अरुणाचल प्रदेश के तवांग पर चीन अपना दावा जताता रहा है और जम्मू-कश्मीर के अक्साई चिन पर भारत का दावा है. ऐसे में तवांग और अक्साई चिन की अदला-बदली को लेकर बीते दिनों एक पूर्व शीर्ष चीनी वार्ताकार की टिप्पणी काफ़ी कुछ कहती है.
2003 से 2013 तक सीमा विवादों पर भारतीय अधिकारियों के साथ चीन के मुख्य वार्ताकार रहे दाइ बिंगुओ ने चाइना-इंडिया डायलॉग पत्रिका को हाल में दिए एक इंटरव्यू में यह दावा किया, ‘भारत-चीन सीमा के पूर्वी सेक्टर में स्थित तवांग, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और प्रशासनिक अमलदारी के लिहाज से चीन के तिब्बत से अविभाज्य है.’
उन्होंने यह भी जोड़ा कि भारत-चीन सीमा विवाद का कोई हल नहीं निकलने की वजह भारत है, जो सीमा समझौते के लिए चीन के तर्कसंगत प्रस्ताव को ठुकराता रहा है. उनका कहना था, ‘अगर भारत पूर्वी सीमा पर चीन की चिंताओं पर ध्यान देता है’, तो ’चीन भी बदले में दूसरी जगहों पर भारत की चिंताओं के प्रति सकारात्मक रवैया दिखा सकता है.’
1980 के दशक के मध्य से ही चीन के वार्ताकार सीमा समझौते के अंग के तौर पर भारत से तवांग पर अपना दावा छोड़ने की मांग करते रहे हैं, जिसे भारत लगातार ठुकराता रहा है. भारत के विशेष प्रतिनिधियों, जो भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी थे (ब्रजेश मिश्रा, जेएन दीक्षित और शिव शंकर मेनन) ने चीनी वार्ताकारों को यह स्पष्ट कर दिया था कि चीन की तरफ से तवांग का मसला उठाये जाने का मतलब यही है कि चीन की सीमा-विवाद सुलझाने में दिलचस्पी नहीं है.
दूसरे शब्दों में चीन को यह भलीभांति मालूम था कि भारत तवांग पर एक इंच भी पीछे खिसकने को तैयार नहीं होगा, फिर भी चीन क्षेत्रों की अदला-बदली के विचार को उठाता रहा. इस विचार के केंद्र में प्रस्ताव है कि भारत अरुणाचल प्रदेश के प्रमुख हिस्से और तिब्बती बौद्ध मत के प्रमुख केंद्र तवांग को चीन को सुपुर्द कर दे, तो चीन भी बदले में ऐसा कुछ कर सकता है. जाहिर है, कोई भी भारतीय सरकार इस प्रस्ताव पर राजी नहीं हो सकती है.
यह जानते हुए भी दाइ ने जोर देकर कहा कि गेंद अब भारत के पाले में है. उनके शब्दों में, ‘भारत-चीन सीमा विवाद के समाधान की दहलीज पर खड़े हैं. सीमा-विवाद के समाधान का एक ढांचा हमारे सामने है जो दोनों पक्षों को मंजूर सार्थक फेरबदल पर आधारित है. इस दरवाजे की चाबी भारत के पास है.’
वैसे, इस बयान पर आगे बढ़ने से पहले यहां एक नुक्ता जोड़ना जरूरी है: यह ध्यान में रखना चाहिए कि दाइ अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं और यह बहुत साफ नहीं कि उनका बयान आधिकारिक तौर पर कितना वजन रखता है या रखता भी है कि नहीं!
