ग्राउंड रिपोर्ट: झारखंड में पिछले साल सार्वजनिक वितरण प्रणाली में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) की व्यवस्था लागू की गई है, लेकिन ग्रामीणों के लिए इसका लाभ ले पाना अब भी दूर की कौड़ी साबित हो रहा है.
बाबा (पिता) ज़िंदा नहीं रहे. राशन कार्ड और बैंक का खाता, दोनों उनके नाम पर है. उस खाता में पैसा भी आता है, पर दादा (भाई) बता रहा था कि पैसा निकालने में दिक्कत है. इसके लिए कई बार उसने चक्कर लगाया, लेकिन काम बना नहीं. अब सरकार जो नया नियम लाई है, उसमें हम लोग उलझ कर रह गए हैं. देखिए, राशन कार्ड… सितंबर महीने के बाद अनाज नहीं ले सके हैं. सब बोलता है बैंक से पैसा निकालकर लाने पर ही अनाज मिलेगा.
आदिवासी लड़की दुलारी कच्छप एक सांस में यह सब बोलकर खामोश हो जाती हैं. चेहरा रुआंसा हो जाता है. फिर धीरे से वे कहती हैं, ‘ज़िंदगी की दुश्वारियां वैसे ही बहुत है. बाबा के साथ मां का साया भी सिर पर नहीं रहा. दो भाई पहले ही कमाने परदेस गए हैं. बड़ा दादा सोमरा भी रोज़ दिहाड़ी में खटने जाता है. तब 35 किलो सरकारी अनाज नहीं उठा पाने की वजह से दिक्कत समझ सकते हैं.’
जीता कच्छप की बेटी दुलारी, झारखंड में रांची ज़िले के नगड़ी ब्लॉक के केसारो गांव की रहने वाली हैं. बीजेपी सरकार ने इस ब्लॉक में पिछले साल चार अक्टूबर को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) की व्यवस्था लागू की है. नगड़ी में इसके लाभांवित परिवारों की संख्या 12 हज़ार 119 है.
इस पॉयलट योजना का उद्घाटन करने ख़ुद मुख्यमंत्री रघुबर दास नगड़ी पहुंचे थे. केंद्र और राज्य सरकार इसे डिजिटल तथा न्यू इंडिया की अहम कड़ी के तौर पर पेश कर रही है. साथ ही नगड़ी की तरह पूरे राज्य में डीबीटी सिस्टम लागू करना चाहती है.
सरकार का ज़ोर और दावा है कि इस सिस्टम से गरीबों को अनाज उपलब्ध कराने में पारदर्शिता बढ़ेगी तथा बिचौलिये हावी नहीं होंगे. लेकिन शुरुआत के साथ ही इस योजना पर सवाल उठने लगे हैं.
योजना के तहत खाद्य सुरक्षा क़ानून से जुड़े लाभांवितों के खाते में प्रति किलो 31.60 रुपये के हिसाब से पैसे ट्रांसफर करने की व्यवस्था की गई है ताकि लाभांवित बैंक या प्रज्ञा केंद्र से पैसे निकालकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के दुकानदार से अनाज हासिल कर सकें.
जबकि पहले लाभांवित अपने हिस्से का प्रति किलो अनाज सिर्फ एक रुपये की दर से पीडीएस डीलर से लेते रहे हैं. अब भी उन्हें एक रुपये लगाना है, लेकिन सरकार द्वारा ट्रांसफर किए गए 31.60 रुपये निकालने के बाद.
दुलारी के पिता जीता कच्छप के बैंक पासबुक देखने से पता चला कि अक्टूबर और नवंबर में 35 किलो अनाज के लिए उनके खाते में 1106-1106 रुपये ट्रांसफर किए गए हैं, लेकिन उनके पुत्र बैंक से पैसा नहीं निकाल सके.
दरअसल इसके लिए कई तरह की प्रक्रियाएं पूरी की जानी है और वो बेहद परेशान हैं. दुलारी के छोटे भाई दिलीप मायूस होकर कहते हैं, ‘बाबा के जीते जी डीबीटी-पीपीटी- टीपीटी कुछ भी आता, ताकि इस किस्म की परेशानी तो नहीं होती.’
