1857 की बग़ावत के सदमे से अंग्रेज़ कभी उबर नहीं सके. भारतीयों के दमन और अपने औपनिवेशिक लक्ष्यों को पूरा करने के उद्देश्य से उन्होंने पुलिस एक्ट, 1861 बनाया, जो आज भी वर्तमान पुलिस प्रणाली का आधार बना हुआ है.
हमारी अधिकांश प्रशासनिक और राजनीतिक संरचनाओं का निर्माण उस दौर में हुआ जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सूर्य अपने प्रताप पर था. वैचारिक और शारीरिक दोनों ही स्तरों पर कोई उन्हें चुनौती देने की स्थिति में न था.
1857 के विद्रोह को क्रूरता से कुचलने के बाद तो भारतीय समाज को देखने का उनका नजरिया पूरी तरह बदल गया था. उनके लिए हम पहले से ही ‘चीनी मिट्टी के बर्तनों में खाना खाने वाले गंवार देशी लोग’ थे. 1857 की बगावत के बाद उन्होंने यह भी मानना छोड़ दिया कि हम उदार और लोकतांत्रिक चरित्र की प्रशासनिक संस्थाओं को पाने लायक भी हैं.
रुडयार्ड किपलिंग की रचनाओं में औपनिवेशिक हुक्मरानों का चरित्र बड़ी तीव्रता से मुखर हुआ है. ‘द टॉम्ब ऑफ हिज़ एन्सेस्टर्स’ में उसने लिखा कि यह एशियाई समाजों की दिक्कत है कि वो ‘बिना नंगी तलवार देखे किसी कानून का पालन नहीं करते’.
‘द रिडल ऑफ द एम्पायर’ में किपलिंग ने लिखा ‘इन समाजों में हमारे आने से पहले चारों ओर हत्या, यातना और खून-खराबे का माहौल था’ और अंग्रेजों ने यहां आकर इस तरह के समाजों पर उपकार किया था. ऐसा कहने वाले रुडयार्ड किपलिंग कोई अकेले शख्स नहीं थे.
ब्रिटिश लेखकों,पत्रकारों और नौकरशाहों की एक बहुत बड़ी जमात थी जो भारतीय समाज को एक ‘जड़, अशिक्षित और मूर्खों से भरा हुआ मानकर’ ही इस देश के लिए कानूनों की वकालत करती थी. लॉर्ड कर्ज़न, किचनर, मॉड डाइवर, फ्लोरा एनी स्टील, साराह डंकन जैसे तमाम नौकरशाह और लेखक इस जमात का हिस्सा थे जो दिन रात ब्रिटिश साम्राज्यवादी मंसूबों को जायज और न्यायोचित ठहराते थे.
फ्लोरा एनी स्टील तो इस देश में साम्राज्यवाद के हक में ऐसी बेढंग दलीलों का इस्तेमाल करती थीं कि एक साधारण मेधा का व्यक्ति भी उनके विचारों को सुनकर तिलमिला जाए.
बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में उन्होंने लिखा, ‘इस देश में ऐसी बहुत कम खूबियां हैं जिनके आधार पर किसी को यहां आने की सिफारिश की जाए. यहां के लोग न तो खूबसूरत हैं और न वह सामाजिक मेल-मिलाप में यकीन रखते हैं. मैं यहां रहकर अब समझ सकती हूं कि क्यों बाबर इस देश में दाखिल होते ही हताश हुआ होगा! उसे दूर तक फैली हुई रेत और कीकर के पेड़ों के अलावा कुछ नजर नहीं आया होगा या फिर उसे एक कौआ दिखा होगा जो उसे यह बताना चाहता होगा कि वह जितना काला बाहर से है उतना ही भीतर से.’
यह था ब्रिटिश साम्राज्यवाद की घृणा का वह मनोविज्ञान, जो इस देश में उनके अवचेतन मन का निर्माण करता था और इसी अवचेतन की उपस्थित में वह हमारे लिए कानून बनाते थे. हालांकि इन सबके बीच में ईएम फॉस्टर,सीएफ एंड्रयूज़ और एडवर्ड थॉमसन जैसे कुछ विरले अंग्रेज ही थे, जो औपनिवेशिक सत्ता के इस घृणित और अतार्किक स्वरूप से असहजता और बेचैनी महसूस करते थे.
गुलाम भारत के बड़े नौकरशाहों पर,जो अक्सर युवा ब्रिटिश अधिकारी के तौर पर इस देश को अपनी ‘सेवाएं’ देते थे रुडयार्ड किपलिंग का गहरा प्रभाव था. एडमंड कैंडलर ने ‘यूथ एंड द ईस्ट’ में लिखा कि उनकी पीढ़ी के नौकरशाहों ने रुडयार्ड किपलिंग से बहुत कुछ सीखा था.
