उत्तर प्रदेश में संगठित अपराध पर रोकथाम के लिए यूपीकोका जैसे क़ानून नहीं बल्कि जेल, पुलिस व्यवस्था और न्यायपालिका में बदलाव की ज़रूरत है.
उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही मेें राज्य विधानसभा में माफिया और संगठित अपराध से निपटने के कड़े प्रावधान वाला एक विधेयक पेश किया है. यूपीकोका नाम के इस विधेयक के उद्देश्य और कारण में कहा गया है कि मौजूदा कानूनी ढांचा संगठित अपराध के खतरे के निवारण एवं नियंत्रण के अपर्याप्त पाया गया है.
मेरे हिसाब से हमारे देश में जो पहले से कानून है, वही अपने आप में पर्याप्त है और अगर इसे सही से लागू किया जाए तो किसी भी तरह के अपराध का मुकाबला किया जा सकता है.
ये ‘यूपीकोका’ जैसा कानून पहले भी आया, ‘मीसा’ और ‘एनएसए’ इसके अलावा ऐसे कानून जहां पुलिस को अधिकार थे कि वे बिना मुकदमा दर्ज किए गिरफ्तारी कर सके.
ऐसे कानून के तहत छह महीने तक जमानत नहीं मिलती, यानी कि ऐसे कानून के तहत अगर कोई गिरफ्तार होता है तो साल-दो साल के लिए अंदर गया.
यूपीकोका जैसे कानून का दुरुपयोग बहुत ज्यादा होता है. यह आम अनुभव है कि दुरुपयोग भी समाज के वंचित, गरीब और शोषित समाज के लोगों पर ज्यादा होता है. जाति के अनुसार, धर्म के अनुसार और गरीब तबके के लोगों पर ही ज्यादा दुरुपयोग होता है.
आप बहुत कम ही देखेंगे कि सवर्ण हिंदू जाति के लोगों पर इस तरह के कानून का इस्तेमाल होता है, होता है कभी-कभी लेकिन वो बहुत दुर्लभ है. राजनीतिक प्रतिशोध के चलते भी बहुत दुरुपयोग होता है इस तरह के कानून से.
संगठित अपराध क्षेत्र को अगर खत्म करना है तो जो पहले से कानून हैं वो काफी. अगर ईमानदारी से मौजूदा कानून का इस्तेमाल किया जाए, तो मुझे नहीं लगता किसी अलग से कानून की जरूरत है.
सिस्टम में बदलाव की बहुत जरूरत है. न्यायपालिका की अहम भूमिका है और दुर्भाग्य है कि वो भ्रष्ट भी है और बहुत ज्यादा समय बर्बाद करने वाली प्रक्रिया है.
जहां मीडिया ट्रायल हो जाता है, वहां चलो कभी-कभी बड़ा आदमी भी पकड़ा जाता है लेकिन सामान्य स्थिति में अगर कोई व्यक्ति जाति, पैसे या राजनीतिक रसूख से बड़ा है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई कम हो पाती है.
मुझे नहीं लगता कि यूपीकोका जैसे कानून से कोई सकारात्मक परिणाम होगा, बल्कि पहले से मौजूद कानून को ईमानदारी से लागू किया जाए.
सरकार को मौजूदा तंत्र को सुधारना होगा, उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि अदालत ठीक से काम करे, ईमानदारी से काम करे और समय पर काम करे. प्रक्रिया प्रणाली में बड़े सुधार की जरूरत है और सरकार को इसमें बदलाव करने की जरूरत है. आप देखना दो-चार महीने में यूपीकोका का दुरुपयोग राजनीतिक कारणों से होने लगेगा.
कुछ दिन में आप पाएंगे कि छेड़छाड़ के आरोप में गिरफ्तार किए गए पर भी यूपीकोका लगा देंगे, विरोधी दल के लोगों पर लगाएंगे.
लेकिन क्या ये गोरक्षक पर लगाएंगे? जो गाय की कथित रक्षा के नाम पर हत्या कर रहे हैं. फिलहाल इसका इस्तेमाल उनके खिलाफ भी नहीं होना चाहिए, बल्कि मौजूदा कानून को ईमानदारी से लागू करना और न्यायपालिका में बड़े सुधार की जरूरत है.
