किसी बेरोज़गार के लिए दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम करने वाली कोई भी कमाई सांत्वना देने वाली होगी, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें गर्व का अनुभव नहीं कर सकते, न ही उन्हें करना चाहिए.
हां, मैं यह स्वीकार करता हूं कि हाल ही में प्रधानमंत्री के इस दावे से मुझे चोट पहुंची कि पकौड़े बेचकर हर रोज़ 200 रुपये कमाने वाला व्यक्ति भी रोज़गारमंद है. इससे भी चिंता में डालने वाला तथ्य यह है कि हमारे प्रधानमंत्री इस तरह के ‘रोज़गार’ को मुद्रा योजना की बड़ी क़ामयाबी के तौर पर पेश कर रहे हैं.
किसी बेरोज़गार व्यक्ति के लिए रोज़ाना 200 रुपये की मामूली कमाई करना भी राहत की बात हो सकती है और वह उसे पाने के लिए पूरी ताक़त लगा सकता है, लेकिन सरकार को स्वीकार करना चाहिए कि यह अल्प रोज़गार (अंडर इंपलॉयमेंट) की स्थिति है और यह कमाई गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए काफी नहीं है.
हक़ीक़त यह है कि अगस्त, 2017 में नीति आयोग द्वारा जारी किए गए अपने तीन वर्षीय एक्शन प्लान में अल्प रोज़गार को एक बड़ी चिंता के तौर पर रेखांकित किया गया था.
इसमें कहा गया था कि देश के सामने सबसे प्रमुख समस्या ‘बेरोज़गारी’ न होकर, ‘अल्प रोज़गार’ है और ‘आज ज़रूरत उच्च उत्पादकता और ज़्यादा वेतन वाली नौकरियों का सृजन करने की है.’
यह बेहद विचित्र स्थिति है कि जो चीज़ नीति आयोग के लिए सबसे बड़ी चिंता का सबब है, उसी को प्रधानमंत्री अपनी बड़ी क़ामयाबी के तौर पर पेश कर रहे हैं, क्योंकि आख़िर, नीति आयोग के प्रमुख तो ख़ुद प्रधानमंत्री ही हैं.
मुद्रा योजना, जिसके तहत (सार्वजनिक) बैंकों, निजी बैंकों और माइक्रो फाइनेंस संस्थानों द्वारा दिए जाने वाले सभी क़र्ज़ों को एक में मिला दिया गया और जो सभी क़र्ज़ों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करती है- ने पिछले तीन सालों में 10 करोड़ से ज़्यादा लाभार्थियों को क़र्ज़ वितरित किया है.
लेकिन, इनमें से करीब 90% लाभार्थियों को ‘शिशु’ श्रेणी के भीतर क़र्ज़े मिले हैं, जिसमें 50,000 रुपये से कम के ऋण दिए जाते हैं. ज़ाहिर है, करीब 9 करोड़ भारतीयों को मुहैया कराई गई निवेश की यह रकम काफी छोटी है. यह कल्पना करना बेमानी है कि इस रकम से रोज़गार के अच्छे मौकों का निर्माण हो सकता है.
यह चाहे कितना ही प्रभावशाली नज़र क्यों न आए, मुद्रा योजना के आंकड़ों को छात्र ऋण की पुनर्अदायगी न होने से संबंधित हालिया आंकड़े के साथ मिलाकर पढ़े जाने की भी ज़रूरत है.
द टाइम्स ऑफ इंडिया की एक ख़बर के अनुसार मार्च, 2015 से मार्च, 2017 के बीच निष्क्रिय शिक्षा ऋणों में 47% की वृद्धि हुई है और पिछले 5 वर्षों से डूबे हुए क़र्ज़े लगभग दोगुने हो गए हैं.
साफ़ है कि शिक्षा ऋणों की पुनर्अदायगी का न होना सीधे तौर पर अच्छी नौकरियों के सूख जाने का नतीजा है. ऐसे में जबकि उच्च शिक्षा की बड़ी कीमत को चुकाने के लिए शिक्षा ऋणों पर निर्भरता बढ़ती गई है, रोज़गार बाज़ार में छाए सन्नाटे ने एक ऐसे हालात को जन्म दिया है, जहां, युवाओं को अपने करिअर की शुरुआत में ही क़र्ज़ न चुका पाने के कलंक का सामना करना करना रहा है. ऐसा बाज़ार में पर्याप्त संख्या में रोज़गार न होने के कारण है.