इन नौकरशाहों में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे. पुलिस ‘कप्तान’ थे. ये दोनों मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य का ‘इस्पात फ्रेम’ बनाते थे जो हर तरह की चुनौतियों से उसे महफूज रखता था. अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट प्रशासन का हेड था जो ब्रिटिश भारत में सैकड़ों मीलों में फैले जिलों को एक मुख्यालय में बैठकर चलाता था.
उसकी भूमिका एक ऐसे ‘सर्वशक्तिमान’ और ‘सर्वज्ञ’ के रूप में परिकल्पित की गई थी जिसके बिना इस देश को चलाना मुश्किल था. आरजी गार्डन, क्लॉड हिल, टॉमस व्हाइट के लेखों में यह कहा जाता था कि यह सिविल सर्विस ही थी जिसने साम्राज्य को संभाला हुआ था.
फिलिप मेसन ने अपनी किताब द मेन हू रूल्ड इंडिया में लिखा है,
‘The young district Magistrate in a lonely district is monarch of all. He surveys and can be as UnEnglish as he likes, provided he has sense enough to keep his ebullience out of his fortnightly reports.’
ठीक इसी तरह ब्रिटिश भारत में पुलिस की संरचना बनाई गई. इसमें दोराय नहीं कि ब्रिटिश पुलिस ने आधुनिक दंड-संहिता के आधार पर कानून व्यवस्था बनाए रखी और समाज को एक हद तक स्थिरता प्रदान की, लेकिन यह स्वीकार कर लेना कि ब्रिटिश पुलिस तत्कालीन परिस्थितियों में एक आदर्श मॉडल थी, पूरी तरह अनैतिहासिक होगा जैसा कि कुछ लोग आज भी मानते हैं.
ब्रिटिश पुलिस और भारतीय जनमानस के संबंध कई स्तर पर बड़े उलझन भरे होते थे. फिलिप मेसन ने बीसवीं सदी के दूसरे दशक में डाकू सुल्ताना को अंग्रेज पुलिस अधिकारी फ्रेडी यंग द्वारा पकड़ लिए जाने और फिर उसे फांसी दिए जाने के संदर्भ में आमजन समाज की प्रतिक्रियाओं का बड़ा दिलचस्प विवरण दिया है.
द मेन हू रूल्ड इंडिया में उन्होंने लिखा,
‘Sultana was hunted down and caught by a policeman whom everyone knew as Freddy young. There was a play called sultana Daku, a favourite at fairs all through northern India, in which at first Freddy young was the avenging hero and the crowd would cheered when the villainous Sultana was brought to book. But as the play was repeated year by year the parts were reversed, until Sultana was the hero, a gallant Robin Hood who befriended the poor and robbed the English while Freddy became the comic villain, fat and cowardly, continually calling for whiskey.’
(सुल्ताना को फ्रेडी यंग नाम के एक पुलिस कर्मी ने पकड़ा था. उत्तर भारत के मेलों में एक बहुत पसंद किया जाने वाला नाटक होता था, सुल्ताना डाकू, उसमें पहले-पहल फ्रेडी यंग एक बदला लेने वाला हीरो था और जब वह विलेन सुल्ताना को पकड़ता था, तब भीड़ खूब उत्साहित हो जाती थी. लेकिन जैसे-जैसे साल दर साल इसे बार-बार किया जाने लगा, कुछ भूमिकाएं उलट गयीं. फिर सुल्ताना एक बहादुर हीरो था, जो रॉबिनहुड की तरह अंग्रेजों को लूटता था और गरीबों का दोस्त था, वहीं फ्रेडी एक मोटा, डरपोक और हंसोड़ खलनायक बन गया, जो लगातार व्हिस्की मांगता रहता था.)
उपरोक्त उद्धरण औपनिवेशिक हुक्मरानों और उनसे प्रशासित होने वाली आम जनता के बीच की मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक उलझनों पर रोशनी डालता है लेकिन 1857 के विद्रोह के उपरांत जिस तरह की पुलिस ब्रिटिश हमें देना चाहते थे, उस पर भी उनके साम्राज्यवादी मंसूबों, नस्ली श्रेष्ठता और औपनिवेशिक जरूरतों की छाया साफ देखी जा सकती है.
1857 के विद्रोह के ठीक चार साल बाद अंग्रेजों ने भारतीय पुलिस को नियमित करने के लिए 1861 का पुलिस एक्ट बनाया. अंग्रेज स्वतंत्रता लिए की गई इस पहली बगावत के सदमे से कभी भी नहीं उबर सके. अब उनका एक ही उद्देश्य था- भारतीय समाज में मौजूद विघटनकारी तत्वों को पहचानकर उस दरार को और चौड़ा करना ताकि वह आसानी से अपने औपनिवेशिक लक्ष्यों को पूरा कर सकें.
