जाति-हिंसा लंबे समय से महाराष्ट्र की संस्कृति का अंग रही है. यहां हिंदुत्ववादी राजनीति का विकास कोई एक दिन मे नहीं हुआ है. इसे कई दशकों तक सक्रिय तरीके से खाद-पानी देने का काम कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने किया.
महाराष्ट्र के पुणे ज़िले भीमा-कोरेगांव में पिछले दिनों हुई हिंसा ने एक बार फिर महाराष्ट्र के दलितों और मराठों के बीच के संबंधों को बहस के केंद्र में ला दिया. इस हिंसा के पीछे उनके बीच दोस्ती और दुश्मनी का एक लंबा और जटिल इतिहास है, जिसने अक्सर अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक हलचलों को प्रकट करने का काम किया है.
इन दोनों समुदायों के बीच के रिश्ते की शर्त सिर्फ़ जाति आधारित नहीं रही है, बल्कि यह ज़मीन पर दोनों समुदायों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं से भी तय होती है.
संख्या के हिसाब राज्य में मराठों का दबदबा है. वे भूमि से जुड़े हुए रहे हैं और सियासी पदों पर उनकी स्थिति काफ़ी हद तक एकाधिकार वाली रही है.
इनकी तुलना में दलितों की संख्या कम है. लेकिन बिखरे हुए रूप में महाराष्ट्र भर में इनकी आबादी ठीक-ठाक है. आंबेडकरवादी विकल्प के उभार के बाद दलितों, ख़ासकर महारों ने गांव आधारित परंपरागत हीनता बोधक कर्तव्यों को निभाने से प्रकट तौर पर इनकार करके मराठा प्रभुत्व को लगातार चुनौती दी है.
उसके बाद से महारों (जिन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है) और मराठों के बीच तनाव लगातार बढ़ता गया है, जिससे राज्य में अस्थिरता पैदा हुई है.
पिछले एक-दो दशकों से दोनों समुदायों के बीच जाति संघर्ष की वजहों में बुनियादी बदलाव आया है. हिंदुत्ववादी समूह इस रंज़िश की आड़ लेकर दलितों का जवाब देने के लिए मराठों में उग्रपंथी भावना भर रहे हैं.
1990 के दशक के आख़िरी वर्षों से मराठों के सामाजिक और राजनीतिक रुतबे में काफ़ी गिरावट आई है. इसका मुख्य कारण हाल के वर्षों में उनकी राजनीतिक एकाधिकार की स्थिति का समाप्त होना है.
1990 के दशक से पहले तक मराठों द्वारा की जाने वाली दलित विरोधी हिंसा जाति श्रेष्ठता साबित करने का कुरूप तरीका थी. लेकिन, इधर के वर्षों में दलित विरोधी हिंसा हिंदुत्ववादी विचारधारा से लैस है, जिसका मक़सद समाज को आदिम अंधकार में धकेलना है.
अतीत के मराठा गौरव की बातों का इस्तेमाल दोनों समुदायों के बीच तनाव को बढ़ाने के लिए रणनीतिक तौर पर किया जाता है. बेरोज़गारी और शिक्षा के मौकों की कमी से जूझ रहे मराठा युवकों को इस संघर्ष में आसानी से खींच लिया जाता है.
ग़ैर-ब्राह्मण राजनीति और शिवाजी का इस्तेमाल
प्रचलित समझ के उलट दलित-मराठा संबंध का इतिहास सिर्फ़ रंज़िश और विरोध तक ही सीमित नहीं है. मराठों की तरह ही महार, मतंग और चम्भार ग्रामीण समुदाय का महत्वपूर्ण हिस्सा थे. मराठों की ही तरह दलित भी परंपरागत तौर पर मराठा साम्राज्य की नींव रखने वाले शिवाजी का सम्मान करते हैं.