पुलिस व्यवस्था में बड़े बदलाव की जरूरत
पुलिस एक ऐसी संस्था है जिसका समाज के सभी लोगों के जीवन में सबसे ज्यादा असर है. किसी दूसरी संस्था का नागरिक जीवन पर उतना ज्यादा असर नहीं होता, जितना पुलिस की भूमिका होती है.
भारत की जनता ने पुलिस व्यवस्था में बदलाव के लिए आंदोलन नहीं किया. कभी इसे चुनाव में मुद्दा नहीं बनाया. कभी जनता ने मांग नहीं कि हमें एक सभ्य, ईमानदार और अच्छी पुलिस चाहिए.
एक पुरानी कहावत है कि प्रजा जैसी होता है उसे वैसे ही राजा मिलता है. हमें पुलिस भी वही मिली है, जैसे जनता है. हमारी जो पुलिस व्यवस्था है, ये दरअसल अंग्रेजों ने बनाई थी और सिर्फ हमारे देश में नहीं बल्कि 60-70 मुल्कों में बनाई थी.
पहले कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज कभी नहीं डूबता. तो उन्हीं अंग्रेजों ने नाइजीरिया, श्रीलंका और कनाडा में भी पुलिस बनाई. फिर सभी देशों के पुलिस के चरित्र में इतना अंतर कैसे है?
दरअसल उन्होंने हमें ऐसी पुलिस दी जिसके हम पात्र थे. उन्हें भी मालूम था कि ऐसी पुलिस ही यहां चल सकती है, जो मारती पीटती रहे और लोगों के हाथ-पैर तोड़ती रहे.
हमारे समाज में वर्ण व्यवस्था थी और समानता जैसे हमारे समाज में कुछ भी नहीं था. इसलिए जो हमारे लोगों को सूट करता था, वैसे पुलिस हमें मिली है. मेरा सवाल है कि आजादी के बाद से पुलिस व्यवस्था को बदलने के लिए कोई बुनियादी काम क्यों नहीं हुआ?
वही पुलिस चलती आ रही है जो 1860 में बनाई गई थी. चाहे सांप्रदायिक दंगे हो, दलितों के खिलाफ या महिलाओं के खिलाफ मामले हों, अगर इनको छोड़ भी दें तो संगठित अपराध से निपटने के लिए हम पेशेवर पुलिस क्यों नहीं बना पाए. जो कानून का पालन करती और ईमानदारी से काम करती.
आजादी के बाद भी नेताओं और सरकारों ने भी इस पुलिस व्यवस्था को वैसे ही चलाया, जैसे अंग्रेज चलाते थे. आप पूरे देश में पता कर लीजिए कि नेताओं को वही दरोगा पसंद है जो उसके कहने पर उसके विरोधियों का हाथ पैर तोड़ दे, झूठे मुकदमों में फंसा दे. इसलिए यह कहना संभव नहीं है कि कानून का दुरुपयोग नहीं होगा.
सजा का जो उद्देश्य है वो समाज में सुधार करने का है. आप हमारी जेलों में देख लो कि क्या हालत है. बाल सुधार गृह की हालत देख लो ये सब इतनी बुरी हालात में हैं और सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हमारी जेलों में है. एक बच्चे को आप एक हफ्ता बाल सुधर गृह में रख दो तो अपराधी बनकर निकलेगा.
जेल में कैदियों के साथ बहुत घटिया व्यवहार किया जाता है, उनके साथ मारपीट होती है, शारीरिक शोषण होता है, पैसे न देने पर खाना नहीं दिया जाता है. आप जेल सुप्रीटेंडेंट की महीने की कमाई का सर्वे कराओ तो आपको पता चल जाएगा कि कितना अवैध तरीके से पैसे कमाया जाता है.
हम अपने समाज को सभ्य बनाने के बजाय और खतरनाक बनाते जा रहे हैं. दिल्ली में जो बलात्कार हुआ था उसके बाद हम सब के लिए फांसी की सजा की मांग कर रहे हैं. कोई नाबालिग पकड़ा जा रहा है तो उसे भी फांसी देने की मांग चल रही है. हम समाज को क्रूर और असभ्य बना रहे हैं.
