डार्विन भारत वर्ष की सनातन परंपराओं का भी दुश्मन था. तभी उसने यहां के बाभन-ठाकुरों को भी बंदर की औलाद बताने की कोशिश की. जो डायरेक्ट ईश्वर के मुख से निकला हो उसे बंदर की संतान कहना तो स्वयं ईश्वर का ‘कन्टेम्प्ट’ (अवमानना) है. उम्मीद है इस अवमानना के जुर्म में ईश्वर डार्विन को उबलते तेल में खौला रहा होगा.
मैं बंदरों की तरफ से मोदी सरकार को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं. सरकार के राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने डार्विन को चुनौती देकर बंदरों के सिर पर पिछली दो सदियों से लगे इस कलंक को मिटाने की तरफ बड़ा क़दम उठाया है कि बंदर आदमियों के पूर्वज हैं.
बंदरों ने साफ़ शब्दों में कहा है कि वे किसी आदमी के पूर्वज नहीं हैं. सत्यपाल सिंह और उनके जैसी विभूतियों के तो कतई नहीं. बंदरों का दावा है कि बंदर ही नहीं बाकी सभी जानवरों में भी इस बात से लंबे समय से रोष व्याप्त है कि आदमियों की पैदाइश में उनका हाथ होने का मनगढंत आरोप उन पर लगाया गया है. आदमी अपनी हरकतों और हालात के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार है इसमें किसी जानवर का हाथ नहीं है.
बंदरों का मानना है कि डार्विन दुष्ट किस्म का आदमी था जो बंदरों से बैर रखता था. इसका कारण पक्के तौर पर नहीं मालूम लेकिन मुमकिन है कि उसे कभी किसी बंदर ने काट लिया हो. इसीलिए बंदरों को नीचा दिखाने के लिए उसने इतना बड़ा सिद्धांत गढ़ दिया कि बंदर आदमी के पूर्वज हैं.
बंदरों को जो ठेस इस सिद्धांत से पहुंची है उसका बयान करना मुश्किल है. बंदरों की शिकायत यह है कि इस सिद्धांत के प्रभाववश कुछ आदमी बंदर जैसा बनने की कोशिश करने लगे. इससे बंदरों की बड़ी बदनामी हुई है. काम आदमी करता है लांछन बंदरों पर लग जाता है.
बंदरों ने अपनी बात के समर्थन में सबूत भी दिए हैं. उनका कहना है कि रामायण में लंका में उत्पात मचाने और आग लगाने का जो ज़िक्र है वह असल में एक आदमी का काम था. लेकिन आरोप एक बंदर के सिर पर मढ़ दिया गया.
मैनें बंदरों को समाझाया कि वह चाहे बंदर के भेष में आदमी ही रहा हो, मगर राम का साथ देने के लिए देश में बंदरों की पूजा की जाती है. लेकिन बंदर मेरी बात से आश्वस्त नहीं हुए. उनका कहना था कि इस देश में जिसकी पूजा करने का दावा किया जाता है उसकी बड़ी दुर्गति की जाती है. औरतों का देखिए क्या हाल है यहां.
वैसे मैने अपनी तरफ से बंदरों को यह भी समझाने की कोशिश की है कि इस बात से बहुत से आदमी भी परेशान हुए हैं कि भला बंदर उनके पुरखे कैसे हो सकते हैं. अमेरिका और यूरोप में आज भी बहुत से आदमी बाइबिल की कहानियों को ही धरती पर जीवन की शुरुआत का प्रमाण मानते हैं.
जब यूरोप-अमेरिका वालों ने डार्विन को नहीं माना तो जगदगुरु भारतवर्ष के विद्वान व सूरमा कैसे मान लें. उनके ईश्वर ने उनको जैसे भी बनाया हो, लेकिन हमारे वाले ने तो ख़ुद अपने शरीर से हमें पैदा किया. कोई मुंह से निकला, तो कोई हाथ से, कोई जांघ से तो कोई पैर से.
