साल 2005 में दिल्ली बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार किए गए कश्मीर के मोहम्मद रफीक़ शाह को अदालत ने 12 साल बाद बरी कर दिया. अब वे कश्मीर में अपने परिवार के साथ रह रहे हैं.
साल 2005 में अक्टूबर की उस सर्द रात को मोहम्मद रफीक़ शाह की किताबें तब तक खुली ही थीं जब तक कि उनकी मां ने उन्हें उठाकर आलमारी में नहीं रख दिया.
रफीक़ को जब पुलिस ने गिरफ्तार किया तो वे इन्हीं किताबों को पढ़ रहे थे. श्रीनगर के बाहरी इलाके में स्थित रफीक़ के घर में उस रात सब कुछ इतना अचानक हुआ था कि किसी को कुछ समझ में ही नहीं आया था.
उस वक़्त रफीक़ सिर्फ़ 25 साल के थे और अब उनकी उम्र 37 साल हो चुकी है. वह उन किताबों को फिर से पढ़ना चाहते हैं जो घर पर ही छूट गए थे. बीते 16 फरवरी को रफीक़ को दिल्ली की अदालत ने बरी कर दिया. रफीक़ पिछले 12 साल से जेल में थे. उन्हें साल 2005 में दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के संबंध में गिरफ्तार किया गया था.
पिछले महीने की 22 तारीख़ को रफीक़ अपने घर कश्मीर लौट गए हैं. घर लौटने पर वह उन्हीं कमरे में सोए जहां से पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था. उनकी गिरफ्तारी के बाद उनके ग़मगीन अम्मी-अब्बू ने उस कमरे को बंद ही रखा था.
रफीक़ कहते हैं, ‘मैं अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करने के साथ पीएचडी के लिए आवेदन करूंगा. जब मैं जेल में था तो मेरे साथ पढ़ने वालों ने आगे की पढ़ाई की, कुछ ने पीएचडी भी कर ली और अब नौकरी कर रहे हैं.’
साल 2005 में वह कश्मीर विश्वविद्यालय के इस्लामिक स्टडीज़ विभाग में एमए फाइनल ईयर के छात्र थे. उस वक़्त वह आख़िरी सेमेस्टर के इम्तिहान की तैयारी कर रहे थे. रफीक़ ज़ोर देकर कहते हैं कि गिरफ्तारी से पहले वह किसी कश्मीरी छात्र की ही तरह थे. जो अपनी पढ़ाई करता था और कश्मीर के बारे में सोचता था.
वे कहते हैं, ‘जब भी यहां के लोगों के साथ अत्याचार होता है तो हम स्वाभाविक रूप से इसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करते थे और कैंपस में शांतिपूर्ण विरोध दर्ज़ कराते थे.
उस दिनों की याद करते हुए रफीक़ कहते हैं, ‘मेरे अतीत के बारे में छानबीन करने के लिए 2005 में पुलिस कई बार मेरे घर आई थी.’
कश्मीर के बाहरी इलाके में स्थित शुहामा के अपने घर में वह अपने बूढ़े हो चुके पिता के साथ हैं. उनसे मिलने के लिए उसके दोस्त और रिश्तेदार आते रहते हैं. वे अब उस व्यक्ति को गले लगाते हैं जिन्हें वे एक युवा के रूप में जानते थे.
उनके घर आने वाले पत्रकार उनसे तरह-तरह के लंबे सवाल पूछते हैं. ये पत्रकार उनसे जेल में बिताए गए 12 सालों का ब्योरा उनसे चाहते हैं. रफीक़ कम शब्दों में इन सवालों के जवाब देते हैं. ये जवाब कई बार बेहत दार्शनिकता लिए हुए होते हैं. जवाब में वे अक्सर उर्दू के शेर भी पढ़ देते हैं.
रफीक़ ने एक फाइल बना रखी है. इसमें उन्होंने अपने केस से जुड़े दस्तावेज़, अदालत की ओर से जारी ख़ुद के बरी होने के आदेश की कॉपी के अलावा दिल्ली बम धमाकों में उनकी कथित संलिप्तता और गिरफ्तारी से जुड़ी अख़बारों की ख़बरों की कटिंग रखी है.
इसमें 10 दिसंबर, 2005 को अंग्रेज़ी के हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार की ख़बर की कटिंग भी हैं, जिसमें बड़े अक्षरों में लिखा है, ‘दिस इज़ द 29/10 बॉम्बर.’ यह रिपोर्ट कहती है कि शाह लश्कर-ए-तैयबा के बड़े स्तर का सक्रिय कार्यकर्ता है, जिसने 29 अक्तूबर को डीटीसी बस में बम रखा था.
रिपोर्ट में रफीक़ की एक फोटो और ग्राफिक्स लगाई गई है. ग्राफिक्स में उस दिन रफीक़ ने क्या पहना था, ये दर्शाया गया था. रिपोर्ट में कहा गया था कि उस दिन उन्होंने स्लेटी रंग के पट्टे वाली सफेद सूती शर्ट, स्लेटी रंग की पैंट और सैंडल पहनी थी. इसके अलावा वह एक बैग लिए हुए थे जिसमें बम रखा गया था.
