जब आंबेडकर ने भीमा-कोरेगांव युद्ध को पेशवाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ महारों के संघर्ष के रूप में पेश किया, तब वे असल में एक मिथक रच रहे थे. जैसे कि किसी भी आंदोलन को खड़ा करने के लिए मिथकों की ज़रूरत होती ही है, हो सकता है उन्हें उस समय इसकी ज़रूरत लगी हो.
200 साल पहले पुणे की भीमा नदी के किनारे बसे कोरेगांव में अंग्रेजों और मराठों के बीच आखिरी लड़ाई हुई थी. इस लड़ाई में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें और गहरी कर दी थीं. इस लड़ाई में मारे गये सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने इस युद्ध के मैदान में एक शिला-स्तंभ भी बनवाया. इस शिला-स्तंभ पर 49 लोगों के नाम लिखे हैं, जिनमें 22 के आगे ‘नाक’ लगा है, जो बताता है कि वे महार थे.
ये स्मारक महार सैनिकों की बहादुरी के प्रतीक के रूप में बनाया गया था, जिसका 1893 में ब्रिटिश सेना में महारों को नौकरी न देने के फैसले को बदलने की गुजारिश करने के लिए पहली पीढ़ी के महार नेताओं जैसे गोपाल बाबा वलंगकर, शिवराम जानबा कांबले और यहां तक कि बीआर आंबेडकर के पिता रामजी आंबेडकर द्वारा बखूबी इस्तेमाल किया गया था.
ब्रिटिश सेना में महारों को नौकरी न देने का फैसला 1857 के विद्रोह के फलस्वरूप लिया गया था. इस विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने सेना में भर्ती करने की रणनीति बदलते हुए केवल ‘लड़ाकू जातियों’ को अपनी सेना में जगह दी थी.
लेकिन जब बाबा साहेब आंबेडकर ने भीमा-कोरेगांव की लड़ाई को पेशवा शासन के जातीय उत्पीड़न के खिलाफ महार सैनिकों के युद्ध के रूप में पेश किया था तब वे असल में एक मिथक पेश कर रहे थे. जैसा कि किसी भी आंदोलन को खड़ा करने के लिए मिथकों की जरूरत होती ही है, हो सकता है कि उन्हें उस समय इसकी जरूरत लगी हो.
लेकिन एक सदी बाद जब ये मिथक एक तरह से इतिहास के हिस्से के रूप में अपनाया जा चुका है और दलितों की पहचान के सवाल को और गहरा सकता है, ये एक चिंता का विषय होना चाहिए.
बीते दिनों कई दलित संगठनों ने इस लड़ाई की 200वीं सालगिरह को एक अभियान की तरह मनाने के लिए एक संयुक्त दल बनाया, जिसका उद्देश्य नई पेशवाई यानी हिंदुत्व के बढ़ते ब्राह्मणत्व वाले शासन के ख़िलाफ़ हमला करना था. 31 दिसंबर को उनकी लंबी मार्च पुणे के शनिवारवाड़ा के एल्गार परिषद पहुंची.
हिंदुत्व से लड़ने का फैसला निश्चित रूप से सराहनीय है, लेकिन इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जा रहा मिथक इस मकसद के बिल्कुल उलट है क्योंकि यह उन्हीं पहचानवादी प्रवृत्तियों को और मजबूत करता है, जिनसे निकलने की जरूरत है.
जहां तक इतिहास की बात है तो यह तथ्य है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब अपनी सैन्य आकांक्षाएं विकसित की, तब उन्होंने बिना किसी अनुपात में बड़ी संख्या में दलितों को अपनी सेना में भर्ती किया, शायद उनकी निडर निष्ठा और वफादारी के लिए और इसलिए भी कि वे सस्ते में उपलब्ध थे. अगर गौर करें तो ऐसे बिना किसी अनुपात के बंगाल की सेना में नामशूद्र मिलेंगे, मद्रास की सेना में परावा और महाराष्ट्र की सेना में महार.
अगर दलित भारत में ब्रिटिश राज की स्थापना में अपने महत्वपूर्ण योगदान के बारे में दावा करना चाहते, तो ये उतना गलत नहीं होता, लेकिन अपनी सेना को आगे लाने के पीछे जातीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने को मकसद बताना ऐतिहासिक रूप से गलत होगा.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में प्लासी के पहले युद्ध से लेकर अंग्रेज-मराठा युद्ध तक कई लड़ाइयां लड़ीं. साफतौर पर ये पेशवाओं के खिलाफ नहीं थीं. इनमें से ज्यादातर तो हिंदुओं के खिलाफ भी नहीं थीं. वे केवल दो सत्तारूढ़ शक्तियों के बीच युद्ध थे, जिसमें सैनिक सिर्फ अपना कर्त्तव्य निभाने के लिए लड़ रहे थे. इन्हें जाति या धर्म के खिलाफ युद्ध बताना न केवल तथ्यात्मक रूप से बल्कि ऐतिहासिक रूप से जाति को समझने के लिहाज से भी गलत होगा.
19वीं शताब्दी के आखिर तक जब तक दलितों में पर्याप्त शिक्षा नहीं पहुंच गयी, जाति ही उनके लिए सब कुछ थी. उन्होंने जाति को एक स्वाभाविक क्रम के रूप में अपना लिया था और और उसकी वजह से होने वाले उत्पीड़न को अपना भाग्य समझ कर चुपचाप झेलते थे. इसलिए युद्ध की तो बात छोड़ दीजिये, उनके जाति के विरुद्ध प्रतिरोध का भी कोई सवाल नहीं उठता. तो ऐसे बहादुरी के मिथकों के उलट, इस बारे में कोई प्रमाण नहीं है कि दलितों द्वारा ब्राह्मणों के अत्याचार के खिलाफ किसी तरह का सैन्य प्रतिरोध दर्ज करवाया.
