‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’, क़रीब ढाई दशक पहले उत्तर प्रदेश में भाजपा का रथ रोकने वाला नारा क्या फिर से सुनाई दे सकता है?
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के ठीक पहले किसी दल को बहुमत न मिलने पर सपा और बसपा के गठबंधन की भी चर्चा हो रही है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद ज़्यादातर एक्जिट पोल सर्वे में कहा गया है कि भाजपा या तो बहुमत ला रही है या फिर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी. इसी बीच मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने संकेत दिया है कि अगर ज़रूरत पड़ेगी तो वे बहुजन समाज पार्टी के साथ जा सकते हैं.
अखिलेश यादव से बातचीत के आधार पर बीबीसी हिंदी ने लिखा है, ‘यदि उन्हें या किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलता है तो वो प्रदेश में कम-से-कम राष्ट्रपति शासन नहीं चाहेंगे. उनके इस बयान को चुनाव परिणामों के बाद आवश्यकता पड़ने पर मायावती से हाथ मिलाने की संभावना को खुला रखने के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है. अखिलेश यादव से सवाल किया गया- यूपी में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में समाजवादी पार्टी की रणनीति क्या होगी? इस पर अखिलेश का कहना था, ‘हां अगर सरकार के लिए ज़रूरत पड़ेगी तो राष्ट्रपति शासन कोई नहीं चाहेगा. हम नहीं चाहते कि यूपी को बीजेपी रिमोट कंट्रोल से चलाए.’
यह बात ग़ौर करने की है कि पूरे चुनाव प्रचार में अखिलेश मायावती को बुआ कहकर उन पर हमला करते रहे तो मायावती उन्हें बबुआ संबोधित करती रहीं. लेकिन दोनों में ख़ास तल्ख़ी देखने को नहीं मिली. अब अखिलेश ने गठबंधन का इशारा करके यूपी में एक नये राजनीतिक समीकरण की संभावना को जन्म दे दिया है.
हालांकि, बसपा की तरफ से अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं आया है. उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा एक-दूसरे के मुख्य विरोधी हैं. सपा सत्ता में है तो मुख्य विपक्ष बसपा है. जब बसपा सत्ता में थी तब मुख्य विपक्ष सपा थी. हालांकि, सपा और बसपा अपनी राजनीति की शुरुआत में साथ रह चुके हैं. मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया था. पार्टी बनाने के एक साल बाद चुनाव हुए तो सपा और बसपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा और सरकार बनाई. हालांकि, मई,1995 में बसपा ने सपा सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई.
इसके बाद ‘गेस्टहाउस कांड’ में सपाइयों ने मायावती पर हमला कर दिया और दोनों दलों की सियासी दुश्मनी निजी दुश्मनी में तब्दील हो गई थी. सपा और बसपा के अलगाव के बाद दोनों पार्टियां यूपी की राजनीति का दो ध्रुव बन गईं. दोनों दलों के उभार के बाद भाजपा कुछ समय के लिए ज़रूर यूपी में मज़बूत रही है, लेकिन पिछले एक दशक से बसपा और सपा का ही प्रभाव रहा है. भाजपा और कांग्रेस के लिए यह दोनों दल तगड़ी चुनौती हैं.
किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने पर क्या सपा-बसपा साथ आएंगे? इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘अगर ऐसा होगा तो 20-22 साल बाद यह परिवर्तन होगा. 1993 में नारा लगा था ‘मिले मुलायम काशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’. सपा और बसपा ने पिछड़ों और दलितों की एकता क़ायम करके देश में एक सामाजिक क्रांति को अंजाम दिया था. यह क्रांति वाकई बहुत भूकंपकारी थी. उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता का जो प्रचंड उभार था, उसे दोनों दलों ने मिलकर रोक दिया था. इन पार्टियों के साथ ब्राह्मणवादी सांप्रदायिक ताक़तों का अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था कि अगर यह गठबंधन एक आदर्श के रूप में देश में चलता है तो सवर्ण नेतृत्व या मानसिकता वाले दलों की स्थिति बहुत ख़राब होगी. फिर इस गठबंधन को तोड़ा गया. सवर्ण राजनीति यह कभी पसंद नहीं करेगी कि दलित और पिछड़े मिलकर किसी बड़े बदलावा को अंजाम दें. लेकिन अगर ऐसा होता है तो पूरा परिदृश्य बदल जाएगा.’
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक और समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार पोल सर्वे के आधार पर किसी अटकल पर चर्चा करने के प्रति आगाह करते हैं. वे सवाल करते हैं, ‘सबसे बड़ा सवाल है कि पोल सर्वे में वह कौन सा ऐसा फार्मूला है जो वोट पर्सेंट को सीट में बदलता है? मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं. जब तक इस फार्मूले के बारे में पता न चले, तब तक इसे झूठ ही माना जाए. यह झूठ कब तक चलेगा? इसका कोई मैकेनिज़म है ही नहीं. दुनिया के किसी विश्वविद्यालय में ऐसी कोई तकनीक, कोई पद्धति, कोई फार्मूला नहीं विकसित हुआ है जो चुनावी सर्वे में वोट प्रतिशत को सीट में बदल दे. यह विधा किसी विश्वविद्यालय में नहीं है. यह आई कहां से?’
