पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता अरुण शौरी ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया घटनाक्रम, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मीडिया की दशा पर द वायर से बातचीत की. यह साक्षात्कार ईमेल के ज़रिये किया गया.
सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने एक ऐतिहासिक घटनाक्रम में मीडिया को पहली बार सीधे संबोधित किया और यह चेतावनी दी कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सही तरीके से नहीं चल रहा है. एक तरह से आगाह करते हुए उन्होंने कहा कि अगर न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ समझौता किया जाएगा, तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा. आप इस अभूतपूर्व घटना को किस तरह से देखते हैं?
गांधी जी गलत कामों के सामने धैर्य रखने की सीख दिया करते थे. लेकिन, उन्होंने हमेशा यह कहा कि अगर हमारा सामना- मैं उनके ही शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं- ‘बर्दाशत न किए जा सकने वाले गलत काम’ से हो, और हमने बाकी सारे रास्ते आज़मा कर देख लिए हों और मगर उससे ग़लत को सही नहीं किया जा सका हो, तो हमें अगला क़दम उठाने से पीछे नहीं हटना चाहिए.
जजों ने जो चिट्ठी जारी की है और प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने जो कहा, उससे यह साफ ज़ाहिर है कि वे महीनों से इन मुद्दों को मुख्य न्यायाधीश के सामने उठा रहे थे. यह चिट्ठी 8 नवंबर से पहले, यानी चिट्ठी में जिस आरपी लूथरा केस का हवाला दिया गया है, उसमें फैसले के आने से पहले लिखी गई थी. लेकिन, इस दिशा में कुछ नहीं किया गया. जैसा कि जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस गोगोई ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में तस्दीक की, लोया केस का आवंटन आख़िरी धक्का साबित हुआ.
उनकी इस दलील पर आप क्या कहना चाहेंगे कि उन्होंने इस मामले को जनता के सामने रखने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि ख़ुद लोकतंत्र ख़तरे में था?
निश्चित तौर पर. जिस पीड़ा की ओर उन्होंने ध्यान दिलाया- स्थापित परंपराओं की अवहेलना करके, मामलों को बिना किसी तर्क या नियम के चयनित बेंचों को सौंपना- अगर उसे जारी रहने दिया जाएगा, तो यह न्यायपालिका को पूरी तरह से खोखला कर देगा.
याद रखिए कि जजों की चिट्ठी से यह साफ है कि यह सिर्फ आज की बात नहीं है… इस घाव में लंबे समय से मवाद जमा हो रहा है और यह फैल रहा है: चिट्ठी का वाक्य है, ‘‘ऐसे उदाहरण हैं जहां राष्ट्र के लिए दूरगामी परिणाम वाले मामले मुख्य न्यायधीशों द्वारा चयनित तरीके से बिना किसी तार्किक आधार के ‘अपनी पसंद की’ बेंचों को, आवंटित किए गए हैं.’’
यहां ध्यान दीजिए कि उन्होंने ‘मुख्य न्यायाधीशों’ लिखा है. न कि सिर्फ एक मुख्य न्यायाधीश. यह आरोपियों द्वारा ख़ुद अपने अभियोजकों को चुनने की परंपरा… वह भी अफसोसजनक ढंग से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की सहमति से, जैसा कि जयललिता के मामले में हुआ, से अलग कैसे है जिस पर न्यायाधीशों ने ख़ुद सख़्त रवैया अपनाया है?
या यह आरोपियों द्वारा अपना जज ख़ुद चुनने से अलग कैसे है? क्या न्यायपालिका ऐसी बुरी और अनिष्टकारी प्रवृत्ति के साथ जीवित रह सकती है? और अगर न्यायपालिका भी इस तरह से किसी आरोपी द्वारा और उससे भी बदतर, राजनीतिक शासकों द्वारा अगवा किए जाने के लिए इतनी खुली हो, तो क्या लोकतंत्र जीवित रह सकता है?
कुछ लोगों का तर्क है कि जजों ने यह नहीं कहा कि मुख्य न्यायाधीश कार्यपालिका के दबाव में काम कर रहे हैं. इसने केंद्र को इस घटना की व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय के जजों के बीच के आंतरिक मसले के तौर पर करने का मौका दिया है. अब सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के पूरे तंत्र/प्रक्रिया की पुनर्समीक्षा करने का संकेत दे रही है, क्योंकि इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम बंटा हुआ दिख रहा है. इस बारे में आपका क्या कहना है?