हालांकि, इसकी मुख्य वजह राज्य के प्रशासक के तौर पर उनकी प्रगतिशील और समावेशी भूमिका है. दलित उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर भी याद करते हैं जिन्होंने समाज के निचले तबकों के प्रति पूर्वाग्रह मुक्त रवैया अपनाया.
लोकप्रिय लेखकों और नेताओं ने पिछले 100 सालों में शिवाजी के इतिहास को सांप्रदायिक रंग देने का काम किया है.
लेकिन, दलित उन्हें अपने प्रेरणास्रोत और जातिगत ऊंच-नीच की व्यवस्था का ध्वंस करने वाले नेता के तौर पर याद करते हैं. इस बात को भुलाया नहीं जाना चाहिए कि कई मौकों पर दलितों, निचली जातियों और मराठों को एक साथ गोलबंद करने के लिए शिवाजी के विशाल क़द का इस्तेमाल किया गया.
मराठों, दलितों और दूसरी निचली जातियों जैसे विभिन्न जाति-समूहों को गोलबंद करने के मक़सद से चलाए जाने वाले ग़ैर-ब्राह्मण आंदोलन जैसे जन आंदोलनों ने कई बार शिवाजी के विराट व्यक्तित्व का इस्तेमाल एकता बनाए रखने के लिए किया है.
आधुनिक समय में शिवाजी को पहली बार सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाने का काम ज्योतिबा फुले ने किया. फुले ने उन्हें एक ऐसे महत्वपूर्ण नेता के तौर पर देखा, जो शूद्रों से हमदर्दी और मित्रता का भाव रखते थे.
उन्होंने शिवाजी पर एक पोवाड़ा गीत लिखा जिसमें उन्हें सक्रिय तरीके से सामाजिक एकता को बढ़ावा देने वाला नेता बताया गया. फुले ने शिवाजी को एक समतावादी नेता के तौर पर पेश किया, जिन्होंने जाति और धर्म के नाम पर कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया.
उनका वर्णन किसानों और मेहनतकश जनता के गौरव के तौर पर किया गया. फुले ने उन्हें स्नेह के साथ कुलवादीभूषण कह कर पुकारा है. अपने लेखन में फुले ने मराठों से शिवाजी की समता और न्याय की गहरी भावना का अनुकरण करने की अपील की.
फुले के शिवाजी, नए-नए उभरे ग़ैर-ब्राह्मण विमर्श के दायरे में प्रभावशाली मराठों को लाने की पहली गंभीर कोशिश थे. यह समाज को हासिल एक महत्वपूर्ण प्रतीक के ज़रिये इतिहास को रचनात्मक तरीके से निर्मित करने की भी एक कोशिश थी.
फुले की मृत्यु के बाद नारायण मेघाजी लोखंडे, विट्ठल रामजी शिंदे, छत्रपति शाहू, बीआर आंबेडकर, नाना सिंह पाटिल जैसे ग़ैर-ब्राह्मण नेताओं ने शिवाजी के प्रतीक का इस्तेमाल जनता को गोलबंद करने के लिए किया.
तथ्य यह है कि 1920 के दशक में आंबेडकर के लेटरहेड पर शिवाजी की तलवार (भवानी तलवार) मौजूद हुआ करती थी, जो सबको प्रभावित करने वाली शिवाजी की छवि का सूचक है.
दूसरी तरफ दक्षिणपंथी धड़े द्वारा शिवाजी और मराठा इतिहास को सांप्रदायिक रंग में रंगने की कोशिश पूरे जतन से की गई. इसे एक प्रकट सवर्ण आयाम देने की भी कोशिश की गई.
दक्षिणपंथी ऐतिहासिक विमर्श को अक्सर मुस्लिम-विरोधी और सवर्ण केंद्रित विमर्शों के बीच रखा गया है, जिससे महाराष्ट्र का सामाजिक-राजनीतिक ताना-बाना और उलझ गया है.
