मुल्क़ की बागडोर संभालते वक़्त ‘संविधान को सबसे पवित्र क़िताब’ और ख़ुद को ‘आंबेडकर का शिष्य’ घोषित करने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने भी अनंत कुमार हेगड़े के बयान पर ख़ामोशी बरतना मुनासिब समझा.
भारत का संविधान (जिसका निर्माण भारत की राजनीतिक एवं सामाजिक मुक्ति के महान संघर्ष में मुब्तिला रहे अपने वक्त की अजीम शख्सियतों ने किया) वह बुनियाद है जिस पर भारत के जनतंत्र की समूची इमारत बुलंदी के साथ खड़ी है और जिसमें हमारे आधुनिक गणतंत्र के व्यापक एवम समावेशी विचारों को तवज्जो दी गई है.
यह अलग बात है कि उसको लेकर अपनी बेआरामी छिपा पाना, हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के लिए हमेशा ही मुश्किल साबित होता रहता है और जो उसे खोखला एवं कमजोर करने के लिए वाचा एवं कर्मणा के स्तर पर आए दिन जुटे रहते हैं.
अपने बलबूते केंद्र में हुकूमत हासिल करने के बाद ऐसी कोशिशों ने बहुत जोर पकड़ा है.
जाहिर था कि केंद्र के एक कबीना मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने जब किसी ब्राहमण युवा परिषद के सम्मेलन में खुल कर कहा कि वह ‘संविधान बदलने के इरादे से सत्ता में आए हैं’ और उन्होंने संविधान के बुनियादी मूल्य धर्मनिरपेक्षता पर यकीन रखनेवालों का भौड़ा मजाक उड़ाया और लोगों को अपनी पहचान को जाति एवं धर्म के रूप में प्रस्तुत करने का आवाहन किया, तब सत्ताधारी पार्टी की तरफ से सूचक मौन ओढ़ लिया गया.
मुल्क की बागडोर संभालते वक्त ‘संविधान को सबसे पवित्र किताब’ कहने वाले तथा अपने आप को ‘आंबेडकर का शिष्य’ घोषित करने वाले प्रधानमंत्री ने भी खामोशी बरतना मुनासिब समझा.
यह अलग बात है कि जनाब हेगडे के इस प्रलाप की जबरदस्त निंदा हुई, उसे जब अपनी साझी, विविधतापूर्ण और धर्मनिरपेक्ष पहचान पर हमला बताया गया और तमाम सामाजिक व राजनीतिक संगठनों की तरफ से इनके खिलाफ कार्रवाई की मांग उठी, तब सत्ताधारी पार्टी की तरफ से दबी जुबां में कहा गया कि वह हेगड़े के बयान से अपने आप को अलग करती है और वह उनका ‘व्यक्तिगत विचार’ है.
हालांकि इस बयान पर संसद के शीतकालीन सत्र में भारी हंगामा होने के बाद हेगड़े ने माफी मांग ली. वैसे विवादों के केंद्र में आए अनंत कुमार हेगड़े का विवादों से पुराना रिश्ता रहा है.
अभी पिछले साल की बात है जब पुलिस ने ‘सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के इरादे से धार्मिक विश्वासों को अपमानित करने’ को लेकर उनके खिलाफ एक केस दर्ज किया था.
अभी पिछले माह ही वह विवादों में रहे थे जब उन्होंने मैसूर के महान राजा टीपू सुलतान (जो ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष में युद्धभूमि पर मारे गए थे) उनकी तुलना अजमल कसाब से की थी.
कर्नाटक सरकार द्वारा टीपू जयंती मनाने की योजना का माखौल उड़ाते हुए उन्होंने कहा था कि यह उसी तरह होगा कि राज्य सरकार अजमल कसाब की जयंती मनाएगी.
प्रस्तुत बयान के फौरी संदर्भ से किसी की आंखें ओझल नहीं हुई हैं. मालूम हो कि अगले साल कर्नाटक के राज्य विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. फिलवक्त यही दिख रहा है कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की लोकप्रियता बरकरार है जबकि खुद भाजपा के राज्य स्तरीय नेतृत्व में आपसी कलह मची हुई है और लिंगायत संप्रदाय (जिसमें भाजपा का मजबूत आधार रहा है ) को अलग धर्म घोषित करने को लेकर चले आंदोलन ने भी भाजपा को असहज कर दिया है.