राजनीतिक कार्यपालिका किसी भी और हर स्थिति का हमेशा फायदा उठाने की कोशिश करेगी- ख़ासकर, अगर यह वर्तमान कार्यपालिका जैसी हो, जैसा कि मैंने कई बार कहा है, जिसका हर चीज़ के प्रति एक उपयोगितावादी दृष्टिकोण है. जो हर व्यक्ति, हर संस्थान, हर मौके को सिर्फ एक नज़र से देखती है: ‘कि मैं इस व्यक्ति, इस संस्थान, इस मौके का किस तरह से इस्तेमाल कर सकता हूं?’
और यह आरोप बिल्कुल बकवास है कि लोगों के सामने आकर जजों ने सरकार को दख़लअंदाज़ी करने का मौका दे दिया है. आप इस बात पर अपनी जान की शर्त लगा सकते हैं कि वर्तमान सरकार जैसी सरकार हर समय, इस बात का पुख़्ता इंतज़ाम करके रखती है कि उसे पता रहे कि जजों के बीच में आपस में क्या चल रहा है.
वास्तव में वह यह जानती है. एहतियात रखने की बात ये नहीं है कि ‘बर्दाश्त न किए जा सकने वाले ऐसे गलत काम’ के मद्देनज़र जजों को शांत रहना चाहिए, बल्कि एहतियात रखने की बात ये है कि नागरिकों को सरकार के इरादों को लेकर सचेत रहना चाहिए. उनको, और इसमें आप और हम और हर कोई शामिल है- कोर्ट के चारों ओर रक्षा कवच बन कर खड़ा रहना चाहिए और हर मौके को अपने फायदे में इस्तेमाल करने की सरकार की सभी कोशिशों को बेनकाब करना चाहिए.
यह भी सच है: जजों को अपने मतभेदों को दूर करने के लिए छोड़ देना चाहिए और ख़ासकर वैसे मामलों से निपटने के लिए नियम बनाने के लिए जिसने वर्तमान स्थिति को जन्म दिया है और बेंचों के बीच केसों का आवंटन करने के लिए ये नियम ऐसे हों, जो न्यायोचित हों और तोड़े-मरोड़े जा सकने वाले न हों.
आरएसएस के कुछ नेताओं ने जजों पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाया है. इस बारे में आपकी राय क्या है?
पहली बात, मेरा मानना है कि आरएसएस के कई लोग उथली समझ रखते हैं. और मुझे नहीं पता कि आपको इस बात की जानकारी है या कि नहीं कि कुछ लोग जस्टिस दीपक मिश्रा के अतीत के फैसलों से कितने खुश हुए हैं? क्या आपने कभी खुशी कभी गम, फिल्म को लेकर उनके फैसले को पढ़ा है, जो उन्होंने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में रहते हुए दिया था? इसमें उन्होंने राष्ट्रगान के बारे में क्या कहा था?
यह ठीक वैसा ही फैसला है, जिससे स्वघोषित ‘राष्ट्रवादियों’ को बेइंतहा खुशी मिलेगी. वास्तव में यह फैसला इतना बेतुका है कि इससे देखकर शर्मींदगी होगी. इसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था. हाल ही में उसी याचिकाकर्ता ने राष्ट्रगान पर एक और याचिका दायर की. इस बार सुप्रीम कोर्ट में.
एक छोटे-मोटे चमत्कार की तरह ही, यह याचिका जस्टिस मिश्रा के पास सुनवाई के लिए आई. और इस तरह उन्होंने सिनेमा हॉलों में राष्ट्रगान बजाने को लेकर अपना फैसला सुनाया. इसने भी उन्हें बेइंतहां खुशी पहुंचाई. बस बाद में यह हुआ कि जस्टिस मिश्रा को अपने ही फैसले को पलटना पड़ा! यह सिर्फ अतीत की बात नहीं है.
उनके इस प्रकट अतीत को देखते हुए कई लोग उनकी ओर इस उम्मीद में देख रहे हैं कि वे राम जन्मभूमि मामले में कोई ऐसा फैसला देंगे, जो वर्तमान शासकों को अगले चुनावों में बहुत बड़ी मदद पहुंचाने वाला साबित होगा.
लेकिन, दूसरे लोगों ने भी इन चार न्यायाधीशों की आलोचना सार्वजनिक तौर पर अपनी बात कहने के लिए की है. एक पूर्व जज ने तो यह तक कहा है कि इन पर महाभियोग लगाना चाहिए. कुछ लोगों ने उन पर जनता के बीच मैली चादर धोने के लिए उनकी आलोचना की है. उनका कहना है कि उन्हें इस मामले को सुप्रीम कोर्ट के अंदर ही रखना चाहिए था. इस बारे में आपकी क्या राय है?