कितने स्नातकों और ख़ासतौर पर शिक्षा ऋण लेने वालों में से कितने लोगों ने प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत क़र्ज़ लिया है, यह देखना दिलचस्प होगा. सरकार को आंकड़ों के साथ सामने आना चाहिए, ताकि देश में अल्प रोज़गार की वास्तविक स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सके.
साथ ही सरकार को नोटबंदी के बाद बेरोज़गार हो गए लोगों के संबंध में भी आंकड़ा उपलब्ध कराना चाहिए और यह बताना चाहिए कि इनमें से कितने लोगों ने कठिन समय में अपने जीवन की गाड़ी को खींचने के लिए मुद्रा ऋण का इस्तेमाल किया.
कम मूल्य वाले मुद्रा ऋणों के वितरण की सफलता को रोज़गार सृजन से जोड़कर प्रधानमंत्री वास्तव में रोज़गार निर्माण के लक्ष्यों में फेरबदल करना चाह रहे हैं.
मोदी सरकार की घोषित नीति सपने देखने वाले भारत के लिए उच्च मूल्य वाली नौकरियां सुनिश्चित करने की थी. इसने वादों के पुलिंदे और काफी प्रचार-प्रसार के साथ स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं की शुरुआत की थी.
अब जबकि सरकार अपने कार्यकाल के आख़िरी साल में प्रवेश करने वाली है और कुछ दिनों में उसका आख़िरी पूर्ण बजट आनेवाला है, इन योजनाओं का एक सही मूल्यांकन ही रोज़गार परिदृश्य के बारे में बेहतर तरीके से बता पाएगा.
मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक ‘स्टार्ट अप इंडिया’ के तहत स्टार्ट अप्स (नए उद्यमों) की वित्तीय मदद के लिए 10,000 करोड़ रुपये का फंड रखा गया था. लेकिन आज तक सिर्फ 75 स्टार्ट-अप्स की ही शुरुआत हो पाई है और अब तक इस के तहत महज़ 605 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ सरकारी स्टार्ट अप्स की ही रफ्तार धीमी है. प्राइवेट वेंचर कैपिटल फंडों और एंजेल निवेश भी तीन साल के सबसे निचले स्तर पर हैं.
स्टार्ट अप्स पर नज़र रखने वाले ट्रैक्सन के मुताबिक शुरुआती चरण की फंडिंग के लिए सौदों की संख्या भी 2014-16 के लिए 1700 फर्मों से घटकर 2017 के पहले दस महीने के लिए सिर्फ 482 रह गई.
2016 में जहां 6000 स्टार्ट-अप्स सामने आए वहीं, 2017 में इसकी संख्या घटकर सिर्फ 800 रह गई. हालांकि, स्टार्ट-अप्स में निवेश 4.6 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 8 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया, लेकिन, इसमें से 4.4 अबर डॉलर सिर्फ दो वेंचरों- फ्लिपकार्ट और पेटीएम के हिस्से में गया है.
साथ ही यहां यह दर्ज करना भी उपयोगी होगा कि यूपीए शासनकाल में भारत ने कई स्टार्ट-अप्स को बड़े कारोबार का रूप लेते हुए और उन्हें घर-घर प्रचलित नाम बनते देखा. पेटीएम, फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, अर्बन लैडर, पॉलिसी बाज़ार, जस्ट डायल, रेडबस और ज़ोमैटो ऐसे ही कुछ नाम हैं.
‘स्टैंड अप इंडिया’ ऐसी ही एक और महत्वाकांक्षी योजना है, जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने 2015 में लाल किले से की थी. यह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिला उद्यमियों को बढ़ावा देने के मक़सद से शुरू की गई एक अच्छी योजना थी.
