किससे शादी कर सकते हैं. यह तानाशाही से भी आगे की अवस्था है.

पुस्तक आवरण (साभार: वाम प्रकाशन)

गहन है यह अंधकारा (संपादक: संजय कुंदन, प्रकाशक: वाम प्रकाशन) समकालीन हिंदी कविता का एक महत्वपूर्ण संकलन है, जो 21वीं सदी के पहले 25 वर्षों की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हलचलों को कविताओं के माध्यम से दर्ज करता है. इस संग्रह में शामिल 75 कविताएं हमारे समय की जटिलताओं, संघर्षों और बदलावों को सामने लाती हैं. पढ़ें, इस संग्रह की भूमिका, जिसे संजय कुंदन ने लिखा है.

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गहन है यह अंधकारा – गहरी निराशा और अकुलाहट से भरी निराला की इस पंक्ति का संदर्भ भले ही अलग हो, पर आज के एक संवेदनशील नागरिक की भी यही व्यथा है- गहन है यह अंधकारा. 21वीं सदी के 25 वर्षों में हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में पसरते जाते अंधेरे को उन सबने ख़ास तौर से महसूस किया है, जिनका लोकतंत्र, भारतीय संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के आदर्शों में थोड़ा बहुत भी विश्वास रहा है. इस अवधि का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमारे देश और समाज के बुनियादी चरित्र को गहरा झटका लगा है.

उदारीकरण की जो परियोजना भारत में नब्बे के दशक में शुरू हुई, वह अब अपने चरम पर पहुंचने को है. इसी के तहत सार्वजनिक उपक्रम बेचे गए, सेवाओं का अंधाधुंध निजीकरण किया गया और मेहनतकश वर्ग के अधिकारों में कटौती की गई. इस दौर में बाज़ार विकराल होता गया है. सूचना क्रांति ने सामाजिक जीवन, रहन-सहन और मूल्यों पर गहरा असर डाला है. यह सब सांप्रदायिक-फासीवाद के अनुकूल रहा है. दरअसल भूमंडलीकरण-उदारीकरण के प्रसार के साथ उसके अंतर्विरोध भी उजागर हुए, उसके संकट भी सामने आए. तमाम समस्याओं को दूर करने के उसके दावों की पोल भी खुली.

ऐसे में यह ज़रूरी था कि आमजन का ध्यान जीवन के बुनियादी मुद्दों से हटाया जाए, साथ ही उनके किसी भी प्रतिरोध को दबाया जाए. ऐसा करके ही उदारीकरण की परियोजना बेरोकटोक आगे बढ़ सकती थी. इसलिए एक उदारवादी-फासीवादी गठजोड़ बन गया. औद्योगिक घराने और कॉरपोरेट समूहों का परोक्ष या खुला समर्थन सांप्रदायिक-फासीवादी तत्त्वों को मिलने लगा. वित्तीय पूंजी के झंडाबरदारों और कॉरपोरेट पोषित मीडिया ने मिलकर इस तरह का विमर्श चलाना शुरू किया कि एक ‘ताक़तवर’ (असल में अधिनायकवादी) शासक के नेतृत्व में ही जनता का उद्धार संभव है.

राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और विकास के अपने पैकेज का परीक्षण

1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने वालों को यह अहसास हो गया कि अपने एजेंडे को लागू करने का वक़्त आ गया है और यह काम लोकतंत्र के दायरे में भी संभव है. उन्होंने गुजरात को प्रयोगशाला बनाया और वहां राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और विकास के अपने पैकेज का परीक्षण किया. वे इसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने में सफल रहे, जिससे उनका उत्साह आसमान छूने लगा. उदार-धर्मनिरपेक्ष दल इसकी भयावहता को भांप नहीं पाए या अपने तात्कालिक स्वार्थ की वजह से इससे आंखें मूंदे रहे. उनमें से कई पार्टियों ने इन ताक़तों का समर्थन किया. प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक एजाज़ अहमद ने स्पष्ट लिखा है कि भारत में फासीवाद मध्यमार्गी दलों के कंधे पर चढ़कर आया.