उनके प्रशासनिक ढांचे में इन विघटनकारी तत्वों को उसी मानसिकता के तहत स्थान दिया गया. 1861 का पुलिस एक्ट जो उत्तर प्रदेश सहित आज भी देश के कुछ सूबों में वर्तमान पुलिस प्रणाली का आधार बना हुआ है, इसका प्रमाण है.
अवध और तत्कालीन नॉर्थ वेस्ट प्रोविंस (आज का उत्तर प्रदेश) में पुलिस के ढांचे के निर्माण में उनकी मानसिकता क्या थी, इसका उदाहरण 1872 की एक रिपोर्ट (पुलिस प्रशासन रिपोर्ट; पृष्ठ 20,स्टेटमेंट 1872) है जिसमें कहा गया कि निचले पदों पर पुलिस की नियुक्तियों में ‘जाति’ का पूरा ध्यान रखा जाए.
इस रिपोर्ट के पृष्ठ 17 पर ऐसी 23 जातियों को चिन्हित किया गया है जिनके बारे में निर्देश था कि ‘यथासंभव उन्हें पुलिस में न लिया जाए’. इसके साथ ही कुछ ऐसी जातियों का भी उल्लेख है जिनको पुलिस भर्ती में प्रमुखता दी जाए.
यह रिपोर्ट कुछ अन्य प्रतिबंधों की भी संकल्पना करती है. मुसलमान, कुल भर्ती होने वाली संख्या के एक तिहाई से अधिक न हों. आर्म्ड पुलिस में कम से कम 10 प्रतिशत सिख, गोरखा, पहाड़ी अवश्य रहें. पुनः 1890 में काए पुलिस कमेटी ने इस सिद्धांत को अनुमोदित किया कि पुलिस में भर्तियों के लिए इस नीति को बनाये रखा जाए.
उक्त उदाहरण यह साबित करते हैं कि 1857 के बाद ब्रिटिश हुक्मरानों की सोच उन सामंती सामाजिक संबंधों को प्रशासन में भी बनाये रखने की थी जो समाज के निचले धरातल पर मौजूद थे. इसी विचारधारा की प्रतिच्छाया उस दौर के सभी कानूनों पर दिखती है. 1861 के पुलिस एक्ट को इसी औपनिवेशिक संदर्भ में समझा जाना चाहिए.
1861 के पुलिस एक्ट की धारा 23 में पुलिस अधिकारी के कर्तव्यों का वर्णन है. इसके अनुसार पुलिस अधिकारी का पहला कर्तव्य है- ‘विधि-पूर्ण तरीके से और सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी सभी आदेशों का पालन.’ यह एक ऐसी ड्यूटी थी जिसकी अंग्रेजों को सबसे ज्यादा जरूरत थी.
दूसरी ड्यूटी थी ‘गुप्त सूचनाओं का संग्रह’. स्वतंत्रता संग्राम के दौर में अंग्रेजों द्वारा पुलिस से यह अपेक्षा स्वाभाविक ही थी. इसके बाद तीसरे स्थान पर पुलिस द्वारा ‘अपराधों को रोकने’ का उल्लेख है. यह तथ्य दर्शाता है कि जो पुलिस का बुनियादी काम था,वह ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए तीसरे स्थान पर था.
1861 के इस पूरे अधिनियम की बनावट कुछ इस तरह की है कि उससे जनता के प्रति पुलिस की न जबाबदेही सुनिश्चित होती है और न ही पुलिस आपराधिक न्याय तंत्र में बिना किसी वाह्य दबाव के समुचित स्वायत्तता के साथ खड़ी दिखती है.
हैरानी की बात यह है कि पूरे देश में 1861 के इस एक्ट के आधार पर पुलिस संरचना को खड़ा करने वाले ब्रिटिश प्रशासकों ने देश के तीन शहरों- कोलकाता, मुम्बई, मद्रास में जो उनके औपनिवेशिक हितों को सहजतापूर्वक चलाने वाले प्रशासनिक केंद्र थे, में लंदन मेट्रोपोलिटन पुलिस की तर्ज पर पुलिस संगठन को खड़ा किया और वहां पुलिस आयुक्त प्रणाली को अधिक मुफीद पाया.
पुलिस सुधारों की दिशा में 1861 का पुलिस एक्ट एक बहुत बड़ी बाधा रहा है. इस एक्ट को बदलने और इसके स्थान पर नई लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को व्यक्त करने वाले विधायन की मांग समय समय पर होती रही है.