अगर लड़ने वाली सेनाओं के गठन की बात की जाये, तो ये सांप्रदायिक कारणों पर आधारित नहीं होता था. अगर ब्रिटिश सेना में दलित बड़ी संख्या में मौजूद थे, तो ऐसा नहीं था कि वे मुस्लिम और मराठा सेनाओं में नहीं थे. अगर समुदायों की बात करें, तो सेनाओं में सभी जातियां मौजूद थीं.
कोरेगांव की लड़ाई में पेशवा सेना के पैदल सैनिकों के तीन में से एक विंग अरबों का था, जो सुना जाता है ज्यादा बहादुरी से लड़े और मरने वालों में में भी उनकी संख्या ज्यादा थी. उनकी प्रेरणा क्या थी? क्या वे पेशवाओं के ब्राह्मण शासन की जीत चाहते थे? साफ बात यह है कि वे अपने मालिकों के सैनिकों के बतौर लड़े थे, बिल्कुल वैसे जैसे दलित अपने मालिकों के लिए लड़े. इसके अलावा उनके लड़ने के और उद्देश्य बताना पूरी तरह गलत होगा.
1 जनवरी 1818 को कोरेगांव युद्ध से पहले हुए दो अंग्रेज-मराठा युद्धों के बाद पेशवा वैसे ही कमजोर हो चुके थे. तथ्यों कि मानें तो पेशवा बाजीराव द्वितीय पुणे भाग गये थे और पुणे पर बाहर से हमला करने की कोशिश कर रहे थे. पेशवा सेना के पास 20,000 घुड़सवार और 8,000 पैदल सैनिक थे, जिनमें से 2,000 सैनिकों को तीन पैदल दलों में बांटा गया था, जिसमें हर दल में 600 अरब, गोसाईं सैनिक थे, जिन्होंने हमला किया था. इन हमलावरों में ज्यादातर अरब थे, जो पेशवा सेना में सबसे कुशल माने जाते थे.
वहीं कंपनी की ट्रूप में 834 सैनिक थे, जिसमें करीब 500 सैनिक बॉम्बे नेटिव इन्फेंट्री की पहली रेजीमेंट की दूसरी बटालियन के थे, जिनमें मुख्या रूप से महार सैनिक थे. हालांकि उनकी सटीक संख्या के बारे में कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है, लेकिन ये तो जाहिर है कि वे सभी तो महार नहीं थे. अगर हम मृतकों कि संख्या भी देखें, तो इस युद्ध के मृतकों में ज्यादातर (49 में से 27) महार नहीं थे. पेशवा सेना ने आखिरकार जनरल जोसफ स्मिथ की अगुवाई में एक बड़ी ब्रिटिश सेना के आने के डर के चलते अपने पांव पीछे खींच लिए. अगर इन तथ्यों के मद्देनज़र इस युद्ध को देखा जाए तो इस युद्ध को पेशवाओं के ब्राह्मण शासन के खिलाफ महारों के प्रतिशोध के रूप में पेश करना भ्रामक होगा.
इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि पेशवाई की हार के बाद महारों को कोई राहत मिली थी. सही बात तो ये है कि उनकी जाति का उत्पीड़न निरंतर चलता रहा. बल्कि जैसा पहले बताया गया कि अकृतज्ञ ब्रिटिश सेना ने उनकी पिछली बहादुरी को नजरअंदाज करते हुए अपनी सेना में उनकी भर्ती पर रोक लगा दी. अंग्रेजों ने उनकी भर्ती शुरू करने की याचिकाओं पर तब तक ध्यान नहीं दिया, जब तक उन्हें पहले विश्व युद्ध का डर नहीं दिखा. इसके बाद ही उन्होंने सेना में महारों की भर्ती दोबारा शुरू की.
इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक राज ने दलितों को कई फायदे पहुंचाए, यहां तक की दलित आंदोलन का श्रेय भी उन्हें दिया जा सकता है. लेकिन इसके साथ यह समझने की भी जरूरत है कि ये किसी विशेष उद्देश्य के कारण नहीं बल्कि मूलतः उनकी औपनिवेशिक सोच के चलते था. दुर्भाग्य है कि दलित इस सच्चाई से मुंह मोड़ते हैं.
ये कहना भी उतना ही गलत है कि क्योंकि पेशवा सेना मराठा साम्राज्य से आते थे, तो वे राष्ट्रवादी थे और पराजित ब्रिटिश सेना साम्राज्यवादी. किन्हीं ऐतिहासिक तथ्यों को किसी ऐसे राष्ट्र के चश्मे से देखना जो उस वक्त था ही नहीं, भी उतना ही निंदनीय है.
उस समय भारतीय राष्ट्र की कोई संकल्पना नहीं थी. ये विडंबना ही है कि इस भारत का अस्तित्व ब्रिटिश शासन की बदौलत ही है, जिसने इतने बड़े उपमहाद्वीप के इस हिस्से को राजनीतिक एकता दी. वे लोग जो इस देश को अपने स्वार्थी लाभों के लिए चला रहे थे, वे पेशवाओं की तरह ही भ्रष्ट और सबसे बड़े देशद्रोही हैं.
दलितों को हिंदुत्व के ठेकेदारों की बनाई गयी इस नई पेशवाई से लड़ने की जरूरत है. इसके लिए एक मिथकीय अतीत में अपनी महानता की कल्पना के बजाय उन्हें अपनी आंखें खोलकर वास्तविकता का सामना करने की जरूरत है.
(आनंद तेलतुम्बडे गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में सीनियर प्रोफेसर हैं.)
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