राज्य के गठन के वक़्त से ही इन इतिहासों का महाराष्ट्र के ऐतिहासिक विमर्श पर दबदबा रहा है. इसका नतीजा यह हुआ है कि शिवाजी और महाराष्ट्र के इतिहास को हिंदुत्व के अंदर लाना आसान हो गया है.
शिवाजी को हथियाने का यह काम काफी पहले शुरू हुआ और इसका इतिहास राज्य में राजनीतिक दक्षिणपंथ के उभार से भी पहले से शुरू होता है.
आंबेडकर और दलित आंदोलन
19वीं सदी के आख़िरी वर्षों में महाराष्ट्र में जबरदस्त हलचल दिखाई देती है (उस समय इस क्षेत्र का एक बड़ा भाग पूर्व के बॉम्बे प्रेसिडेंसी का हिस्सा हुआ करता था). फुले के नेतृत्व में दमित जातियों को गोलबंद करने की कोशिश मुख्य तौर पर दलितों और मराठों की हिस्सेदारी पर निर्भर थी.
फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज की असाधारण सफलता का एक कारण बड़ी संख्या में मराठों, मालियों और दलितों का इसे समर्थन और अनुयायी बनना था.
फुले कुछ हद तक ‘ग़ैर-ब्राह्मणों’ का एक ताक़तवर वर्ग तैयार करने में क़ामयाब रहे. इसे परिभाषित करते हुए उन्हें प्रसिद्ध तरीके से यह तर्क दिया कि ग़ैर-ब्राह्मण समाज की पहचान का आधार उसकी विशेष संस्कृति और विशिष्ट इतिहास है. लेकिन, सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को लेकर दिया गया तर्क राजनीति में ग़ैर-ब्राह्मणवाद के अवसान को ज़्यादा समय तक टाल नहीं सका, क्योंकि यह ख़ुद अंदरूनी अंतर्विरोधों से ग्रस्त था.
दबंग जातियां, सामाजिक और राजनीतिक अंतरों को पाट पाने में अक्षम साबित हुईं और यह ग़ैर-ब्राह्मणवाद के पतन का एक कारण बना.
1920 के दशक से दलितों ने ख़ुद को अलग से एक ताक़तवर और संगठित समूह के तौर पर पेश करना शुरू किया. अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभ से ही आंबेडकर की दिलचस्पी ख़ुद को ग़ैर-ब्राह्मणवादी राजनीति के साथ जोड़ने में नहीं थी.
उनका मानना था कि ग़ैर-ब्राह्मण पहचान, सामाजिक बदलाव का एक औज़ार होने के बावजूद, जातिगत भेदभाव के सवाल को सुलझाने में कारगर नहीं हो सकता.
इसके साथ ही, दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा को अंजाम देने में मराठाओं और अन्य ग़ैर-ब्राह्मण जातियों की भूमिका ने आपसी रंजिश को और भड़काने का काम किया. दलितों ने जब सक्रिय तरीके से एकजुट होकर गांवों में दबंग मराठों के वर्चस्व को चुनौती देना शुरू किया, तब दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा के मामलों में भारी वृद्धि हुई.
फुले की मृत्यु के बाद, सत्यशोधक समाज के नेतृत्व में ग़ैर-ब्राह्मणवादी उभार ने छत्रपति साहू के नेतृत्व में एक मज़बूत राजनीतिक आंदोलन का रूप ले लिया. इस दौरान कई मराठा नेताओं का उभार हुआ और उन्होंने अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए दलितों के साथ सक्रिय तरीके से गठबंधन किया.
एक मराठा सामाज सुधारक विट्ठल रामजी शिंदे का नाम इसके एक उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है. आंबेडकर के उदय से पहले वे दलितों के सर्वप्रमुख नेताओं से एक थे और दलितों की तरफ़ से आक्रामक तरीके से आवाज़ उठाते थे.