तवांग का इतिहास
तवांग का मुद्दा काफी पेचीदा है. दाइ का यह कहना सही है कि सांस्कृतिक तौर पर यह तिब्बत के करीब है. इसे महान तिब्बती बौद्ध विहारों में से एक माना जाता है. यही वह जगह है जहां पांचवे दलाई लामा का जन्म हुआ था. दाइ का यह कहना भी गलत
नहीं है कि तवांग पर चीन के दावे का सम्मान अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने भी किया था. तवांग को लेकर अंग्रेजों और उनके बाद भारत का पक्ष यह रहा है कि इस क्षेत्र पर तिब्बत की सत्ता दुनियावी यानी वास्तविक न होकर महज आध्यात्मिक किस्म की थी. दलाई लामा की सत्ता को लेकर भी चीन का पक्ष यही रहा है.
1914 में, आजाद तिब्बत के प्रतिनिधियों ने शिमला में हुई एक बैठक में तवांग के इलाके को भारत और तिब्बत के बीच सीमा के के तौर पर स्वीकार की गयी मैकमोहन रेखा के दक्षिण में रखने पर सहमति जतायी थी.
एक चीनी प्रतिनिधि ने इस समझौते पर अपने इनिशियल दस्तखत भी किये थे, हालांकि अंततः उसने इस पर औपचारिक हस्ताक्षर नहीं किया था. इस समझौते के बाद चीन का विरोध मुख्य तौर पर मैकमोहन द्वारा तिब्बत और चीन के बीच सीमा को परिभाषित करने के तरीके को लेकर रहा, न कि भारत-तिब्बत सीमा को लेकर.
कम्युनिस्ट चीन ने 1959 तक इस मुद्दे को नहीं उठाया. यह सही है कि 1962 में चीन ने तवांग सहित पूरे अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा कर लिया था, लेकिन बाद में वह मैकमोहन रेखा द्वारा निर्धारित सीमारेखा के पीछे लौट गया. इसके उलट, वह लद्दाख में कब्जा किये गये भूभाग से पीछे नहीं हटा.
1980 के दशक के मध्य से भारतीय वार्ताकार चीन के इस दावे को चुनौती देते रहे हैं कि दोनों देशों की सीमा के पूर्वी क्षेत्र का विवाद ज्यादा गंभीर है और इसे सुलझाने के लिए भारत को हर हाल में रियायत देना चाहिए. इस रियायत का संबंध तवांग पर भारत के दावे से है.
दाइ का इंटरव्यू काफी दिलचस्प है. पिछले वर्ष उन्होंने रणनीतिक वार्ताओं को लेकर अपने संस्मरणों का प्रकाशन किया था, मगर इसमें तवांग का कोई जिक्र नहीं था. इसमें उन्होंने बस इतना ही लिखा, ‘भारत-चीन के बीच सीमा-रेखा कभी औपचारिक तौर पर निर्धारित नहीं की गयी. यह दोनों देशों के लोगों द्वारा निर्मित एक पारंपरिक प्रचलित रेखा है.’
1914 के शिमला समझौते से अस्तित्व में आयी मैकमोहन रेखा के वजूद को नकारते उन्होंने कहा कि चीन सिर्फ 1890 में चीन और ब्रिटेन के बीच हुए समझौते में सिक्किम के साथ तय की गयी सीमा रेखा को स्वीकार करता है. उन्होंने जोर देकर कहा कि अंग्रेजों और तिब्बती सरकार के प्रतिनिधियों ने मिलकर मैकमोहन रेखा में कई गड़बड़ियां की थीं.
दाइ ने ध्यान दिलाया कि 2005 में किया गया, ‘भारत-चीन के बीच सीमा सवालों के समाधान के लिए राजनीतिक मानक एवं सहमति समझौता’ दोनों देशों के सीमा विवादों को सुलझाने की दिशा में तैयार किया गया पहला राजनीतिक दस्तावेज था.
इसके तीसरे अनुच्छेद में दोनों पक्षों से सीमा सवालों को सुलझाने के लिए परस्पर स्वीकृत एवं सार्थक रद्दोबदल पर आधारित पैकेज डील तैयार करने को कहा गया है. चौथे अनुच्छेद में दोनों पक्षों के रणनीतिक एवं तर्कसंगत हितों पर यथोचित ध्यान देने को कहा गया है.