रफीक़ और मामले में दूसरे आरोपी मोहम्मद हुसैन फज़िली को आरोपमुक्त करते हुए दिल्ली की अदालज ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में ‘बुरी तरह’ विफल रहा है कि रफीक़ डीटीसी बस में बम रखने में शामिल थे.
रफीक़ कहते हैं, ‘जो भी मेरे साथ हुआ वह किसी और के साथ नहीं होना चाहिए. जिन 12 सालों को मैंने जेल में गुज़ारा हैं वे अब कभी लौटकर नहीं आएंगे.’ गिरफ्तारी के बाद रफीक़ को दिल्ली के तमाम पुलिस थानों में रखा गया. वे कहते हैं कि तिहाड़ जेल की उच्च सुरक्षा वाली बैरक में शिफ्ट होने तक उन्हें बुरी तरीके से यातनाएं दी गईं.
वे कहते हैं, ‘गवाहों से पूछताछ में काफी वक़्त लगा. कई बार महीनों और सालों लग गए. इस बार हर बार अगली सुनवाई तक के लिए मुझे जेल भेज दिया जाया करता था.’
उसकी अम्मी-अब्बू घर बंद कर हर दूसरे या तीसरे महीने उनसे मिलने दिल्ली आया करते थे. रफीक़ के पिता मोहम्मद यासीन कहते हैं, ‘सिर्फ़ हम ही जानता हैं कि इन 12 सालों में हमने कितना दर्द और तकलीफें सही हैं. लेकिन हमें अल्लाह पर पूरा भरोसा था और हम यह जानते थे कि हमारा बेटा बेगुनाह है.’
इस बीच शाह की मां का एक बड़ा-सा ऑपरेशन भी हुआ. यासीन कहते हैं कि वह अक्सर बीमार रहती थीं, अपनी औलाद के ग़म में रोती रहती थीं और उसके जेल से रिहा होने की राह देखा करती थी.
अपने अम्मी-अब्बू की तकलीफों को याद करते हैं. उन्हें सबसे ज्यादा अफ़सोस इस बात पर होता है जब वह जेल में गुज़ारे गए सालों को याद करते हैं. वह कहते हैं, ‘जेल में मैंने जो कीमती वक्त गंवाया… इन सालों के दौरान मेरे अब्बू और अम्मी ने जो तकलीफें सहीं उनका मुझे बेहद अफसोस होता है.’
क्या उन्हें सरकार से कोई उम्मीद है? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘मुझे किसी तरह का मुआवज़ा या भत्ता नहीं चाहिए. कोई भी मेरी ज़िंदगी के वो 12 साल नहीं लौटा सकता जिन्हें मैंने जेल की सलाख़ों के पीछे गंवा दिए. हमारे यहां व्यवस्था तो है लेकिन ये न्यायपूर्ण नहीं है. न्याय में देरी का मतलब न्याय से वंचित रखना है.’
अपनी मोटी फाइल में रफीक़ ने अपनी रोल नंबर की स्लिप और कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति और प्रोफेसरों के लिखे ख़त भी संजों कर रखे हैं.
रफीक़ की बेगुनाही साबित करने वाले रोल नंबर स्लिप, उन ख़तों की कॉपी और 2005 में विश्वविद्यालय से मिले रिकॉर्ड को दिखाते हुए उनके पिता यासीन कहते हैं, ‘उसके प्रोफेसरों ने हमें लिखित में दिया था कि दिल्ली में धमाकों के दिन रफीक़ कैंपस में ही था.’
जेल में रहते हुए और कोर्ट में सुनवाई के दौरान रफीक़ ने इस्लामिक स्टडीज़ में एमए कर लिया है. एमए फाइनल के इम्तिहान में शामिल होने के लिए साल 2010 में उन्हें श्रीनगर सेंट्रल जेल में शिफ्ट कर दिया गया था.
अब वह क्या करना चाहते हैं? इसके जवाब में वे बस इतना कहते हैं, थोड़ा-सी पढ़ाई के साथ फिर से शुरुआत करना चाहता हूं. और कुछ ऐसा करना चाहता हूं ताकि मानवता के काम आ सकूं.’
29 अक्टूबर, 2005 को दिवाली से ठीक एक दिन पहले राजधानी दिल्ली में तीन अलग-अलग जगहों पर बम धमाके हुए थे. पहला धमाका पहाड़गंज के मुख्य बाज़ार जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के नज़दीक है, में हुआ था.
दूसरा धमाका गोविंदपुरी इलाके में डीटीसी की एक बस में हुआ. तीसरा धमाका दक्षिणी दिल्ली के सरोजनी नगर इलाके में हुआ था. तीनों धमाके शाम 5:38 से 6:05 बजे के बीच हुए. इन धमाकों में 62 लोगों की जान चली गई थी और 210 लोग घायल हो गए थे.