आंबेडकर के साथ उनके गंभीर मतभेदों के बावजूद उनके द्वारा शुरू किए गए स्कूल और छात्रावास आंबेडकरवादी आंदोलन के मुख्य केंद्र बन कर उभरे. इन संस्थानों से कई नामी दलित नेता निकल कर आए.
दूसरी तरफ़, एक करिश्माई मराठा नेता के तौर पर गिने जाने वाले कोल्हापुर रियासत के शासक साहू ने 20वीं सदी की शुरुआत में दलित राजनीति की दिशा को तय करने का काम किया.
वे अलग-अलग जाति समूहों के कई नेताओं को एक साथ लाने और एक ताक़तवर ग़ैर-ब्राह्मणवादी राजनीति को मज़बूती से आगे बढ़ाने में क़ामयाब हुए. उन्होंने काफी उत्साह के साथ आंबेडकर की भी सहायता की और उनकी विदेशी शिक्षा के लिए पैसे का बंदोबस्त करने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही.
आंबेडकर द्वारा संबोधित की गई पहली जनसभा में साहू ने भी शिकरत की थी. उनकी असमय मौत से मराठा और ग़ैर-ब्राह्मण नेतृत्व में एक बहुत बड़ा शून्य पैदा हो गया जो आख़िरकार महाराष्ट्र में ग़ैर-ब्राह्मण राजनीति के कुम्हलाने का कारण बना.
उनका स्थान पश्चिम भारत के दो महत्वपूर्ण नेताओं- केशवराव जेधे और दिनकर राव जावलकर ने लिया. उन्होंने काफी सक्रिय तरीके से 1920 और 1930 के दशक में आंबेडकर की मदद की, हालांकि बाद में दोनों कांग्रेस में चले गए.
कांग्रेस के भीतर उच्च जातीय नेतृत्व को कमज़ोर करने और प्रांतीय स्तर पर मराठा-केंद्रित नेतृत्व के लिए रास्ता तैयार करने में इनकी अहम भूमिका रही. इसके बाद से ही पश्चिमी भारत के मराठीभाषी इलाकों में सियासी तौर पर मराठों के दबदबे के दौर की शुरुआत होती है.
दलितों ने काफी उत्साह के साथ प्रगतिशील ढंग के मराठों की मदद करने की कोशिश की और काफ़ी सक्रिय तरीके से उन्हें जाति-विरोधी आंदोलन के भीतर शामिल कर लिया.
इसके साथ ही आंबेडकर विभिन्न जाति समूहों से कार्यकर्ताओं और नेताओं को अपने संगठन की तरफ आकर्षित करने मे कामयाब रहे. कोंकण क्षेत्र में आंबेडकर के नेतृत्व वाले किसान संगठन का नेतृत्व, विशेषकर 1930 के दशक में, उनके प्रसिद्ध दलित सहयोगियों ने किया.
इनमें से एक नारायणराव पाटिल थे, जो एक मराठा थे. 1937 के चुनावों में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को भारी जीत दिलाने में पाटिल का योगदान काफी अहम था.
यह आंबेडकर की पहली राजनतिक पार्टी थी, खासकर कोंकण क्षेत्र में. दूसरी तरफ़ विदर्भ के इलाके से भी कई महत्वपूर्ण मराठा नेता निकल कर आए, जिन्होंने काफ़ी बढ़-चढ़ कर दलितों के साथ काम किया.
इनमें से एक थे, पंजाबराव देशमुख, जो आगे चलकर भारत के पहले कृषि मंत्री बने, जिन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत एक क्रांतिकारी सामाजिक कार्यकर्ता और जाति-विरोधी आंदोलन के एक सक्रिय आयोजक के तौर पर की थी.
कांग्रेस में शामिल होने से पहले उन्होंने मध्य प्रांत और बेरार की प्रांतीय विधानसभा के सदस्य के तौर पर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का प्रतिनिधित्व किया. वे लंबे समय तक आंबेडकर के विश्वसनीय सहयोगी बने रहे.