हालांकि दुलारी और उनके भाई-भाभी अकेले निराश-हताश नहीं. लोगों की बड़ी तादाद है, जिन्हें यह योजना परेशान करती दिख रही है. लिहाज़ा विरोध प्रदर्शन ज़ोर पकड़ने लगा है.
केसारो गांव के ही सुका कुजुर का कहना है कि पहले राशन आने पर गांव में हांक (राशन आया) लगा दिया जाता था. तब सीधे डीलर के पास पहुंच जाते थे. अब बैंक, प्रज्ञा केंद्र और मोबाइल वाले के यहां दौड़ लगाइए. फिर भी सहुलियत से काम हो जाएगा, इसकी गारंटी नहीं.
सुका बताने लगे कि बैंक गए, तो पता चला कि खाते में पैसा नहीं आया है. बैंक के बाबू ने बताया कि पता करना होगा कि उसके हिस्से का पैसा एयरटेल मनी बैंक में तो नहीं पहुंच रहा. दरअसल उनका बैंक खाता एयरटेल मोबाइल के नंबर से जुड़ा हुआ है. घबराए हुए वो मोबाइल वाले के पास पहुंचे, तो हक़ीक़त यही निकली.
सुका का आरोप है कि एयरटेल मनी बैंक वाले पूरे पैसे नहीं देते, तब उन्हें जेब से पैसे लगाकर अनाज उठाना पड़ा रहा है. और इस काम के लिए गांव से बैंक, कंपनी का चक्कर लगाने में कई दिन लग रहे हैं. उनके जैसे सैकड़ों लोग इस हाल में हैं.
रांची ज़िले के आपूर्ति पदाधिकारी नरेंद्र गुप्ता का कहना है कि ये बात सही है कि 511 लोगों के पैसे एयरटेल मनी बैंक में चले गए थे. उसे दुरुस्त किया जा रहा है.
आशा तिर्की, विकलांग हैं और उन्हें सुनाई भी नहीं पड़ती. मुश्किलों के बीच वे बैंक और प्रज्ञा केंद्र तक यह पता करने पहुंचीं कि उनके खाते में अनाज का पैसा आया है या नहीं. उन्हें बताया गया कि 623 रुपये आए हैं पर यह राशि उनकी छोटी बेटी के खाते में चली गई है.
उनकी बेटी का खाता स्कूल द्वारा खुलवाया गया है. फिलहाल यह एक्टिव नहीं था. हताश होकर उन्होंने अपनी बड़ी बेटी से क़र्ज़ लेकर अनाज और केरोसिन तेल उठाया.
देह से लाचार, ग़रीबी से बेज़ार आख़िरी कतार में शामिल कई बुज़ुर्ग दंपतियों का यही हाल है. कोई मदद मिलती है या नहीं, इस सवाल पर वे कहते हैं कि कमोबेस सब परेशान हैं, तो कौन किसकी मदद करेगा. इसलिए पहले वाली व्यवस्था ठीक थी.
कोटा गांव के मंगल उरांव सात किलोमीटर साइकिल चलाकर बैंक पहुंचते हैं. अगले दिन आठ किलोमीटर की दूरी तय कर प्रज्ञा केंद्र जाते हैं. उनके ज़ेहन में ये बैठ गया है कि अनाज लेना है तो कम से कम तीन दिन देना पड़ेगा.
झारखंड में प्रमुख विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के रांची ज़िला उपाध्यक्ष दानियल एक्का नगड़ी में रहते हैं. उन्हें इसका दुख है कि तेज़ विकास के नाम पर सरकार नगड़ी को प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल कर रही है. पूर्व में इस प्रखंड को कैशलेश तथा ऑनलाइन दाख़िल ख़ारिज के लाभ से जोड़ने की योजना का हश्र देखा जा सकता है.
दानियल के सवाल है, ‘ये कैसा डीबीटी है? न डायरेक्ट और न ही बेनिफिट. ग्रामीण आबादी बैंकों में धक्के खा रही है.’ वे बताते हैं कि उद्घाटन के साथ ही इस योजना का विरोध किया गया था, लेकिन पुलिस बलों ने लोगों की आवाज़ दबाने की कोशिशें की. जबकि वे लोग सरकार के सामने हक़ीक़त की तस्वीर लाना चाहते हैं.