इस योजना के तहत ग्रीनफील्ड वेंचर्स यानी नई परियोजनाओं को शुरू करने के लिए 10 लाख से एक करोड़ रुपये तक का ऋण दिया जाना था. इस कार्यक्रम को अमलीजामा पहनाने के लिए एक लाख से ज़्यादा बैंक शाखाओं और 17,000 सहायता केंद्रों का निर्धारण किया गया.
दिसंबर, 2017 तक की स्थिति की बात करें, तो इस योजना के तहत सिर्फ 35,000 लाभार्थियों को क़र्ज़े दिए गए थे, जिनकी कुल कीमत 5,658 करोड़ रुपये ठहरती है. जबकि इसके तहत प्रति बैंक कम से कम एक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिला को मदद करने का लक्ष्य रखा गया था.
‘मेक इन इंडिया’ की कल्पना एक और महत्वाकांक्षी परियोजना के रूप में की गई थी, जिसका लक्ष्य जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर) के योगदान को 16 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत करना था.
उम्मीद की गई थी कि यह निजी और रक्षा क्षेत्र में अच्छी नौकरियों का निर्माण करेगी. अब जबकि सरकार अपने आख़िरी वित्तीय वर्ष में प्रवेश कर रही है, ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम तय योजना के अनुरूप आगे नहीं बढ़ पाया है. सम्मिलित रूप से 3.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की कई परियोजनाएं अभी भी फाइलों में ही अटकी हुई हैं.
हालांकि, 2017 की तीसरी तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से आने वाली जीडीपी 2017 की दूसरी तिमाही के 5131.39 अरब रुपये की तुलना में बढ़कर 5355.42 अरब रुपये हो गई, लेकिन यह 25 प्रतिशत के लक्ष्य से मीलों दूर है.
रुकी हुई परियोजनाएं- सभी मैन्युफैक्चरिंग परियोजनाओं का 25 प्रतिशत हैं. रुकी हुई परियोजनाओं का मूल्य सितंबर, 2017 की इंडिया ब्रीफिंग की एक रिपोर्ट के मुताबिक 13.22 खरब रुपये था.
इसके साथ ही एक तथ्य यह भी है कि नोटबंदी और जीएसटी के दोषपूर्ण क्रियान्वयन के पूरे असर पर अध्ययन किया जाना अभी बाकी है.
सरकार की इन महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की असफलताओं ने ही संभवतः प्रधानमंत्री को एक बार फिर लक्ष्यों को बदलने के लिए मजबूर किया होगा. सरकार का लक्ष्य और उसकी सफलता अब ख़्वाब देखने वाले भारत की चिंताओं को दूर करने में नहीं रह गई है, बल्कि दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए काम भर की कमाई उपलब्ध कराने में सिमट गई है.
किसी बेरोज़गार के लिए- वह चाहे जिस कारण से बेरोज़गार हो, चाहे यह कारण नोटबंदी हो या वैश्विक संकट हो या मैन्युफैक्चरिंग और कृषि क्षेत्र में पर्याप्त वृद्धि न होना हो- दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम करने वाली कोई भी कमाई सांत्वना देने वाली होगी. लेकिन, भारत के प्रधानमंत्री इसमें गर्व का अनुभव नहीं कर सकते, न ही उन्हें करना चाहिए.
अल्प-रोज़गार अपने साथ सामाजिक और पारिवारिक संकट, स्वास्थ्य समस्याएं, शिक्षा के नुकसान आदि की आर्थिक कीमत लिए आता है और सरकार के मुखिया को इन सबके प्रति अनजान नहीं रहना चाहिए.
उनके पास यह सुविधा नहीं है कि वे अर्थव्यवस्था को सिर्फ़ एक साधारण बेरोज़गार नागरिक के चश्मे से देखें. यही कारण है कि मुद्रा (योजना) की सफलता खुद-ब-खुद भारत की अर्थव्यवस्था की सफलता में तब्दील नहीं होती और यही कारण है कि पकौडे़ बेच कर रोज़ 200 रुपये कमाने को एक सुखद स्थिति नहीं कहा जा सकता है.
(लेखक राज्यसभा टीवी के पूर्व सीईओ हैं.)