इस पृष्ठभूमि में इसके कयास भी लगाए जा रहे थे कि अब उसकी तरफ से ध्रुवीकरण की कोशिशें चलेंगी. हेगड़े का बयान गोया इसी की झलक देता है.
मालूम हो कि ‘संविधान बदलने’ के अपने इरादों को जाहिर करने तक ही हेगड़े नहीं रूके बल्कि उन्होंने लोगों से यह आवाहन भी किया कि वह अपने आप को अपने धर्म, अपनी जाति से पहचानें व प्रस्तुत करें और उसी भाषण में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की हिमायत करने वालों का मखौल भी उड़ाया.
गौरतलब यह भी था कि मंत्री महोदय ने मनुस्मृति को जहां बीते दिनों के दस्तावेज/ग्रंथ के तौर पर संबोधित किया उसी सांस में उन्होंने संविधान को भी आंबेडकर स्मृति कह कर अपने इरादें खुल कर जाहिर किए.
वैसे अगर हम संतुलित निगाहों से देखें तो यह भी कोई पहली मर्तबा नहीं है कि संघ परिवार/हिंदुत्व ब्रिगेड से ताल्लुक रखने वाले लोगों में से किसी ने ऐसी बात की हो.
याद रहे संघ के मौजूदा सुप्रीमो मोहन भागवत में हैदराबाद में आयोजित अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के सम्मेलन को संबोधित करते हुए ‘मुल्क की मूल्य प्रणाली के अनुकूल संविधान एवं न्यायविधान में बदलाव की हिमायत की थी.’
कोई भी महीना नहीं गुजरता जब हम ऐसे वक्तव्यों, बयानों से रूबरू न होते हों, जहां भारतीय संविधान को ‘पश्चिमी प्रभावों’ से युक्त होने के नाम पर तथा ‘भारतीय (कहने का तात्पर्य हिंदू) मूल्यों की उपेक्षा करने के लिए’ विवादों के घेरे में न लाया जाता हो.
तयशुदा बात है कि ऐसे विवादास्पद कहे जाने वाले बयानों से, उनसे समग्रता में वह बात स्पष्ट नहीं होती कि किस चुपचाप तरीके से हुकूमत में बैठी जमात के लोग संवैधानिक सिद्धांतों को तिलांजलि देते या उन्हें अंदर से खोखला कर रहे होते हैं और किस तरह समूचे मुल्क पर अपने बहुसंख्यकवादी निरंकुशता की विचारधारा को थोप रहे हों.
गोवंश के जीवन का अधिकार जिस तरह मनुष्य के जीने के अधिकार (संविधान की धारा 21 जो जीवन एवं व्यक्तिगत आजादी की सुरक्षा की बात करती है) पर हावी होता दिख रहा है, वह अपने वक्त की कटु वास्तविकता है.
भाजपा शासित राज्यों द्वारा गोवंश की रक्षा पर बनाए जा रहे कानून और दक्षिणपंथी जमातों को गोरक्षा के नाम पर दी जा रही खुली हिंसा की छूट ने तमाम निरपराधों को अपने जान से हाथ धोना पड़ रहा है.
धार्मिक समारोहों में सेना की सहभागिता की परिघटना से भी हम रूबरू हो रहे हैं – जिसने उसके धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बुरी तरह प्रभावित किया है. याद रहे धर्मनिरपेक्षता संविधान के बुनियादी मूल्य में शुमार है.
इतना ही नहीं प्रस्तावित नागरिकता बिल में भी ऐसे प्रावधान शामिल किए जा रहे हैं जिसके तहत धार्मिक उत्पीड़न से बचने के नाम पर पड़ोसी मुल्कों के गैरमुस्लिम शरणार्थियों को आसानी से नागरिकता प्रदान की जा सके.
इजरायल के तर्ज पर (जहां दुनिया में कहीं भी उत्पीड़ित यहूदी हो उसे इजरायल पहुंचने या उसकी नागरिकता पाने का जो अधिकार प्रदान किया गया है) उसी तर्ज पर भारत के संविधान में बदलावों को अंजाम दिया जा रहा है ताकि भारत ‘उत्पीड़ित हिंदुओं की स्वाभाविक जगह’ बन सके.
यह छिटपुट उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि हुकूमत किस दिशा में बढ़ रही है. याद रहे कि नागरिकता संशोधन बिल, 2016 के तहत मुसलमानों को साफ तौर पर बाहर रखा गया है तथा उसमें सिर्फ मुस्लिम बहुल देशों के धार्मिक अल्पसंख्यकों का उल्लेख है.
