सपा और कांग्रेस दोनों को हुआ गठबंधन का नुकसान

उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व सपा और कांग्रेस में गठबंधन हुआ, जिसका नुकसान दोनों को हुआ. दरअसल, यह गठबंधन ही ग़लत था.

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उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व सपा और कांग्रेस में गठबंधन हुआ, जिसका नुकसान दोनों को हुआ. दरअसल, यह गठबंधन ही ग़लत था.

UP Akhilesh Dimple Rahul

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 37 साल बाद किसी पार्टी को 300 से ज़्यादा सीटें हासिल हुई हैं. इसके पहले 1980 में कांग्रेस को 309 सीटें मिली थीं. भाजपा को यह ज़बरदस्त जीत उस समय हासिल हुई है, जब भाजपा के समक्ष बसपा और सपा जैसी दो क्षेत्रीय पार्टियों की चुनौती थी. सपा और बसपा इन दोनों पार्टियों का अपना ठोस जनाधार है, जो सामाजिक न्याय के एक कारगर फार्मूले के साथ वजूद में आया था. इन दोनों पार्टियों का उभार प्रदेश में दलित और पिछड़े तबके के सत्ता तक पहुंचने की चाबी बना. इस चुनाव में भाजपा ने दोनों के कोर वोटबैंक में सेंध लगाकर यूपी का दुर्ग ढहा दिया है.

इस बार यूपी चुनाव जीतने के लिए समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. लेकिन इस गठबंधन का फ़ायदा होने की जगह दोनों को इसका नुकसान हुआ. कांग्रेस की पिछली विधानसभा में 28 सीटें थीं. इस बार उसे 7 सीटें मिलती दिख रही हैं. सपा को पिछले विधानसभा चुनाव में 224 सीटें मिली थीं. वह इस बार 47 सीटों पर सिमटती दिख रही थी. यह पहली बार है जब सपा सौ सीटों से नीचे आई है. मुलायम सिंह यादव ने पार्टी बनाने के बाद पिछड़े वोटों के सहारे जो मज़बूत जनाधार तैयार किया था, अखिलेश यादव उसे क़ायम नहीं रख सके.

दरअसल, सपा का कांग्रेस के साथ गठबंधन ही ग़लत था. कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चुनाव में हारने के लिए ही चुनाव लड़ रही थी. पहले उसने नारा दिया 27 साल यूपी बेहाल. कुछ दिन तक उसने यह कहकर प्रचार किया कि कांग्रेस 27 सालों से प्रदेश की सत्ता से बाहर है, अब उसे जिताया जाना चाहिए. ब्राह्मण वोटों को साधने के लिए कांग्रेस ने शीला दीक्षित का चेहरा भी ले आई. शीला दीक्षित को लाने के पीछे का तर्क किसी के गले नहीं उतरा. शीला दिल्ली में हारकर सत्ता के बाहर हो चुकी थीं और राज्यपाल बनकर उस पद से भी हट चुकी थीं. राहुल गांधी इस तरह प्रचार कर रहे थे, जैसे बिना मन के प्रचार कर रहे हों.

सपा अपने पारिवारिक कलह की शिकार हुई. सपा और मुलायम सिंह को जानने वाले लोग कहते हैं कि मुलायम सिंह ने बहुत सारी ग़लत चीज़ों को प्रश्रय ज़रूर दिया, लेकिन वह उनकी एक ताक़त थी. वे पिछड़े समाज से यह कहते रहे कि जैसे भी हो सके अपनी ताक़त बढ़ाओ और ख़ुद उन्होंने यही किया. पार्टी एक तरफ तमाम बाहुबलियों को संरक्षण देती रही, तो दूसरी तरफ पिछड़े समाज की एक मज़बूत आवाज़ के रूप में उभरी. मुलायम अपने कार्यकर्ताओं और सदस्यों के लिए बेहद मिलनसार रहे हैं. उन्हें जानने वाला कोई भी कार्यकर्ता, चाहे जिस वर्ग या समुदाय का हो, उनका मुरीद रहा है. अखिलेश यादव उन चीज़ों को नहीं साध पाए जो मुलायम सिंह की ताक़त थी.

पूरी पारिवारिक कलह के बाद यूपी की जनता में यह भी संदेश गया था कि सपा की पारिवारिक लड़ाई प्रायोजित थी. वह अखिलेश की लुंजपुंज छवि को कड़क बनाकर पेश करने के लिए थी. उनके विरोधी भी कुछ मायने में उनकी तारीफ़ करते हैं, लेकिन अपने अपनी छवि और विकास के नारे को भुनाने में अखिलेश कामयाब नहीं हो सके. यूपी में क़ानून व्यवस्था सपा के माथे पर लगा एक बदनुमा दाग़ है, जिसे अखिलेश धो तो नहीं पाए, उल्टा सैकड़ों दंगों का दाग़ और पोत लिया.

कांग्रेस और सपा ने गणित लगाया था कि वे दोनों पार्टियां साथ चुनाव लड़ेंगी तो दोनों का वोट प्रतिशत मिलकर उनकी जीत का कारण बन जाएगा. लेकिन भाजपा ने अभूतपूर्व बढ़त बनाई और पिछली विधानसभा के 15 प्रतिशत के मुक़ाबले 40 प्रतिशत के क़रीब पहुंच गई. उसे लोकसभा चुनाव में 42 प्रतिशत वोट मिले थे, विधानसभा चुनाव में उसके वोट प्रतिशत में ज़्यादा गिरावट नहीं आई. कांग्रेस का पिछले विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत 11.6 था जो कि 6.2 पर आ गया. सपा का वोट प्रतिशत 29.2 था जो कि 21.8 पर ठहर गया है.

सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की जगह अगर बसपा के साथ गठबंधन किया होता तो सूरत कुछ और होती. मायावती को 19 सीटें ही मिलीं, लेकिन उनका वोट प्रतिशत 22.2 बना हुआ है. यह पिछली बार 25.9 प्रतिशत था. हालांकि, चुनाव हो जाने के बाद अखिलेश ने कहा कि अगर ज़रूरत पड़ी तो मायावती के साथ जा सकते हैं. अगर वे यही काम चुनाव के पहले कर लेते तो गठबंधन का फायदा हो सकता था. एक ग़लत गठबंधन ने उसमें शामिल दोनों पार्टियों को नुकसान पहुंचाया.

अब सवाल उठता है कि क्या अगले चुनाव तक कोई पार्टी ऐसी तैयारी करके चुनाव में उतरेगी जो भाजपा और नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सके?