पिछड़ी और दलित एकता के फार्मूले को आगे बढ़ाने के सवाल पर अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘दक्षिण में यह प्रयोग काफी पहले हो चुका है. उत्तर प्रदेश कई मामलों में दक्षिण में हो चुके प्रयोगों को दोहराता है. जैसे घोषणा पत्रों में तमाम सुविधाएं बांटने की घोषणा. यह जयललिता और करुणानिधि मॉडल की नकल है. इसी तरह मंडल कमीशन का आना, दलित पिछड़ों की गोलबंदी भी दक्षिण की नकल है. जो प्रक्रिया मुलायम और काशीराम के मिलने से घटित हो रही थी, उसके टूटने से भाजपा बहुत प्रसन्न थी और उसने अपनी ताक़त को हासिल किया. आज भाजपा ने कांग्रेस के मॉडल को माइनस माइनॉरिटी करके अपना लिया है. अब भाजपा, कांग्रेस की तरह बहुत सारे हिंदू वोटों की दावेदार बन गई है.’
अखिलेश की ओर से एक नई संभावना का संकेत भले आया हो लेकिन मायावती अभी चुप हैं. वे चुनाव नतीजों का इंतज़ार कर रही हैं. इस बीच अमर सिंह का बयान ज़रूर आ गया है. एनडीटीवी के मुताबिक, ‘अमर सिंह ने कहा है कि सपा और बसपा नदी के ऐसे दो किनारे हैं जो साथ बह तो सकते हैं लेकिन मिल नहीं सकते. पिछले 30 सालों से मायावती सुप्रीम कोर्ट में ये प्रबंध करने में लगी हैं कि किसी भी हाल में मुलायम सिंह और शिवपाल यादव जेल चले जाएं. क्या अखिलेश यादव अपने पिता को जेल में डालना चाहते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि मायावती से सपा का गठबंधन मुलायम सिंह को जेल भेजने की कीमत पर ही संभव है.’
मीडिया में ऐसी भी चर्चाएं होने लगी हैं कि अगर भाजपा बहुमत के क़रीब होती है तो वह बसपा को तोड़ने की कोशिश करेगी. बसपा और सपा ये कभी नहीं चाहेंगी कि भाजपा के हाथ में यह मौक़ा दिया जाए. अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘अब अगर ये विकल्प सामने आता है तो ये फिर भाजपा और संघ के मॉडल के लिए एक चुनौती प्रस्तुत करेगा. मुझे लगता है कि अगर इसकी संभावना बनी तो मीडिया कल से ही गेस्ट हाउस कांड की सीडी निकालेगा और चलाना शुरू कर देगा. यह एकता क़ायम होने देने में भी पर्याप्त बाधाएं पहुंचाई जाएंगी. अखिलेश ने यह संकेत देकर राष्ट्रीय राजनीति को भी एक संदेश दिया है. इस मामले में वे अपने पिता को प्रयोगों को दोहरा रहे हैं. इन्हीं प्रयोगों के दम पर मुलायम सिंह ने अपनी राजनीतिक हैसियत बनाई थी. अखिलेश पिता के जूते में अपना पैर डाल रहे हैं. 1993 में मुलायम का जो प्रयोग था, वह उनकी राजनीति का शिखर था. वे एक महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभरे थे. अब फिर से अखिलेश वह संकेत दे रहे हैं तो वे वही प्रयोग दोहरा रहे हैं. दलित पिछड़ों की एकता सारा मौजूदा समीकरण बदल देगी. ‘
क्या किसी दल को बहुमत न मिलने पर भाजपा और बसपा में भी गठबंधन हो सकता है, इस पर अरुण त्रिपाठी का मानना है कि ‘ऐसा हो सकता है. बसपा और भाजपा भी साथ में सरकार बना चुके हैं, लेकिन अगर ऐसा हुआ तो बसपा के लिए ख़तरा है. इससे बसपा का अस्तित्व समाप्त हो सकता है. लेकिन अगर सपा और बसपा साथ आती हैं, तो ऐसे में दोनों अपना अस्तित्व बचा पाएंगी. अगर इस प्रयोग को एक वैचारिक भी दे दिया जाए तो उत्तर प्रदेश राजनीतिक सामाजिक क्रांति को फिर से दोहराएगा.’
सपा-बसपा गठबंधन पर प्रो. विवेक कुमार का कहना है, मुझे लगता है कि सपा से ज़्यादा गठबंधन के लिए कांग्रेस दबाव डालेगी. क्योंकि मायावती और सोनिया गांधी के रिश्ते हमेशा बेहद अच्छे रहे हैं. कांग्रेस की केंद्र सरकार को बसपा ने बिना शर्त समर्थन दिया और उसके बदले में कुछ नहीं मांगा. इसी तरह उत्तराखंड की सरकार बाक़ायदा बचाया, उन्हीं के दम पर सरकार चली लेकिन बसपा ने कुछ नहीं मांगा. इन दोनों के बीच गठबंधन की संभावना ज़्यादा बनती है. चूंकि कांग्रेस गठबंधन का एक घटक है तो वह ज़्यादा दबाव डालेगी कि गठबंधन में बसपा भी शामिल हो जाए. दूसरी तरफ, मायावती ने बाहर से सरकारों को हमेशा सपोर्ट किया है. उन्होंने बिहार में ऐसा किया, राजस्थान में ऐसा किया. दूसरे, इससे उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि को मज़बूती मिलती है कि उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया. अगर त्रिकोणीय नतीजा रहता है तो मायावती बाहर से भी समर्थन दे सकती हैं.’
हालांकि, हाल के कई चुनावों में एक्जिट पोल सर्वे ग़लत साबित हुए हैं. दिल्ली और बिहार के चुनावों में सर्वे के अनुमानों के उलट रिज़ल्ट आए तो लोकसभा चुनाव में सर्वे के अनुमान से ज्यादा सीटें एनडीए गठबंधन को मिलीं. ऐसी हालत में जब एक्जिट पोल सर्वे की विश्वसनीयता ही संदिग्ध है, चुनाव नतीजे आने के बाद ही स्थितियां स्पष्ट होंगी.