पांचवें अनुच्छेद में दोनों पक्षों से अपेक्षा की गयी है कि वे ऐतिहासिक साक्ष्यों, राष्ट्रीय भावनाओं, व्यावहारिक दिक्कतों और तर्कसंगत चिंताओं एवं संवेदनशीलता को ध्यान में रखेंगे. सातवें अनुच्छेद में कहा गया है कि दोनों ही पक्ष सीमावर्ती क्षेत्रों में बसी जनसंख्या के हितों की रक्षा करेंगे.
सामान्य तौर पर पाठ किया जाए, तो ये दिशा-निर्देश यथास्थिति को बनाए रखनेवाले हैं. एकमात्र कामचलाऊ डील तथाकथित तौर पर 1960 में झोउ एनलाइ और 1980 में दांग शाओपिंग द्वारा सुझायी गयी थी.
इसके मुताबिक अगर भारत अक्सई चिन पर से अपना दावा छोड़ दे, तो बदले में चीन अरुणाचल प्रदेश से अपना दावा छोड़ देगा. इस हिसाब से देखें, तो चौथा अनुच्छेद इस अदला-बदली के लिए गुंजाइश बनाता है. यानी भारत अनुच्छेद-4 के तहत अक्साई चिन को चीन के रणनीतिक हित के तौर पर स्वीकार करे और बदले में चीन अनुच्छेद-7 के तहत अरुणाचल को भारत के रणनीतिक हित के तौर पर स्वीकार करे.
लेकिन, जैसा कि रणजीत कल्हा ने ‘इंडिया-चाइना बाउंड्री इशूज: क्वेस्ट फार सेटलमेंट (2014) में ध्यान दिलाया है, मजबूत होते भारत-अमेरिका संबंधों के मद्देनजर 2007 में चीन ने ऐसे समझौते से अपने कदम पीछे खींच लिये. चीनी विदेश मंत्री यांग जीचि ने चीन का नया पक्ष रखते हुए कहा कि सिर्फ (अरुणाचल प्रदेश में) बसावट होने से सीमा को लेकर चीनी दावों में कोई बदलाव नहीं लाएगा.
इस विचार को आगे बढ़ाते हुए चीन ने अरुणाचल प्रदेश के एक आइएएस अधिकारी को वीजा देने से इनकार कर दिया और जम्मू कश्मीर से आनेवाले आगंतुकों को स्टेपल्ड वीजा देने की शुरुआत कर दी. उसने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सेना की गश्त भी बढ़ा दी. खासकर उन इलाकों में जहां नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों देशों में विवाद है.
इसके साथ-साथ चीन ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को असरहीन बनाने के लिए पाकिस्तान के साथ अपने परमाणु संबंधों के स्तर को और ऊंचा कर दिया. काल्हा का मानना है कि यह इस बात का सबूत है कि चीन अनिश्चित सीमा का इस्तेमाल भारत पर दबाव डालने की रणनीति के तहत कर रहा है.
भारत-चीन सीमा-वार्ताओं के लंबे और जटिल इतिहास को देखते हुए दाइ के इंटरव्यू और खासतौर पर तवांग के जिक्र के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं. एक लिहाज से यह एक वरिष्ठ सेवा-निवृत्त अधिकारी का नितांत निजी विचार भर हो सकता है.
दूसरे लिहाज से देखें तो तवांग पर चीन के दावे को भारत में बहस में लाने के पीछे का सुनियोजित मकसद भारत को रक्षात्मक मुद्रा में लाना हो सकता है.
आखिर में एक संभावना यह भी है कि इसका एक मकसद और कुछ नहीं, 2005 के राजनीतिक मानक समझौते को पुनर्जीवित करना हो. मौजूदा वक्त में चीन आंतरिक और बाहरी मोर्चे पर कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. ऐतिहासिक तौर पर ऐसे क्षणों में विवादों को सुलझाना समझदारी भरा जरूरी कदम माना जाता है.