दुनिया के आधे से ज्यादा मुल्कों ने फांसी की सजा को बंद कर दिया है और हम यहां हर अपराध में फांसी की सजा की मांग कर रहे हैं. हत्या में फांसी दे दो, गाय वाले मामले में फांसी दे दो और बलात्कार मामले में फांसी दे दो.
निर्भया के बाद समाज में बर्बरता और भी बढ़ गई है, जो हम चैनल पर देखते हैं. फांसी के विरोध में बोलना चाहिए लेकिन हम देखते हैं कि उसके समर्थन में बोलने लगते हैं.
हमें अगर इस सभी संगठित अपराध को अगर रोकना है तो सबसे पहले हमे जेल, बाल सुधार गृह और महिला सुधार गृह में बड़े बदलाव करने की जरूरत है. जेल संगठित अपराध में भर्ती का सबसे बड़ा केंद्र है और अगर ये पुलिस के नाक के नीचे चल रहा है तो अफसोस की बात है कि संगठित अपराध कैसे खत्म होगा?
जेल और पुलिस व्यवस्था के अलावा सबसे अहम भूमिका अदालत की है. हमारी अदालत इतनी भ्रष्ट है और व्यक्ति विशेष के अनुसार काम करती है, तो कैसे बदलाव आएंगे. अदलतों में इतने मामले पड़े हैं और जज सही से काम नहीं करते और बहुत वक्त लेते हैं, जिसके चलते लोगों का अदालत पर विश्वास कम होता है.
जज यह तर्क देते हैं कि देश में कम अदालत है और कम जज के कारण मामले निपटाने में समय बहुत लगता है. लेकिन यह देखना चाहिए कि वह कितने दिन छुट्टी मनाने बाहर जाते हैं. कितने दिन कोर्ट में नहीं आते हैं? कितने फैसले करते हैं? इसके लिए न्यायपालिका में जब तक बदलाव नहीं आएगा, तब तक कोई भी कानून काम नहीं करेगा.
यूपी में एनकाउंटर की जांच होनी चाहिए
मैं देख रहा हूं कि अब ये नया चल रहा है कि छह महीने में 420 एनकाउंटर हुआ है मीडिया के अनुसार. इसमें सबसे नया तरीका है कि पुलिस अब हत्या नहीं करती बल्कि उन्हें ऐसे जगह गोली मार रही है कि वे चल फिर भी नहीं पाए और सारी जिंदगी अपाहिज बनकर रहे.
यह जितने भी एनकाउंटर हुए हैं, इन सभी की जांच होनी चाहिए. जो लोग एनकाउंटर के पक्ष में बोलते हैं, वे भूल जाते हैं कि किसी के साथ भी यह हो सकता है. कल कोई आपका बच्चा भी इस एनकाउंटर का शिकार हो सकता है.
उत्तर प्रदेश में जितना भी एनकाउंटर हुआ है पिछले 4-6 महीनों में इसकी जांच होनी चाहिए और किसी नागरिक सुरक्षा संस्था को मुकदमा कर सभी एनकाउंटर घटना की जांच करवानी चाहिए.
हम यह समझ ले जेल, पुलिस और अदालत इन सब के तार एक साथ जुड़े हैं. दंड का उद्देश्य समाज में सुधार और सभ्य बनाना है न कि क्रूर बनाना है.
जब तक जेल, पुलिस व्यवस्था और न्यायपालिका में बदलाव नहीं होगा, तब तक देश में कुछ नहीं बदलेगा और संगठित अपराध ऐसे ही पनपेगा, बस आपराधिक संगठन के सरगनाओं के चेहरा बदलेगा जो राजनीतिक दलों के अनुकूल होगा.
(विभूति नारायण राय भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति रहे हैं. ‘शहर में कर्फ्यू’, ‘किस्सा लोकतंत्र’ और ‘प्रेम की भूतकथा’ ‘हाशिमपुरा 22 मई’ इनकी चर्चित किताबें हैं. सांप्रदायिक दंगों में भारतीय पुलिस की भूमिका पर इनका उल्लेखनीय शोध-कार्य है. यह लेख प्रशांत कनौजिया से बातचीत पर आधारित है.)