नगड़ी में ही माकपा के प्रखंड अध्यक्ष सुभाष मुंडा बताते हैं कि 26 फरवरी को सभी विपक्षी दल तथा जन संगठनों के साथ गांव के लोग राजधानी रांची तक विरोध यात्रा निकालने की तैयारी में हैं.
जबकि सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला कहती हैं कि झारखंड के सामने ये तरक्की नहीं चुनौती है. इसके लिए लड़ना ही होगा.
हम कई गांव गए. लोगों से बातें की. बुज़ुर्ग, विकलांग, विधवा सबकी परेशानी अलग- अलग. पड़ताल में पता चला कि सैकड़ों लोग हैं जो इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन उनके राशन कार्ड अपडेट नहीं हुए हैं.
तेतरी देवी बताती हैं कि वे दो महीने से 32.60 रुपये की दर से अपने पैसे लगाकर अनाज उठा रही हैं. दरअसल गांवों में लोग इस बात को लेकर भी डरे हैं कि तीन महीने अनाज नहीं उठाने की स्थिति में कार्ड रद्द कर दिया जाएगा.
एडचेरो गांव के अनाउल अंसारी विकलांग हैं. वे बताने लगे कि अक्टूबर और नवंबर में उन्होंने अपने पैसे लगाकर अनाज उठाया. दरअसल खाते में पैसा पहुंचा ही नहीं था.
तीसरे महीने उन्हें पीडीएस डीलर से पता चला कि फिलहाल एक रुपये की दर से वे अनाज उठा सकते हैं. वह कैसे, इस सवाल पर अनाउल कहते है, ‘संभव हो सरकारी मुलाज़िमों तक ये शिकायतें पहुंची होंगीं.’ इसफ़ाक़ मंज़र की शिकायत है कि इन्हीं परेशानियों के बीच नवंबर महीने के बाद वे अनाज नहीं ले सके हैं.
मशहूर अर्थशास्त्री तथा भोजन के अधिकार कार्यक्रम से जुड़े ज्यां द्रेज का कहना है कि वाकई इस सिस्टम ने विधवा-बुज़ुर्ग, विकलांग और बेबसों की मुश्किलें कहीं ज़्यादा बढ़ी दी है.
द्रेज लगातार स्थानीय लोगों से रूबरू हो रहे हैं तथा उनकी टीम गांवों में हालात की जानकारी भी जुटा रही है. द्रेज का कहना है कि आख़िर सरकार चाहती क्या है, उसे ये समझना होगा. समीक्षा होनी चाहिए कि जितने बैंक कोरेस्पॉन्डेंट तैनात हैं, क्या वे पूरे इलाके के लाभांवितों तक पहुंचने में सक्षम हैं.
वे आगे कहते हैं, अलबत्ता जिनके दो बैकों में खाते हैं, उन्हें यह पता नहीं चल रहा कि किस खाते में उनका पैसा आ रहा है. बहुत से लोग इस वजह से परेशान हैं कि उनका पैसा दूसरे के खाते में ट्रांसफर हो गया. भीड़ की वजह से पैसा निकालना उनके लिए बहुत आसान नहीं होता. लिहाज़ा छोटे किसान, लाचार लोग तथा दिहाड़ी मज़दूर के लिए ये परेशानी उनकी रोज़ी-रोटी की समस्या बढ़ाएगी.
एडचोरो गांव के मोहम्मद शोएब, मुस्तकीम अंसारी, मोहम्मद अंसारी जैसे लोग द्रेज की इन्हीं बातों की तस्दीक करते हैं.
मोहम्मद शोएब कहते हैं कि कूली-कबाड़ी का काम छोड़ कर कई दिनों तक बैंक, प्रज्ञा केंद्र का चक्कर लगाते रहे हैं. लाभांवितों की भीड़ के बीच पैसा निकालना आसान नहीं होता.