मराठों और दलितों के बीच मतभेदों को दूर करने की सक्रिय कोशिशों के बावजूद शीर्ष ग़ैर-ब्राह्मण नेतृत्व महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर होने वाली दलित-विरोधी हिंसा को रोक पाने में विफल रहा.
1920 से 1947 के बीच की रपटों से यह साफ़ पता चलता है कि दलित विरोधी हिंसा तब शुरू हुई जब दलितों ने सक्रिय तरीके से प्रभुत्व वाली जातियों के वर्चस्व को चुनौती दी.
आंबेडकर के नेतृत्व में चले मज़बूत दलित आंदोलन की उपस्थिति ने इस दौर में दलित प्रतिरोध को फिर से मज़बूती दी. वास्तव में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा ने संगठित दलित राजनीति को आकार देने में अहम भूमिका निभाई. इसका नतीजा यह रहा कि गांव के स्तर पर मराठा-दलित संबंधों में बुनियादी रूप से कई दशकों तक कोई बदलाव नहीं आया.
आज़ादी के बाद दलित-मराठा संबंध
आजादी के बाद के दौर में दोनों समुदायों के बीच के रिश्तों में महत्वपूर्ण बदलाव आए. नए बनाए गए महाराष्ट्र राज्य में जनसंख्या के हिसाब से मराठों का बहुमत हो गया और राज्य के मामलों में उनका निर्बाध राजनीतिक एकाधिकार स्थापित हो गया.
इसने सत्ता के पलड़े को उनकी तरफ़ झुका दिया. भूमि से जुड़ा समुदाय होने के नाते मराठों का बहुमत भूमि और खेती से जुड़ा रहा और उन्होंने काफ़ी आक्रामक ढंग से महाराष्ट्र के ग्रामीण हिस्सों पर अपना नियंत्रण बनाकर रखा.
इसने मराठों और दलितों के बीच एक सतत संघर्ष की स्थिति पैदा की. अस्थिरता का यह लंबा दौर आख़िरकार 1970 के दशक में दलित पैंथर्स के रूप में उग्रपंथी आवाज़ों के विस्फोट का कारण बना.
बावडा गांव में मराठों द्वारा की गई जाति-हिंसा की घटना 1972 में दलित पैंथर्स के गठन के लिए प्रेरक साबित हुई. इस संगठन का मुख्य मक़सद दलितों के ख़िलाफ़ जाति हिंसा को समाप्त करना था. हालांकि, इसकी उम्र ज़्यादा नहीं रही, मगर दलित पैंथर्स आक्रामक दलित युवकों की मज़बूत आवाज़ के तौर पर उभर कर सामने आया.
महाराष्ट्र के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर मराठों का दबदबा 1990 के दशक तक बना रहा. 1990 के दशक में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले, जिसने मराठा श्रेष्ठता को गहरे तक प्रभावित किया.
मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू किए जाने, नए आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन और एससी/एसटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज़ एक्ट के प्रभाव में आने की घटनाओं ने मिलकर मराठा वर्चस्व को कमज़ोर करने का काम किया.
इसके नतीजे के तौर पर उनके सामाजिक और राजनीतिक क़द में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई. यह गिरावट साल 2000 के दशक में दिखाई देने लगी. इसके साथ ही, 1990 और 2000 के दशक में ही हिंदुत्ववादी संगठनों ने अपने संगठनात्मक नेटवर्क को फैलाना शुरू किया.
पिछले कुछ वर्षों में हिंदुत्ववादी शक्तियों के विस्तार की मुख्य वजह ग्रामीण इलाकों के असंतुष्ट मराठों की इसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी रही है.
ये संगठन राजनीतिक परिदृश्य को धार्मिक और जाति के आधार पर ध्रुवीकृत कर रहे हैं, ख़ासकर आंबेडकरवादी दलितों के ख़िलाफ़, जिन्हें वे आमतौर पर अपने राजनीतिक प्रोजेक्ट की राह में सबसे बड़ी बाधा के तौर पर देखते हैं.