लेकिन, उन्होंने मामले को सुप्रीम कोर्ट के भीतर ही रखा- यह बात चिट्ठी से स्पष्ट है. लेकिन जब उनके ऐसा करने से कोई परिणाम नहीं निकला, तब वे लोगों के सामने आए. और जहां तक ‘मैली चादर’ का सवाल है, तो मैं यह कहूंगा कि जब वे जनता के बीच ‘मैली चादर’ को धोने की बात करते हैं, तो वे काफी ढीले-ढाले रूप में पदों का इस्तेमाल करते हैं. वे कह रहे हैं कि चादर मैली है. यह चादर किसकी है?
निश्चित तौर पर यह चार जजों की नहीं है. ऐसी पदावलियों की चिंता मत कीजिए. सवाल है: उन्होंने जिन तथ्यों को उजागर किया है, और जो तथ्य उसके बाद से सामने आए हैं, वे सच्चे हैं या नहीं हैं? क्या किसी भी एक तथ्य के बारे में कहा जा सकता है कि वे ग़लत हैं?
चार मामलों से संबंधित कौन-सी बात है, जिस ओर आपका ध्यान सबसे ज़्यादा जाता है? लोया केस के बारे में, जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट का इसको लेकर रुख़ रहा? मेडिकल कॉलेज रिश्वतखोरी केस को लेकर? विभिन्न राजनीतिक दलों को किए गए कथित भुगतान को दिखाने वाली बिड़ला-सहारा डायरी को लेकर? और कालिखो पुल के सुसाइड नोट और इसको लेकर जिस तरह से न्यायपालिका का रुख़ रहा, उसको लेकर? क्या कोई ऐसा तार है, जो इन सभी मामलों से जुड़ा है?
दो चीजें हैं. आपने जिन मामलों का ज़िक्र किया, उनमें से दो मामले- बिरला-सहारा डायरी का और कालिखो पुल का मामला– ये दोनों यूपीए के शासकों के लिए गहरी दिलचस्पी वाले मामले थे. बिरला-सहारा डायरी और (जज) लोया का मामला वर्तमान शासकों के हिसाब से काफी व्यग्र करने वाली दिलचस्पी से भरा है. यही कारण है कि जनता को इस बात को लेकर काफी चौकस रहना चाहिए कि इन मामलों में क्या हो रहा है?
दूसरी बात, पुल का सुसाइड नोट और लोया का मामला और निश्चित तौर मेडिकल कॉलेज मामले का संबंध न्यायपालिका से है. इसी कारण मुझे यह उम्मीद थी कि जजों द्वारा इन्हें बेहद तफ़्सील के साथ सुना जाता. यह देखकर लोगों का मन बैठा जाता है कि ख़ुद न्यायपालिका से संबंधित इन केसों को लेकर भी इतनी मशक़्क़त बस इस बात के लिए करनी पड़ती है कि जज इन मामलों की ओर नज़र फेरें.
चीफ जस्टिस के ख़िलाफ़ प्रशांत भूषण की शिकायत के बारे में आपका क्या कहना है?
प्रशांत भूषण ने जो शिकायत दर्ज की है, वह पिछले काफी लंबे अरसे में मेरी नज़रों से गुज़रा हुआ सबसे उत्तेजक और सबसे साहसी दस्तावेज़ है. पिछले कई वर्षों में मैंने यह देखा है कि किस तरह से वकील, हमारे जैसे कई दूसरे पेशों से जुड़े लोगों की ही तरह, सार्वजनिक तौर पर वह बात कहने से कतराते हैं, जो वे निजी बातचीत में करते हैं.
वे ऐसा करने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हे इस बात का डर रहता है कि उन्हें कल उसी जज के सामने जाना होगा. प्रशांत भूषण ने न्यायपालिका के प्रति अपनी वफादारी को अपने निजी और पेशेवर हितों के ऊपर रखा. अपने देश के प्रति कर्तव्यों को निभाने का यही मतलब है.
आपको क्या लगता है, अब क्या करना चाहिए? आपने पहले कहा था कि यह सरकार सुनियोजित ढंग से संस्थाओं को कमज़ोर कर रही है. आपके हिसाब से वर्तमान परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायपालिका को किस तरह से बचाया जा सकता है? इसका नेतृत्व किसे करना चाहिए?
नेतृत्व निश्चित तौर पर मुख्य न्यायाधीश को करना चाहिए. और ऐसा करने के लिए उनके पास दो साधारण और सीधे तरीके हैं: पहला, उन्हें वरिष्ठतम जजों के साथ बैठना चाहिए और बेंचों के बीच कामकाज के आवंटन को लेकर न्यायोचित और पारदर्शी नियमों का निर्माण करना चाहिए.