यह बात इस सच्चाई की भी अनदेखी करती है कि पड़ोसी मुस्लिम बहुल मुल्कों में शियाओं, अहमदिया आदि समुदायों का भी उत्पीड़न होता है, जबकि वह भी इस्लाम को मानते हैं.
अगर हम भाजपा की अपनी यात्रा को देखें तो पता चलता है कि किस सुनियोजित तरीके से वह इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. याद कर सकते हैं कि जब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे, उन्होंने संविधान समीक्षा के नाम पर तत्काल एक आयोग का गठन किया था.
जस्टिस वेंकटचलैया आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी थी. इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि भाजपा की अगुआई वाली तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के पास चूंकि उस वक्त पूर्ण बहुमत नहीं था इसलिए संविधान की समीक्षा के प्रस्तावों को सदन में रखने का भी वह साहस जुटा नहीं सके.
उन्हीं दिनों यह बात भी रेखांकित की गयी थी कि उसके पहले सम्पन्न तीन चुनावों में भाजपा ने भारतीय संविधान की समीक्षा का एजेंडा चुनावी घोषणापत्र में बाकायदा जोड़ा था.
संविधान को लगातार इस तरह खारिज करते रहना या उसे प्रश्नांकित करते रहना (जिसने न केवल मनुस्मृति द्वारा प्रस्तावित सदियों से चली आ रही आचार संहिता को चुनौती दी थी और व्यक्ति तथा उसकी आजादी एवं स्वायत्तता को केंद्र में स्थापित करने की बात कही थी) एक तरह से 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में मनुस्मृति के प्रति संघ परिवारी खेमें में अभी भी व्याप्त जबरदस्त सम्मोहन को उजागर करता है.
यह बात इतिहास में भी दर्ज है कि मनुस्मृति के प्रति इसी सम्मोहन के चलते ही, आजादी के वक्त जब नवस्वाधीन मुल्क के कर्णधार देश के लिए नया संविधान बनाने की प्रक्रिया में मुब्तिला थे, संघ के तत्कालीन सुप्रीमो गोलवलकर ने बाकायदा आजाद भारत के नए संविधान के लिए मनुस्मृति को ही प्रस्तावित किया था. (आर्गनाइजर, 30 नवंबर, 1949, पेज 3) संघ के मुखपत्र में यह शिकायत की गई थी कि हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है.
मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गई थी. आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है. लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है.
इतना ही नहीं उन दिनों जब डॉ आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल के माध्यम से हिंदू स्त्रियों को पहली दफा संपत्ति और तलाक के मामले में अधिकार दिलाने की बात की थी, तब कांग्रेस के अंदर के रूढ़िवादी धड़े से लेकर हिंदूवादी संगठनों ने उनकी मुखालफत की थी, उसे हिंदू संस्कृति पर हमला बताते हुए उनके घर तक जुलूस निकाले गए थे.
उन दिनों स्वामी करपात्री महाराज जैसे तमाम साधु संतों ने भी (जो मनु के विधान पर चलने के हिमायती थे) आंबेडकर का जबरदस्त विरोध किया था.
गोलवलकर ने उन्हीं दिनों लिखा था-
जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए तथा इस संतोष में भी नहीं रहना चाहिए कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है. वह खतरा अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है, जो पिछले द्वार से उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी जीवन की शक्ति को खा जाएगा. यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है, जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिये अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो. (श्री गुरूजी समग्र: खंड 6, पेज 64 , युगाब्द 5106)
याद रहे इतिहास में पहली बार इस बिल के जरिए विधवा को और बेटी को बेटे के समान ही संपत्ति में अधिकार दिलाने, एक जालिम पति को तलाक देने का अधिकार पत्नी को दिलाने, दूसरी शादी करने से पति को रोकने, अलग-अलग जातियों के पुरुष और स्त्री को हिंदू कानून के अन्तर्गत विवाह करने और एक हिंदू जोड़े के लिए दूसरी जाति में जनमे बच्चे को गोद लेने आदि बातें प्रस्तावित की गई थीं.
