केजरीवाल अगर आदर्श की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए उन्हें 21 विधायकों को संसदीय सचिव नहीं बनाना चाहिए था. तो फिर बाकी मुख्यमंत्री आदर्श की राजनीति नहीं कर रहे हैं? क्या वो मौज करने के लिए मुख्यमंत्री बने हैं और लालच देने के लिए संसदीय सचिव का पद बांट रहे हैं?
हर सरकार तय करती है कि लाभ का पद क्या होगा, इसके लिए वह कानून बनाकर पास करती है. इस तरह बहुत से पद जो लाभ से भी ज़्यादा प्रभावशाली हैं, वे लाभ के पद से बाहर हैं.
लाभ के पद की कल्पना इसलिए की गई थी कि सत्ता पक्ष या विपक्ष के विधायक सरकार से स्वतंत्र रहें. क्या वाकई होते हैं? बात इतनी थी कि मंत्रियों के अलावा विधायक कार्यपालिका का काम न करें, सदन के लिए उपलब्ध रहें और जनता की आवाज़ उठाएं.
आप अगर पता करेंगे कि किस राज्य की विधानसभाएं 100 दिन की भी बैठक करती हैं तो शर्म आने लगेगी. सदन चलते नहीं और लाभ के पद के नाम पर आदर्श विधायक की कल्पना करने की मूर्खता भारतीय मीडिया में ही चल सकता है.
जब ऐसा है तो फिर व्हिप क्यों है? क्यों व्हिप जारी कर विधायकों को सरकार के हिसाब से वोट करने के लिए कहा जाता है? व्हिप तो खुद में लाभ का पद है. किसी सरकार में दम है क्या कि व्हिप हटा दे. व्हिप का पालन न करने पर सदस्यता चली जाती है. बाकायदा सदन में चीफ व्हिप होता है ताकि वह विधायकों या सांसदों को सरकार के हिसाब से वोट के लिए हांक सके.
अगर इतनी सी बात समझ आती है तो फिर आप देख सकेंगे कि चुनाव आयोग या कोई भी दिल्ली पर फालतू में चुनाव थोप रहा है जिसके लिए लाखों या करोड़ों फूंके जाएंगे. मीडिया ने इन सब बातों को नहीं बताया, लगे भाई लोग सर्वे कर रिजल्ट ही बताने कि चुनाव होगा तो क्या होगा.
संविधान में लाभ का पद परिभाषित नहीं है. इसकी कल्पना ही नहीं है. इसका मतलब है जो पद लाभ के पद के दायरे में रखे गए हैं वे वाकई लाभ के पद नहीं हैं क्योंकि लाभ के पद तो कानून बनाकर सूची से निकाल दिया जाता है! लोकतंत्र में टाइम बर्बाद करने का गेम समझे आप?
अदालती आदेश भी लाभ के पद को लेकर एक जैसे नहीं हैं. उनमें निरंतरता नहीं है. बहुत से राज्यों में हुआ है कि लाभ का पद दिया गया है. कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को अवैध ठहराया है, उसके बाद राज्य ने कानून बना कर उसे लाभ का पद से बाहर कर दिया है और अदालत ने भी माना है. फिर दिल्ली में क्यों नहीं माना जा रहा है?
कई राज्यों में रेट्रोस्पेक्टिव इफेक्ट यानी बैक डेट से पदों को लाभ के पद को सूची से बाहर किया गया. संविधान में प्रावधान है कि सिर्फ क्रिमिनल कानून को छोड़ कर बाकी मामलों में बैक डेट से छूट देने के कानून बनाए जा सकते हैं. फोटो क्लियर हुआ?
कांता कथूरिया, राजस्थान के कांग्रेस विधायक थे. लाभ के पद पर नियुक्ति हुई. हाईकोर्ट ने अवैध ठहरा दिया. राज्य सरकार कानून ले आई, उस पद को लाभ के पद से बाहर कर दिया. तब तक सुप्रीम कोर्ट में अपील हो गई, सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर लिया. विधायक की सदस्यता नहीं गई. ऐसे अनेक केस हैं.
2006 में शीला दीक्षित ने 19 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया. लाभ के पद का मामला आया तो कानून बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया. केजरीवाल ने भी यही किया. शीला के विधेयक को राष्ट्रपति को मंजूरी मिल गई, केजरीवाल के विधेयक को मंजूरी नहीं दी गई.