गुजरात मॉडल को पेश करके ही भाजपा ने 2014 में केंद्र की सत्ता हासिल की. सत्ता में आते ही नरेंद्र मोदी सरकार ने ऐसे कई क़दम उठाए, जिनसे लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों को गहरी क्षति पहुंची. अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, सरकार विरोधी पत्रकारों, छात्र नेताओं को विभिन्न मामलों में फंसाकर जेल भेजा गया. सोशल मीडिया पर सरकार से असहमति व्यक्त करने वाले कितने ही लोगों के ख़िलाफ़ जन भावना आहत करने के नाम पर मामले दर्ज किए गए और जांच एजेंसियों द्वारा उन्हें आतंकित कर उनका मनोबल तोड़ने का प्रयास किया गया. संवैधानिक संस्थाओं का मनमाना इस्तेमाल शुरू हुआ और उनकी प्रासंगिकता ही ख़त्म कर दी गई. संसद को भी निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें जारी हैं. इसी दौर में क़रीब डेढ़ सौ सांसदों के निलंबन की कार्रवाई हुई. यहां तक कि न्यायपालिका को भी प्रभावित किया गया. सेवानिवृत्त होते ही किसी जज का राज्यसभा में चले जाना या भाजपा में शामिल हो जाने से यह ज़ाहिर हुआ. हाल में अदालतों के कई ऐसे फ़ैसले आए, जिनसे संदेह बढ़ा.

इस दौर में मीडिया न केवल सत्ता के सुर में सुर मिलाकर बोलने लगा है, बल्कि विपक्ष की, आम जनता के दुख-तक़लीफ़ों और संघर्ष की ख़बरों को दबाने लगा है और जनांदोलनों के विरुद्ध दुष्प्रचार करने लगा है. दरअसल मुख्यधारा का मीडिया लगभग पूरी तरह सरकार समर्थक पूंजीपतियों के नियंत्रण में है. एक पूंजीपति घराने की तो कई मीडिया संस्थानों में सीधी हिस्सेदारी है, वहीं वह अन्य संस्थानों के लिए एक बड़ा विज्ञापनदाता भी है. इसलिए अनेक मीडिया संस्थान उसके हितों के मुताबिक चल रहे हैं.

असहमति की आवाज़ों को चुप करा देने या शोर-शराबे में ग़ायब करने का अभियान

असहमति की आवाज़ों को चुप करा देने या शोर-शराबे में ग़ायब कर देने का अभियान चला हुआ है. सरकार ने अपने विरोधियों को निशाना बनाने के लिए आतंकवाद विरोधी कानून, राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून, विदेशी फंडिंग को नियंत्रित करने वाले नियम और आयकर कानून जैसे कई अन्य कानूनी ढांचों का इस्तेमाल किया है. भाजपा में शामिल करने के लिए विपक्षी नेताओं की विभिन्न तरीक़ों से घेरेबंदी की गई. उन्हें जेलों में डाला गया. लेकिन भाजपा में शामिल होने या भाजपा सरकार को समर्थन देते ही उन्हें ‘क्लीन चिट’ भी मिल गई.

इन सबका मकसद सत्ता पर अपनी पकड़ को मज़बूत बनाना भर नहीं है, इसका उद्देश्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लक्ष्य के अनुरूप सामाजिक संरचना और भारतीय राष्ट्र के विचार को बदलना है. यानी एक अधिनायकवादी शासन कायम करना और उसके माध्यम से बहुसंख्यकवादी समाज और राष्ट्र बनाना. संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों द्वारा प्रचारित हिंदुत्व के केंद्र में दो चीज़ें हैं- पहला मुस्लिम विरोध और दूसरा वर्णवाद.

देश भर में सुनियोजित तरीक़े से इस्लामोफोबिया पैदा किया गया. मुसलमानों की मॉब लिंचिग की घटनाएं हुईं, लव जिहाद का हौवा खड़ा किया गया, उनकी आर्थिक नाकेबंदी का आह्वान किया गया. फिर मीडिया और सोशल मीडिया में फ़र्ज़ी ख़बरों और अफ़वाहों के जरिए उनके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार अभियान चलाया गया. जिस बुलडोजर न्याय का ख़ूब महिमामंडन किया गया, वह मुख्य रूप से अल्पसंख्यकों में ही भय पैदा करने के लिए था. उन्हें इतिहास से भी बाहर कर देने की क़वायद चल रही है. वाम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित अपनी किताब हमारा इतिहास, उनका इतिहास, किसका इतिहास? (मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तक का हिंदी अनुवाद) में प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने विस्तार से बताया है कि सरकार ने किस तरह कोविड की आड़ में एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से मध्यकालीन इतिहास के अध्यायों को हटा दिया और दलील दी कि ऐसा विद्यार्थियों का बोझ हल्का करने के लिए किया गया है.