1977 से 1981 के मध्य राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पुलिस को अधिक जबाबदेह बनाने और उसे अधिक कार्यकारी शक्तियां प्रदान करने के लिए सिफारिशें प्रस्तुत कीं. उसके बाद कई आयोग और कमेटियां गठित हुईं. 1998 में रिबेरो कमेटी, 2000 में पद्मनभैया कमेटी, 2003 में मलिमथ कमेटी, 2005 में पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की अध्यक्षता में गठित मॉडल पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी, 2007 में गठित द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग.
इन सभी आयोगों और कमेटियों ने सामान्य रूप से इस बात पर सहमति जताई है कि पुलिस की संरचना में खासतौर से बड़ी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में बुनियादी बदलाव की जरूरत है. 2006 में उत्तर प्रदेश के सेवानिवृत पुलिस महानिदेशक श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस सुधारों पर एक ऐतिहासिक निर्णय दिया.
2006 में सोली सोराबजी की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने 1861 के पुलिस एक्ट को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से एक ‘मॉडल पुलिस एक्ट’ प्रस्तावित किया. इस नए एक्ट के आधार पर देश के 17 राज्यों ने 1861 के पुलिस एक्ट को छोड़कर नए पुलिस रेगुलेशन बनाये हैं.
उत्तर प्रदेश में यह लागू नहीं हुआ है. इस कमेटी ने यह सुझाव भी दिया है कि 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरी क्षेत्रों में पुलिस आयुक्त प्रणाली को स्थापित करने पर विचार किया जाए. पुलिस के विरुद्ध शिकायतें प्राप्त होने और उन पर कार्यवाही के लिए प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ में सर्वोच्च न्यायालय ने हर स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाने का निर्देश दिया है ताकि ऐसी शिकायतों पर निष्पक्षतापूर्वक कार्यवाही की जा सके.
जवाबदेही और कार्यकारी स्वायत्तता में संतुलन की खोज, वस्तुतः एक ऐसा मुद्दा रहा है जिस पर समय-समय पर सरकारों से लेकर माननीय न्यायालयों ने बड़ी गहराई से विचार किया है और पुलिस सुधारों को एक बड़ी समकालीन जरूरत बताया है.
कानून के शासन को किसी भी आधुनिक समाज की सबसे बड़ी चारित्रिक विशेषता माना गया है. कानून के शासन को शब्द और आचरण दोनों ही के स्तर पर कार्यान्वित करने के लिए पुलिस सुधारों की दिशा में अग्रसर होना एक सामयिक जरूरत है.
पुलिस को औपनिवेशिक कालखंड के कानूनों और उस दौर के कानूनों में लिपटी विचारधारा से बाहर खींच कर लाना आसान नहीं है. कानून के राज्य की संकल्पना की जड़ में यही बात निहित है कि कानून का पहिया बिना किसी की ‘हैसियत’ देखे समान रूप से घूमे और जब वह घूमे तो उसके तीक्ष्ण नुकीले दांते गरीब और अमीर के फर्क को भूल जाएं. लेकिन यह अक्सर होता नहीं दिखता.
हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी के एक नामचीन स्कूल में एक बच्चे का कत्ल हुआ. स्थानीय पुलिस ने स्कूल की एक बस के कंडक्टर को दबोचकर पर्दाफाश कर दिया. बाद में सच्चाई कुछ और निकली. यह तो एक घटना थी जो दिल्ली के पास घटित होने के कारण चर्चा में रही.
पुलिस को यदि सुधारों की नई दिशा में अग्रसर होना है तो वह केवल अपनी शक्तियों की बढ़ोत्तरी के परिप्रेक्ष्य में नहीं हो सकता. उसे गैर-जरूरी और अनुचित राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेपों के अन्यायपूर्ण भंवर-चक्रों से भी बाहर निकलना होगा. उसे सच का हाथ मजबूत करना होगा. उसकी आवाज बनना होगा.
प्रगतिशील कविता के पुरोधा केदारनाथ अग्रवाल जो बांदा में एक वकील भी थे, ने अपनी एक कविता में इस विरोधाभास को इस तरह अभिव्यक्त किया था:
‘सच ने
जीभ नहीं पायी है
वह बोले तो कैसे
असली बात कहे तो कैसे
सच जीते तो कैसे
न्याय मिले तो कैसे
असली का नकली हो जाता
नकली का असली हो जाता
न्याय नहीं हंसा कर पाता
नीर-क्षीर विलगे तो कैसे
सच की साख जमे तो कैसे’
‘सच की साख’ पुलिस की साख से जुड़ी है. इसे गिरने से रोकना पुलिस की सबसे बड़ी चुनौती है. आखिर यही हमारा ध्येय वाक्य भी तो ठहरा- सत्यमेव जयते.
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा में उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं.)