दूसरा, उन्हें वह करना चाहिए जिसकी उम्मीद मैं किसी भी सम्माननीय व्यक्ति से करूंगा: उन्हें खुद पांच वरिष्ठतम जजों को प्रशांत भूषण के आरोपों की जांच जितनी तेज गति से संभव हो करने के लिए कहना चाहिए. और इसके निष्कर्षों को लोगों के सामने रखने के लिए कहना चाहिए.
इससे यह मामला समाप्त हो जाएगा. इससे संस्थान मजबूत हुआ होता. जिसे कई लोग ‘संकट’ की घड़ी के तौर पर देख रहे हैं, उसे इस तरह से सुधार के एक मौके के तौर पर बदल दिया गया होता.
ऐसा लगता है कि चुनावी जीतों ने नरेंद्र मोदी के इस नज़रिये को बल देने का काम किया है कि नीतियों और महत्वपूर्ण संस्थानों को लेकर उनका बेहद अवरोधकारी रवैया जायज़ है. उन्हें इतना ज़्यादा बल मिला है कि उनके अपने मंत्री खुलेआम यह कह रहे हैं कि ‘हम यहां संविधान बदलने के लिए आए हैं.’ आरएसएस का कहना है कि संविधान भारतीय संस्कृति/मूल्यों का प्रदर्शन नहीं करता है. आपको क्या लगता है, हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? क्या हम सर्वोच्च न्यापालिका के अवरोध को किसी बड़े प्रोजेक्ट का एक हिस्सा कह सकते हैं? आप पहले विधायिका पर नियंत्रण करते हैं, जो क़ानून का निर्माण करते है. फिर आप क़ानून के अंतिम व्याख्याता पर भी नियंत्रण करते हैं.
गुजरात प्रचार के दौरान उनकी जो बॉडी लैंग्वेज थी और जिस भाषा का उन्होंने इस्तेमाल किया, उससे ऐसा नहीं लगता है कि प्रधानमंत्री का साहस बढ़ गया है. मुझे वे थोड़े व्यग्र दिखाई देते हैं. कुछ भी हो, जिस तरह से समय तेज़ी से बीत रहा है, और जिस तरह से समस्याएं, जस की तस कायम हैं, बल्कि वे और बढ़ रही हैं- चाहे वह बैंकों की स्थिति हो या फिर ग्रामीण संकट हो- उन्हें वास्तव में चिंतित होना चाहिए.
और जहां तक ‘हम यहां भारत के संविधान को बदलने के लिए आए हैं’ या फिर जहां तक बड़े प्रोजेक्ट की बात है, मुझे नहीं पता आपको इस बात की जानकारी है या नहीं कि यही वे शब्द थे, यही वह शैली थी, जिसका प्रयोग पहले मुसोलिनी और बाद में हिटलर ने किया था! आप चाहें, तो मैं इसको लेकर आपको जितनी चाही सामग्री दे सकता हूं.
अतीत में जब संस्थानों पर हमले हुए, तब इंडियन एक्सप्रेस के संपादक के तौर पर आप लोकतंत्र की बहाली के लिए मीडिया की मुहिम का नेतृत्व करने वालों में से थे. आप उस समय की तुलना में आज के मीडिया को कैसे देखते हैं?
अपने दुख को बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. मीडिया शासकों के हाथों का औज़ार बन गया है: यहां तक कि एक अख़बार जो आज भी तथ्यों का प्रकाशन करता है, जो शासकों को असहज बना सकता है, उसे भी आज सावधानीपूर्वक संतुलन बना कर चलना पड़ रहा है और उसे ऐसे लोगों को, जिनके बारे में सबको पता है कि वे ख़ुद से एक शब्द भी नहीं लिख सकते हैं, इतना स्थान देना पड़ रहा है.
संतुलन साधने की ऐसी कोशिश से पता चलता है कि मीडिया पर कितना दबाव डाला जा रहा है. मैं पक्के तौर पर कह सकता हूं कि जब हम रामनाथ जी के इंडियन एक्सप्रेस मे थे, उस वक़्त अगर प्रशांत भूषण की शिकायत जैसा कोई दस्तावेज़ आया होता, तो हमने उसी दिन एक पूरा पन्ना उसे दिया होता और उस पूरे दस्तावेज़ को हमने छापा होता. इसलिए आज स्थापित मीडिया को निज़ाम के मीडिया के तौर पर देखा जाना चाहिए, जो कि निज़ाम का हिस्सा बना हुआ है.
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