दूसरी तरफ़ हिंदू धर्म के संकीर्ण और ब्राह्मणवादी स्वरूप को स्थापित करने पर ज़ोर दिया गया है. दलितों-आदिवासियों पर हमले बढ़ गए हैं. मनुस्मृति का गुणगान बढ़ा है. संघ के इस अभियान ने हिंदू अवचेतन पर गहरा असर डाला है और उसे आमूल रूप में बदला है. धर्म और राष्ट्र में घालमेल किया गया है, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतीकों में फ़र्क़ मिटा दिया गया है. कांवड़ यात्राओं में कावड़ियों का तिरंगा लेकर चलना इसका एक उदाहरण है.

हिंदू और मुसलमान में पहले अलगाव का भाव पैदा किया गया, अब शत्रुता स्थापित की जा रही है. हिंदुओं को यह समझाया जा रहा है कि उन्हें अपने पूर्वजों की ग़ुलामी का बदला लेना है और उसका वक़्त आ गया है. हिंदू पर्व-त्योहारों के अवसरों पर धार्मिक जुलूसों में मुसलमानों को गाली-गलौज करते हुए गाने बजाना और उनके ख़िलाफ़ अपमानजनक और हिंसक नारे लगाना आम होता जा रहा है. मुसलमानों को अपमानित-प्रताड़ित करना हिंदू धार्मिकता का एक अंग बन गया है.

भाजपा नेता मुस्लिमों के ख़िलाफ़ आक्रामक भाषण

आए दिन भाजपा नेता मुस्लिमों के ख़िलाफ़ आक्रामक भाषण देते रहते हैं. चुनावों में इस तरह के बयान दिए गए कि हिंदुओं के जेवर, उनका आरक्षण, उनकी नौकरी सब मुसलमानों को दे दी जाएगी. उनकी ज़मीन पर मुसलमान क़ब्ज़ा कर लेंगे, उनकी औरतों पर मुसलमानों की निगाह है. आए दिन कुछ राजनीतिक या धार्मिक नेता धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाकर या देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करके संविधान का मखौल उड़ाते हैं. इन सबने भारतीय समाज का चरित्र बदल दिया है. हिंसा को स्वीकृति मिलती जा रही है. एक सहिष्णु और शांतिप्रिय समाज की हमारी छवि ध्वस्त हो रही है. अब अल्पसंख्यकों या कमज़ोर वर्ग के साथ हिंसा और अत्याचार के मामले किसी को उद्वेलित नहीं करते. अपराधियों को धर्मरक्षक के रूप में महिमामंडित किया जा रहा है.

आज के सत्ताधारी अक्सर आपातकाल की याद दिलाते हैं और बताना चाहते हैं कि वे तो लोकतंत्र के सिद्धांत पर चल रहे हैं. भारत में 19 महीनों के आपातकाल और 2014 से बाद के हालात में काफ़ी फ़र्क़ है. आपातकाल में तानाशाही थी, लेकिन वह भारत के हर तबक़े के लिए एक जैसी थी. 2014 के बाद एक अघोषित तानाशाही है, जिसका असर भारत के मुसलमानों पर जिस तरह का है, वैसा हिंदुओं पर नहीं. फिर 1975 से 77 के भारत में भले ही तानाशाही थी, लेकिन उसका स्वरूप अधिनायकवादी नहीं था, जबकि 2014 के बाद का राज्य अधिनायकवादी है.

आज जनतंत्र के आवरण में जो कुछ हो रहा है, वह केवल सत्ता के लिए नहीं है, वह नागरिकों के जीवन के हर पहलू पर राज्य के नियंत्रण के लिए है. राज्य यह तय कर रहा है कि आपको क्या खाना है, क्या पहनना है, क्या पढ़ना-लिखना है, किस देवता की उपासना करनी है, आप किससे प्यार कर सकते हैं, किससे शादी कर सकते हैं. यह तानाशाही से भी आगे की अवस्था है. आज की केंद्रीय सत्ता देश की पहचान को ही बदल देने पर आमादा है. वह शहरों, सड़कों, गलियों के नाम बदल रही है. वह हमसे हमारी स्मृति छीनना चाहती है. वह भारत की ही परिभाषा बदलना चाहती है.