मार्च 2015 में दिल्ली में 21 विधायक संसदीय सचिव नियुक्त किए जाते हैं. जून 2015 में छत्तीसगढ़ में भी 11 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया जाता है. इनकी भी नियुक्ति हाईकोर्ट से अवैध ठहराई जा चुकी है, जैसे दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के विधायकों की नियुक्ति को अवैध ठहरा दिया.
छत्तीसगढ़ के विधायकों के मामले में कोई फैसला क्यों नहीं, क्यों चर्चा क्यों नहीं. जबकि दोनों मामले एक ही समय के हैं. आपने कोई बहस देखी? कभी देखेंगे भी नहीं क्योंकि चुनाव आयोग भी अब मोहल्ले की राजनीति में इस्तेमाल होने लगा है. सदस्यों को अपना लाभ चाहिए, इसलिए ये आयोग के बहाने लाभ के पद की पॉलिटिक्स हो रही है.
मई 2015 में रमन सिंह सरकार ने 11 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया. इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस में 1 अगस्त 2017 को ख़बर छपी है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सभी संसदीय सचिवों की नियुक्ति रद्द कर दी है क्योंकि इनकी नियुक्ति राज्यपाल के दस्तखत से नहीं हुई है. दिल्ली में भी यही कहा गया था.
हरियाणा में भी लाभ के पद का मामला आया. खट्टर सरकार में ही. पांच विधायक पचास हजार वेतन और लाख रुपये से अधिक भत्ता लेते रहे. पंजाब हरियाणा कोर्ट ने इनकी नियुक्ति अवैध ठहरा दी. पर इनकी सदस्यता तो नहीं गई.
राजस्थान में भी दस विधायकों के संसदीय सचिव बनाए जाने का मामला चल ही रहा है. पिछले साल 17 नवंबर को हाईकोर्ट ने वहां के मुख्य सचिव को नोटिस भेजा है. इन्हें तो राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है.
मध्य प्रदेश में भी लाभ के पद का मामला चल रहा है. वहां तो 118 विधायकों पर लाभ के पद लेने का आरोप है. 20 विधायक के लिए इतनी जल्दी और 118 विधायकों के बारे में कोई फ़ैसला नहीं? 118 विधायकों के बारे में खबर पिछले साल 27 जून 2017 के टेलीग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी थी कि 9 मंत्री ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के दायरे में आते हैं.
2016 में अरुणाचल प्रदेश में जोड़-तोड़ से भाजपा की सरकार बनती है. सितंबर 2016 में मुख्यमंत्री पेमा खांडू 26 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं. उसके बाद अगले साल मई 2017 में 5 और विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं.
अरुणाचल प्रदेश में 31 संसदीय सचिव हैं. वह भी तो छोटा राज्य है. वहां भी तो कोटा होगा कि कितने मंत्री होंगे. फिर 31 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया गया? क्या लाभ का पद नहीं है? क्या किसी टीवी चैनल ने बताया आपको?
क्या 31 संसदीय सचिव होने चाहिए? क्या 21 संसदीय सचिव होने चाहिए? जो भी जवाब होगा, उसका पैमाना तो एक ही होगा या अलग-अलग होगा.
अरविंद केजरीवाल की आलोचना हो रही है कि 21 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया? मुझे भी लगता है कि उन्हें नहीं बनाना चाहिए था. पर क्या कोई अपराध हुआ है, नैतिक या आदर्श या संवैधानिक पैमाने से?
केजरीवाल अगर आदर्श की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए उन्हें 21 विधायकों को संसदीय सचिव नहीं बनाना चाहिए था तो फिर बाकी मुख्यमंत्री आदर्श की राजनीति नहीं कर रहे हैं? क्या वो मौज करने के लिए मुख्यमंत्री बने हैं और लालच देने के लिए संसदीय सचिव का पद बांट रहे हैं?
इसलिए लाभ के पद का मामला बकवास है. इसके ज़रिए दिल्ली पर एक फालतू का मसला थोपा गया है. अव्वल तो इस व्यवस्था और इससे होने वाले कानूनी झंझटों को ही हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहिए.
आपकी संस्थाओं का तमाशा उड़ रहा है. आंखें खोल कर देखिए. टीवी चैनलों के भरोसे देश को मत छोड़िए. पता करते रहिए. देखते रहिए. आप किसी की साइड लें मगर तथ्य तो देखें. यह भी तो देखें कि चुनाव आयोग किसी का टाइपिस्ट तो नहीं बन रहा है.
(यह लेख मूलत: रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है)