इसका नतीजा यह है कि मराठा और अन्य प्रभावशाली मध्यवर्ती जातियां, ख़ासतौर पर ग्रामीण इलाकों से आने वाली जातियां, इन संगठनों की तरफ़ काफ़ी आकर्षित हो रही है, जिससे एक अनवरत चलने वाले सामाजिक तनाव की आशंका पैदा हो रही है.
भीमा-कोरेगांव की घटना कोई अपवाद नहीं है. जाति-हिंसा और दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार की घटनाएं कोई आज की चीज़ नहीं है. यह जाति और हिंसा के बीच के करीबी रिश्ते को दिखाती हैं.
जब दलितों द्वारा प्रभुत्व वाले समाज को चुनौती दी जाती है, तो अक्सर उनके साथ हिंसा की जाती है और राजनीतिक व्यवस्था द्वारा उन्हें निशाना बनाया जाता है. आधुनिक समय में यह पैटर्न बार-बार दोहराया गया है- ख़ासकर आंबेडकर के नेतृत्व में ताक़तवर दलित आंदोलन के उभार के बाद.
आंबेडकर के जीवनकाल में कांग्रेस नेतृत्व द्वारा उन्हें राष्ट्रविरोधी और जातिवादी कहकर, उन पर नियमित तौर पर कटु हमले किए गए. आंबेडकर के बाद के महाराष्ट्र में समाज की प्रचलित समझ को जिन दलितों ने चुनौती दी, उन्हें सुविधाजनक ढंग से राजनीतिक सत्ताधारियों ने दरकिनार कर दिया.
जाति-हिंसा लंबे समय से महाराष्ट्र की संस्कृति का अंग रही है. हिंदुत्ववादी राजनीति का विकास कोई एक दिन मे नहीं हुआ है. इसे कई दशकों तक सक्रिय तरीके से खाद-पानी देने का काम कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने किया.
दूसरी तरफ़ महाराष्ट्र के स्कूलों के इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से इन दोनों के बीच के छिपे हुए गठजोड़ का पता चलता है. इस गठजोड़ ने मिलकर बौद्धिक विमर्श को सांप्रदायिक रूप देने का काम किया है.
भीमा-कोरेगांव हिंसा की अहमियत मुख्य तौर दलितों के ख़िलाफ़ प्रभुत्व वाली जातियों की नई रणनीति को सामने लाने के कारण है. 1980 के दशक में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा और 2018 की हिंसा में बड़ा अंतर है.
1980 के दशक में प्रभुत्व वाली जातियों द्वारा की जाने वाली हिंसा स्थान विशेष का मामला होता था, दूसरी तरफ भीमा-कोरेगांव के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है.
किए जा रहे दावे के उलट यह कोई स्वतः स्फूर्त प्रतिक्रिया नहीं थी. इसकी रणनीति दूर बैठकर बनाई गई और दूर से ही इसे अंजाम दिया गया. वधू बुद्रुक में मराठों और दलितों के बीच शुरू हुए संघर्ष का इस्तेमाल काफी सोच-समझ कर भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने के लिए किया गया.
विभिन्न संकटों से घिरे मराठों के ग़ुस्से को जान-बूझकर इस तरह से मोड़ा गया, ताकि सामाजिक सद्भाव को नष्ट किया जा सके.
असंतुष्ट मराठों को आकर्षित करने के लिए मराठा इतिहास को बार-बार उछाला जा रहा है. अगर यह जारी रहा तो यह विभिन्न समुदायों के बीच और भी बड़े सामाजिक संघर्षों का आधार बन सकता है, जो सामाजिक संवाद को ख़त्म कर देगा. किसी भी समुदाय की तुलना में इसका सबसे ज़्यादा असर दलितों पर पड़ेगा.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं.)
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