शोएब को इस योजना का नाम पता नहीं. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर बताने पर गुस्से में कहते हैं, जिसने बनाया होगा उसे ही मुबारक़. सरकार के लोग और साहब कभी गांव आकर लाभांवितों से बात करें, तब सच से वाक़िफ़ होंगे. शोएब कहते हैं आप किसी भी गांव चले जाएं, लोग माथा पीटते मिल जाएंगे.
मोहम्मद अंसारी गांव की गलियों में रिक्शे पर फुचका-पकौड़ी बेचकर घर-परिवार चलाते हैं. परिवार बड़ा है. वे कहते हैं कि सरकारी अनाज मदद पहुंचाता है, लेकिन अब इसे पाने में झमेला बहुत है.
वे कहते हैं कि रोज़गार छोड़कर बैंक का चक्कर लगाना पड़ता है. बैंक में कई दफ़ा लिंक फेल रहने या बड़े ग्राहकों का काम पहले निपटाने की वजह से अलग ही परेशानी का सामना करना पड़ता है.
इन्हीं परेशानियों के बीच भोजन के अधिकार कार्यक्रम से जुड़े लोग इन दिनों गांवों में जनसुनवाई कर रहे हैं.
इस काम में जुड़े आकाश रंजन का कहना है, ‘राजधानी से महज़ 20 किलोमीटर दूर नेशनल हाइवे के किनारे बसे इस इलाके में तमाम परेशानियां सामने हैं. डर इसका है कि इसे राज्यव्यापी लागू किया गया तो सुदूर आदिवासी इलाकों में विकट परिस्थितियां पैदा होंगी.’
वैसे भी झारखंड में आधार आधारित राशन कार्ड की अनिवार्यता और कई गड़बड़ियों के बीच भोजन का संकट और मौत की ख़बरें सुर्ख़ियों में रही हैं. तभी तो जनसुनवाई के दौरान गांवों में लोग सरकार के नाम दरख़्वास्त लिख रहे हैं और खुलकर अपना दुखड़ा भी बता रहे हैं. डीबीटी लागू होने के बाद तमाम कोशिशों के बाद भी सैकड़ों लोग अनाज नहीं ले पा रहे हैं.
लाभांवितों के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दुकानदार तथा समूह भी परेशान हैं, लेकिन वे साहबों का हुक्म बजाने में जुटे हैं. दुकानदारों की परेशानी है कि पहले वे दस- बारह हज़ार रुपये लेकर बैंक का ड्राफ्ट बनाने जाते थे अब यह काम लाखों में होने लगा है. पैसे लेना-संभालना भी उनकी मुश्किलें बढ़ा रहा है.
भोजन के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट में पूर्व राज्य सलाहकार बलराम कहते हैं कि ये नौबत आएगी, इसका अंदेशा था. दरअसल 24 सितंबर को केंद्र सरकार ने इस योजना की चर्चा की और झारखंड की सरकार ने इसे 10 दिनों में ही ज़मीन पर उतार दिया. शायद वाहवाही बटोरने की ख़ातिर. लाभांवितों से कोई बात नहीं. कोई जानकारी नहीं. ज़ाहिर है सरकारी तैयारियां आधी-अधूरी रही होंगी. ग़ौर कीजिए कि कल्याण कार्यक्रम के तहत एक आम आदमी को अनाज हासिल करने के लिए पांच-छह दिन चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.
रांची ज़िले के आपूर्ति अधिकारी नरेंद्र गुप्ता बताते हैं कि सब कुछ ठीक किया जा रहा है. केंद्र सरकार और अन्य राज्यों की टीम लगातार स्थिति की समीक्षा कर रही है. वे लोग ख़ुद बारीकी से इन मामलों देख-समझ रहे हैं. लाभांवित लगातार अनाज उठा रहे हैं.
अधिकारी के मुताबिक यह समझने की ज़रूरत है कि पहले शिकायतें कहीं ज़्यादा थीं और अब परिवर्तन की दिशा में शक्ति (पावर) सीधे लाभांवितों के हाथों में सौंप दी गई है. कोई उन्हें बरगला नहीं सकता. लिहाज़ा उन्हें बैंक तो जाना पड़ेगा. फिर भी बहुत जल्द कैशलेश की नई व्यवस्था शुरू करने जा रहे हैं. तब लाभांवितों को बैंक जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं.)