जो जहां से निकला उसे वैसी ही जगह पर फिट किया गया. पैर से निकलने वालों को अलग और मुंह वाले को अलग. इसी सनातन व्यवस्था से भारत वर्ष टिका रहा.
लगता है डार्विन इस देश में अस्थिरता फैलाना चाहता था. बंदर को सबका पुरखा बताने का और क्या औचित्य हो सकता है.
बहुत सारे लोग उसकी बातों में आ गए. अगर लोग यह मान लेंगे कि सभी बंदर से ही निकले हैं तो एक ही जैसे होने की कपोल कल्पना करेंगे ही. बस लगे बराबरी-वराबरी का दावा करने. इसी से देश में इतनी अराजकता फैल गई है.
डार्विन भारत वर्ष की सनातन परंपराओं का भी दुश्मन था. तभी उसने यहां के बाभन-ठाकुरों को भी बंदर की औलाद बताने की कोशिश की. यह तो बड़ी बदमाशी है. जो डायरेक्ट ईश्वर के मुख से निकला हो उसे बंदर की संतान कहना तो स्वयं ईश्वर का ‘कन्टेम्प्ट’ (अवमानना) है. उम्मीद है इस अवमानना के जुर्म में ईश्वर डार्विन को उबलते तेल में खौला रहा होगा.
सत्यपाल सिंह ने अपने साहस से एक ही साथ बंदरों को भी उबार लिया और विश्वगुरुओं को भी.
मंत्री जी की बात एकदम ‘लॉजिकल’ है. अरे जो चीज़ किसी ने देखी ही नहीं उसे हम भला क्यों माने? डार्विन के पुरखे जब अंधकार युग में थे उस समय हमारे यहां एक-से-बढ़कर-एक ऋषि-मुनि जंगलों की खाक़ छाना करते थे और एक नज़र में भूत-भविष्य-वर्तमान सभी कुछ देख लेते थे. ऐसे पहुंचे हुए पुरखों ने भी कहीं बंदर को आदमी में बदलते नहीं देखा तो डार्विन ने कैसे देख लिया?
मंत्री जी ने यह भी बढ़िया बात कही कि जिस बात का ज़िक्र हमारे बाप-दादाओं की सुनाई गई किस्सों-कहानियों में भी नहीं था उसका यकीन कैसे करें. बिल्कुल सही बात है. पुरखों ने विकासवाद की कहानी नहीं बताई, इसलिए हम नहीं मानेंगे.
हमारे पुरखों की कहानियों में लोकतंत्र का भी ज़िक्र नहीं था. इसीलिए 70 साल से लोकतंत्र का जाप करके भी हम उसे ठेंगा दिखा रहे हैं. कोशिश यह है कि फालतू जाप भी न करना पड़े. उन कहानियों में “ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी” की ताड़ना की जाती थी. सो हम वह बखूबी कर रहे हैं.
मैंने यह बातें बंदरों को बताई. इस पर कुछ बंदरों ने बड़ा संतोष प्रकट किया है. वे इस बात की गवाही देने को भी राजी हो गए हैं कि बंदरों ने आदमी को जबसे धरती पर देखा है, तबसे वह आदमी जैसा ही दिखता है.
बंदरों ने मंत्री की इस बात का भी स्वागत किया है कि डार्विन के सिद्धांत को स्कूल-कॉलेजों की किताबों से निकाल देना चाहिए. उन्होंने यह आश्वासन भी दिया है कि ऐसी गंदी किताबों को नष्ट करने के लिए बंदर मंत्री महोदय का पूरा सहयोग करेंगे.
जिस वैदिक सम्मेलन के मंच से मंत्री जी ने यह बात कही कुछ बंदर उस सम्मेलन में भी भागीदारी करना चाहते हैं. और साथ ही, बंदरों ने मंत्री सत्यपाल सिंह का सार्वजनिक सम्मान करने की इच्छा भी प्रकट की है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं और भोपाल में रहते हैं.)