उसके निशाने पर वह बहुरंगी भारत है, जिसमें विविध भाषा, संस्कृति और धर्म के लोग सदियों से मिलकर रहते आए हैं. वह इसकी जगह ऐसा एकरंगी भारत बनाना चाहती है, जिसमें एक दल, एक शासन, एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा हो. तो आज उस बहुरंगी भारत के ख़त्म होने का ख़तरा पैदा हो गया है.

इन स्थितियों को आज हिंदी कविता में विस्तार से दर्ज किया जा रहा है. किसी भी श्रेष्ठ कविता का एक सरोकार अपने समय के दुख-दर्द और कश्मकश का दस्तावेज़ीकरण भी रहा है और यह काम आज विभिन्न पीढ़ियों के कई कवि साहस के साथ कर रहे हैं. इस सदी की एकदम शुरुआती कविताओं में है- मंगलेश डबराल की गुजरात के मृतक का बयान. यह 2002 के गुजरात दंगे के बाद लिखी गई है. यह एक चेतावनी थी और उस ख़तरे का संकेत भी, जो आज हमारे सामने है. हम एक तरह से उस दंगे से समाज को पहुंचे आघातों और सदमे के साथ ही नयी सदी में आगे बढ़े. उसमें व्यक्त यथार्थ आज कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक रूप ले चुका है.

‘हत्यारों को अब धर्म रक्षा का भार दे दिया गया है’

हिंदी कविता आज के भयावह समय की तस्वीर खींच रही है, जिसमें हिंसा को स्वीकृति मिल चुकी है. वह बताती है कि हिंसा इतनी आसान हो गई है, जितना हिंसा का ख़्याल. बेख़्याली में भी लोगों को मारा जा सकता है. हत्यारों को अब धर्म रक्षा का भार दे दिया गया है, इसलिए वे सम्मानित हैं. उन्होंने हत्या को एक पर्व में बदल दिया है. ऐसा पहली बार हो रहा है कि बलात्कारियों के पक्ष में आवाज़ें उठ रही हैं, उन्हें सच्चरित्रता का प्रमाणपत्र दिया जा रहा है. दूसरी तरफ़ जो सच और तर्क के साथ खड़े होना चाहते हैं, जो मानवीयता की बात करते हैं, वे अकेले पड़ते जा रहे हैं. इसलिए एक वरिष्ठ कवि को लगता है कि अब निरपराध होना ही सबसे बड़ा अपराध है, जो अपराधी नहीं होंगे, वे मार दिए जाएंगे. आज कविता दो-टूक बात कर रही है और अपनी अभिव्यक्ति में मुखर भी है. वह खुलकर फासिस्ट को फासिस्ट कहती है. वह अल्पसंख्यकों के अलग-थलग और अकेले पड़ते जाने की पीड़ा को रेखांकित कर रही है लेकिन इसी के साथ वह उनके संघर्ष और प्रतिरोधी चेतना को भी व्यक्त कर रही है. शाहीनबाग के आंदोलन पर लिखी कविताएं इसका उदाहरण हैं.

यह कविता बता रही है कि किस तरह फासीवादी राजनीति चालाकी से अल्पसंख्यकों को ही जनता की सारी समस्याओं के लिए जवाबदेह ठहरा देती है और लोग भी अपने हक़ों के लिए लड़ने की बजाय उन्हीं को निशाना बना रहे हैं. विडंबना यह है कि फासिस्ट शासक अपने किसी भी कृत्य को ग़लत नहीं मानता, उस पर शर्मिंदा होना तो दूर वह उन्हें जायज़ ठहराता है, यह कहकर कि उसे इन सबके लिए बहुसंख्य जनता का समर्थन हासिल है. वह अपने समर्थकों की दैत्याकार संख्या से उन्हें डराना चाहता है, जो उस पर सवाल उठाते हैं.