दाइ के इंटरव्यू पर आयी एक अन्य रिपोर्ट में इस दिशा में कुछ अहम संकेत मिलते हैं. इस रिपोर्ट में दाइ के हवाले से कहा गया है कि चीन न तो भारत को अपने प्रतिद्धंद्धी के तौर पर देखता है, न वह उस पर अंकुश लगाना चाहता है.
दाइ ने यहां तक कह डाला कि चीन अमेरिका सहित दूसरे देशों के साथ भारत के संबंधों के विकास से न केवल खुश है, बल्कि उन्होंने ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ को ध्यान में रखकर तय की गयी भारत की विदेश ‘स्वतंत्र विदेश नीति’ की तारीफ भी की.
दिलचस्प यह है कि दाइ का यह इंटरव्यू तब आया है जब दलाई लामा की 2009 के बाद पहली बार इस वर्ष तवांग की यात्रा प्रस्तावित है और इस यात्रा को लेकर दोनों देशों के बीच कहासुनी तक हो चुकी है.
एक चीनी प्रवक्ता ने अपने बयान में कहा कि चीन इस घटनाक्रम को लेकर बेहद ‘संजीदा’ है और यह सीमा क्षेत्र में शांति और स्थिरता, साथ ही दोनों देशों के संबंधों को गंभीर नुकसान पहुंचाएगा. इस वक्तव्य में दलाई समूह पर सीमा से जुड़े सवालों को लेकर अतीत में अमर्यादित कार्य करने का आरोप भी लगाया गया. उनके इस आरोप का क्या मतलब है, यह स्पष्ट नहीं है.
मुमकिन है, तवांग तिब्बत की धुरी पर घूमने वाले भारत-चीन संबंधों के केंद्र-बिंदु के तौर पर उभरा हो. तवांग, तिब्बत से बाहर तिब्बती बौद्धों का सबसे महत्वपूर्ण विहार है. यह पांचवे दलाई लामा की जन्मभूमि थी और उनके ही प्रयासों से इसकी स्थापना 1680-81 के बीच की गयी.
चीन को इस बात की चिंता है कि कहीं 81 वर्षीय वर्तमान दलाई लामा, यहीं अवतार ग्रहण करने का निर्णय न कर लें. हालांकि, चीन का दावा है कि दलाई लामा का प्रमाण पत्र देने का अधिकार सिर्फ उसके पास है, लेकिन अगर दलाई लामा ऐसा करते हैं, तो यह चीन के लिए परेशानी का सबब बन सकता है.
आधिकारिक तौर पर भारत लंबे समय से तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मानता रहा है, लेकिन चीन के भीतर तिब्बत को लेकर असुरक्षा बोध है, जिसे वहां के अल्पसंख्यकों के प्रति उसके संदेहास्पद और कई बार क्रूर व्यवहार ने और बढ़ाया है.
चीन द्वारा भारत के साथ संबंधों को गलत तरीके से निभाने का एक नतीजा यह भी हुआ है कि 2010 से भारत ने संयुक्त वक्तव्यों में तिब्बत को चीन का अंग घोषित करने से इनकार कर दिया है. मौजूदा भारतीय सरकार ने, जिसने तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री को नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के उद्घाटन में न्यौता दिया था, भारत के रुख को और कठोर कर दिया है.
2016 में प्रणब मुखर्जी कई दशकों में दलाई लामा का राष्ट्रपति भवन में स्वागत करनेवाले पहले भारतीय राष्ट्रपति बन गये. हालांकि, यह मौका था कैलाश सत्यार्थी फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम का.
सबकुछ के अंत में यह देखते हुए कि भारत स्पष्ट तौर पर तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को स्वीकार करता है, चीन को यह स्वीकार करना होगा कि तिब्बत के साथ भारत के भी हित जुड़े हैं. ऐसा सिर्फ तिब्बती बौद्ध मत के इतिहास या उसके भूगोल के कारण नहीं है.
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि तिब्बत हमारा महत्वपूर्ण पड़ोसी रहा है और भारत-तिब्बत के बीच ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों का इतिहास प्राचीन काल से चला आ रहा है.
(लेखक आॅब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट शोधकर्ता हैं)