इस विरोध की अगुआई गोलवलकर के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की थी, जिसने इसी मुद्दे पर अकेले दिल्ली में 79 सभाओं-रैलियों का आयोजन किया था, जिसमें ‘हिंदू संस्कृति और परम्परा पर आघात करने के लिए’ नेहरू और आंबेडकर के पुतले जलाए गए थे. (देखें, रामचंद्र गुहा, द हिंदू, 18 जुलाई 2004)
यह वही गोलवलकर थे जिन्होंने कभी भी अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण एवम सशक्तिकरण हेतु नवस्वाधीन मुल्क के कर्णधारों ने जो विशेष अवसर प्रदान करने की जो योजना बनायीं, उसका कभी भी तहेदिल से समर्थन नहीं किया.
आरक्षण के बारे में उनका कहना था कि यह हिंदुओं की सामाजिक एकता पर कुठाराघात है और उसने आपस में सद्भाव पर टिके सदियों पुराने रिश्ते तार-तार होंगे.
इस बात से इनकार करते हुए कि निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिंदू समाज व्यवस्था जिम्मेदार रही है, उन्होंने दावा किया कि उनके लिए संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने से आपसी दुर्भावना बढ़ने का खतरा है. (गोलवलकर, बंच आफ थाटस्, पेज 363, बंगलौर: साहित्य सिन्धु, 1996)
हालांकि इधर बीच गंगा-जमुना से काफी सारा पानी गुजर चुका है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि मनुस्मृति को लेकर अपने रूख में हिंदुत्व ब्रिगेड की तरफ से कोई पुनर्विचार हो रहा है. फर्क महज इतना ही आया है कि भारतीय संविधान की उनकी आलोचना ( जिसने डॉ आंबेडकर के शब्दों में कहा जाए तो ‘मनु के दिनों को खतम किया है’ ) अधिक संश्लिष्ट हुई है.
हालांकि कई बार ऐसे मौके भी आते हैं जब यह आलोचना बहुत दबी नही रह पाती और बातें खुल कर सामने आती हैं. विश्व हिंदू परिषद के नेता गिरिराज किशोर, जो संघ के प्रचारक रह चुके हैं, उनका अक्टूबर 2002 का वक्तव्य बहुत विवादास्पद हुआ था, जिसमें उन्होंने एक मरी हुई गाय की चमड़ी उतारने के ‘अपराध’ में झज्जर में भीड़ द्वारा की गयी पांच दलितों की हत्या को यह कह कर औचित्य प्रदान किया था कि ‘हमारे पुराणों में गाय का जीवन मनुष्य से अधिक मूल्यवान समझा जाता है.’
मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल में उन दिनों भारतीय जनता पार्टी की नेत्री उमा भारती ने गोहत्या के खिलाफ अध्यादेश जारी करते हुए मनुस्मृति की भी हिमायत की थी. (जनवरी 2005) वक्तव्य में कहा गया था कि ‘मनुस्मृति में गाय के हत्यारे को नरभक्षी कहा गया है और उसके लिए सख्त सजा का प्रावधान है.’
चर्चित राजनीतिविद शमसुल इस्लाम ने इस सिलसिले में लिखा था कि ‘आजाद भारत के कानूनी इतिहास में यह पहला मौका था जब एक कानून को इस आधार पर उचित ठहराया गया था कि वह मनुस्मृति के अनुकूल है.’ (‘द रिटर्न ऑफ मनु, द मिल्ली गैजेट, 16-29 फरवरी 2005).
संघ-भाजपा के मनुस्मृति सम्मोहन का एक प्रमाण जयपुर के उच्च अदालत के प्रांगण में भाजपा के नेता भैरोसिंह शेखावत के मुख्यमंत्रीत्व काल में नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में बिठायी गयी मनु की मूर्ति के रूप में मौजूद है. इस तरह देखें तो जयपुर हिन्दोस्तां का एकमात्र शहर है जहां मनु महाराज हाईकोर्ट के प्रांगण में विराजमान हैं और संविधान निर्माता आंबेडकर की मूर्ति प्रांगण के बाहर कहीं कोने में स्थित है.
महज तीन सप्ताह पहले इसी जयपुर में एक विशाल कार्यक्रम हुआ, जिसके मुख्य अतिथि के तौर पर संघ के अग्रणियों में शुमार इंद्रेश कुमार को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया था, जिसमें मनुस्मृति का खूब गुणगान किया गया.
निस्संदेह जनाब अनंत हेगड़े के हिमायती हर तरफ बिखरे हैं.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)