कई कवियों ने अपने ही बीच के उन बौद्धिकों और लेखकों की भी कड़ी आलोचना की है, जिन्होंने फासिस्ट शासन की कारगुजारियों पर एक रणनीतिक चुप्पी अख़्तियार कर ली है या किसी न किसी रूप में उस सत्ता के पक्ष में खड़े हो गए हैं. यह वह दौर है, जब आदिवासियों के जंगल और ज़मीन को पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपने का सिलसिला तेज़ हुआ. इसका विरोध करने वाले आदिवासियों पर दमन भी बढ़ा है. आज की कविता में आदिवासियों के संघर्ष को प्रमुखता से जगह मिली है. यह कविता भयावह समय को व्यक्त ज़रूर करती है पर उसमें हताशा नहीं है. वह जनता के विवेक और संघर्ष करने की उसकी क्षमता पर भरोसा रखती है. वह मानती है कि अंधेरा जरूर बढ़ गया है लेकिन कुछ लोग हैं, जो अंधेरे में भी अंधेरे के गीत गा रहे हैं और यही अंधेरे के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है. मनुष्य देह भले ही लाचार हो लेकिन वह ताक़त के सामने अकेली निष्कवच खड़ी हो सकती है.

यह कविता सीधे-सीधे बात करती है, अमूर्तन की धुंध नहीं फैलाती. यह प्रतीकों-बिंबों के फेर में ज़्यादा नहीं पड़ती. इसका अभिधा की शक्ति पर भरोसा है. यह जिरह करती है, यह प्रतिरोध खड़ा करती है. निस्संदेह यह राजनीतिक कविता है, जिसकी स्पष्ट पक्षधरता है और यह हिंदी की प्रगतिशील-जनवादी काव्य परंपरा का विस्तार है. इस कविता का केंद्रीय तत्त्व एक है, सरोकार एक है, लेकिन इसकी भाषा के कई शेड्स हैं. कई कवियों ने फासीवाद के विद्रूप को उजागर किया है और इसके लिए व्यंग्य और वक्रोक्ति का सहारा लिया है. कुछ ने फासीवादी तंत्र की कार्रवाइयों को रूपक के ज़रिए पेश किया है. कुछ ने सौहार्दपूर्ण जीवन की तस्वीरें प्रस्तुत करके यह बताने की कोशिश की है कि जनता किस तरह नफ़रतियों की साज़िश को नकार रही है. कई कविताएं पितृसत्ता के नए सिरे से आक्रामक होने के इस दौर में एक स्त्री की मनोदशा को चित्रित करती है.

इस कविता की एक छोटी-सी झलक इस संकलन में आपको मिलेगी. इसमें बीस कवियों की 75 कविताएँ हैं, जो पिछले क़रीब 25 वर्षों के दौरान लिखी गई हैं. संभव है, कैलेंडर के लिहाज से कुछ कविताएं थोड़ा पहले की हों, लेकिन उनमें मौजूदा सदी के संकटों की आहट और साथ ही प्रतिरोध की चेतना मिलती है. दिलचस्प यह है कि इस संकलन में चार पीढ़ियों के कवि शामिल हैं. ज़ाहिर है, इस तरह लिखने वालों में और भी कई कवि हैं. निश्चय ही कुछ अच्छे नाम छूट गए हैं. लेकिन एक संकलन की अपनी सीमा होती है. यह संकलन हमारी और पुस्तकों की तरह किताब ख़रीदकर पढ़ने वाले पाठकों के लिए है और हमारी प्राथमिकता में युवा और छात्र सबसे ऊपर हैं. हमारे लिए इसका आकार इतना ही रखना ज़रूरी था कि इसका मूल्य इन पाठकों के अनुकूल हो. इनमें बहुत-सी कविताएं ऐसी हैं, जो पत्र-पत्रिकाओं में या सोशल मीडिया में प्रकाशित होकर चर्चित हो चुकी हैं. हमने उन्हें एक जगह संगृहीत करने की आवश्यकता इसलिए महसूस की ताकि हिंदी कविता के प्रतिरोधी स्वर की एक मुकम्मल तस्वीर सामने आ सके. उम्मीद है, यह संकलन वर्तमान समय की चुनौतियों को समझने में सहायक होगा.

(साभार: वाम प्रकाशन)