भले ही जनता ने मोदी को विधानसभा में प्रचंड बहुमत दे दिया है लेकिन लोकसभा की तरह उसे यहां भी निराश होना पड़ेगा. वजह साफ है कि न तो मोदी के पास कोई बड़ी दृष्टि है और न ही उनके पास स्थितियों को समझने का धैर्य.
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड जीत को एकदम ख़ारिज कर देना जनादेश का अपमान होगा लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह परिणाम डराता भी है.
उसे इस रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह परिणाम मंडलवाद, आंबेडकरवाद और एक हद तक मंदिरवाद की राजनीति से आगे जाकर 22 करोड़ की आबादी के विकास के सपने को मूर्त रूप देना चाहता है.
इस नतीजे को इस रूप में भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश केंद्रीय सत्ता के साथ एकाकार होना चाहता है क्योंकि वह लंबे समय से दिल्ली की सत्ता से दूर छिटका रहा है.
प्रदेश में जो भी सरकार रही है वह या तो केंद्र में सत्तारूढ़ नहीं रही है या फिर वह केंद्र को बाहर से समर्थन देती रही है. इसलिए प्रदेश की जनता यह देखना चाहती है कि केंद्र की सरकार के साथ मिलकर चलने में कितना फायदा है.
प्रदेश की जनता क्षेत्रीय राजनेताओं की कार्यकुशलता की सीमाएं देख चुकी थी. उसे अगर मायावती के रूप में कठोर शासक मिलती हैं तो वे भ्रष्टाचार के कीर्तिमान कायम कर देती हैं और बाद में कानून व्यवस्था पर उनकी पकड़ के दावे की भी कलई खुल जाती है.
दूसरी तरफ जनता देखती है कि विकास और प्रदेश के लिए किसी नए मॉडल की तलाश कर रहे अखिलेश यादव किस तरह परिवारवाद और अपराधियों से लड़ने में अपना सारा समय गंवा देते हैं. बाद में जब वे जीतकर निकलते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
अंत में इस जीत में सबसे बड़ा योगदान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है जिनके जुमलेबाज़, बड़बोले और तानाशाही व्यक्तित्व को इस देश के वामपंथी बौद्धिक और लोकतांत्रिक लोग भले नहीं पसंद कर रहे हैं लेकिन जनता पसंद कर रही है.
उनका युवाओं पर जादू क़ायम है, उनका मध्य जातियों पर असर बरक़रार है और उनका शहर और गांव सभी पर बराबर प्रभाव है. अभी उनका नेतृत्व इंदिरा गांधी की तरह दबंग और तेजतर्रार छवि धारण किए हुए है इसीलिए 50 दिन की नोटबंदी में जनता का कचूमर निकाल देने वाले मोदी अभी भी कृषिप्रधान यूपी से 314 सीटों का तोहफा हासिल कर लेते हैं. उनका भाषण जादुई असर छोड़ता है और लोग अपने हित-अहित की सुध खो बैठते हैं. उन्हें या तो अपना धर्म याद रहता है या अच्छे दिन के सपने.
लेकिन यह परिणाम कई मायने में डराता है. पहला कारण तो यह है कि जिस मोदी से जनता ने भारी उम्मीद करके उन्हें 2014 में लोकसभा के लिए चुना था उससे ढाई सालों में उसे कुछ हासिल नहीं हुआ है.
भले ही जनता ने 2014 के लोकसभा परिणामों को विस्तार देते हुए मोदी को विधानसभा में प्रचंड बहुमत दे दिया है लेकिन लोकसभा की तरह उसे यहां भी निराश होना पड़ेगा. वजह साफ है कि न तो मोदी के पास कोई बड़ी दृष्टि है और न ही उनके पास स्थितियों को समझने का धैर्य.
वे संकट में घिरे वैश्विक पूंजीवाद और लगभग पुराने पड़ चुके हिंदू राष्ट्रवाद के कुशल प्रचारक हैं. उन्हें नहीं मालूम कि यह रास्ता कहां जाता है पर उन्हें इस रास्ते पर जनता को भटकाने की कला मालूम है. वे समझदार विशेषज्ञों और सहयोगियों से सलाह भी लेने में अपना अपमान समझते हैं.
इसलिए प्रदेश की विकास की उम्मीदों को आख़िर में मुंह की ही खानी है. उससे पहले एक झटका तब लगेगा जब भाजपा किसी नए व्यक्ति को मुख्यमंत्री का पद देगी.
ज़ाहिर सी बात है मोदी मनोहर खट्टर जैसे ही किसी को मौका देंगे और यह स्थिति उस कमज़ोर और अनुभवहीन व्यक्तित्व के लिए अखिलेश यादव से कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण होगी. उसके बाद भाजपा में घमासान होनी तय है. वह भी प्रदेश के हित में नहीं होगा और आख़िर में उत्तर प्रदेश की जनता को निराशा का सामना करना पड़ेगा.
तीसरा खतरा इस बात का है कि जब भाजपा सरकार प्रदेश के विकास को नई शक्ल देने में नाक़ाम रहेगी तो वह राम मंदिर के निर्माण का अभियान शुरू करेगी. यह काम वह शुरू से भी कर सकती है क्योंकि पहली बार दिल्ली और लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी और संघ परिवार के लिए राम मंदिर निर्माण के लिए ऐसा सुनहरा अवसर फिर नहीं आएगा.
इस दौरान हिंदुत्ववादी ताकतें भी अपना अभियान चलाएंगी. विनय कटियार और उमा भारती कह भी चुकी हैं कि राम मंदिर बनना ही चाहिए. योगी आदित्यनाथ भी इस मांग को उठाते रहते हैं.
ज़ाहिर सी बात है जब राम मंदिर निर्माण शुरू होगा तो प्रदेश में संघर्ष भी होगा और दंगे वगैरह भी होंगे. वह स्थिति थोड़े समय के लिए डराकर रोकी जा सकती है लेकिन दीर्घकाल में उसके परिणाम आतंकवाद तक जाएंगे.
उत्तर प्रदेश में भाजपा का प्रचंड बहुमत आने का मतलब है 2019 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत पक्की. इस पक्की जीत की काट के लिए विपक्षी दल एकजुट होंगे और कोई आंदोलन या अभियान चलाएंगे.
उनके साथ सत्तापक्ष का टकराव होना लाज़मी है. उस टकराव के दौरान लोकतांत्रिक अधिकारों को प्रशासनिक ढंग से कुचला जा सकता है और संवैधानिक ढंग से भी. इसके इतर उसे कुचलने के लिए संघ परिवार के विभिन्न संगठन उस तरह से टकराव भी पैदा कर सकते हैं जो वे केरल में करते हैं या फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय तक.
वह टकराव गैर सरकारी होता है और सरकारी दमन से ज्यादा ख़तरनाक होता है. इन स्थितियों को भाजपा अपने स्थानीय शासन के माध्यम से नियंत्रित करने की कोशिश करेगी लेकिन निराश विपक्ष को सड़कों पर उतरना ही पड़ेगा.
ऐसा समाज के तमाम वंचित तबके भी करेंगे क्योंकि चुनावी राजनीति लोकतंत्र में स्थिरता का एक रास्ता तैयार करती है लेकिन उसी से सारी समस्याओं का समाधान नहीं होता. इसलिए मोदी और संघ परिवार अपने-अपने एजेंडे लागू करने की गति तेज करेंगे.
मोदी आर्थिक राष्ट्रवाद लागू करेंगे और संघ परिवार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद. यह स्थिति इस देश के लोकतंत्र और संविधान पर भारी पड़ेगी. संभव है संवैधानिक संस्थाएं जैसे सुप्रीम कोर्ट या नागरिक समाज विरोध करे लेकिन न तो उनमें ज़्यादा दम है और न ही इससे संघ परिवार मानने वाला है.
ऐसे में देश उसी तरह से टकराव की ओर बढ़ेगा जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी के शासनकाल में बढ़ा था. इसलिए इस बदलाव के बाद जहां उत्तर प्रदेश के विकास की संभावना उम्मीद जगाती है वहीं आपातकाल या वैसी किसी टकराव की आशंका डराती भी है.