सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को आर्थिक संकट में उद्योगपतियों ने ही डाला है और कमाल की बात यह है कि निजीकरण के तहत इन बैंकों को एक तरह से उनके ही क़ब्ज़े में देने की बातें हो रही हैं.
वर्ष 1969 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला लिया था तब हो सकता है वो उनकी राजनीतिक मजबूरी का नतीजा हो लेकिन यह देश की अर्थव्यवस्था को चंद लोगों के कब्जे में जाने से बचाने की दिशा में सबसे बड़ा फैसला था.
उस समय कहा गया था कि चूंकि बैंको में जमा 70 प्रतिशत राशि जनता की है इसलिए इसके वितरण पर नियंत्रण निजी हाथों में नहीं सार्वजनिक क्षेत्र में होना चाहिए और इस उद्देश्य के साथ 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण 19 जुलाई 1969 को किया गया.
बाद में 1980 में कुछ और बैंक इस सूची में शामिल किए गए और आज भी 70 प्रतिशत जमा राशि इन बैंकों के पास ही है.
हालांकि 1991 के आर्थिक संकट की आड़, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक के दबाव में देश में संरचनात्मक सुधार के तहत देश की अर्थव्यवस्था के निजीकरण का जो एक ब्लूप्रिंट बना था उसमें इन बैंकों के निजीकरण की बात भी थी.
एक तरह से यह भारत की अर्थव्यवस्था के कॉरपोरेटीकरण का ब्लूप्रिंट था. नरसिम्हा राव को शपथ ग्रहण के एक दिन पहले (20 जून 1991 को) कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा ने यह ब्लूप्रिंट सौपा था.
इस ब्लूप्रिंट के तहत 1991 से ही निजी बैंकों को भी मंजूरी दी गई: जैसे- एचडीएफसी, आईसीआईसीआई, एक्सिस बैंक और कुछ सीमित रूप से विदेशी बैंकों को और फिर धीरे-धीरे बीमा क्षेत्र को निजी क्षेत्रों के लिए खोला गया.
अभी तक बैंकिंग और बीमा में क्रमश: 74 और 49 प्रतिशत एफडीआई की भी मंजूरी दे दी गई है लेकिन सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण का काम रह गया.
अब नीरव मोदी कांड ने मोदी सरकार को दूसरा आर्थिक संकट दिखाकर इस एजेंडे को लागू करने का मौका दे दिया है. इसलिए राव के अधूरे काम को मोदी द्वारा पूरा किए जाने की बातें हो रही हैं.
सबसे पहले सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणयन ने इस मांग को उठाया. फिर उद्योगपतियों के समूह एसोचैम और फिक्की ने सरकार को इस विषय में हिदायत दे डाली.
अब इस सुर में सुर मिलाने का काम प्रसिद्ध पत्रकार (और मीडिया के एक तबके द्वारा मोदी विरोधी कहे जाने वाले) शेखर गुप्ता ने किया है. उन्होंने इस विषय पर 20 फरवरी, 2018 को प्रमुख हिंदी अख़बार दैनिक भास्कर में एक लेख लिखा.
इस लेख में उन्होंने 1991 में नरसिम्हा राव और उसके बाद बाजपेयी की तरह हिम्मत दिखाकर लोकलुभावन नहीं कड़े निर्णय के लिए नरेंद्र मोदी को ताकीद किया है.
वैसे इस मुद्दे पर अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में उदयन मुखर्जी का लेख भी छपा है. उनका कहना है कि इसकी शुरुआत इन बैंकों का प्रबंधन निजी हाथों में देकर होना चाहिए.
लाइव मिंट में श्रुति राजगोपालन ने कहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का विनिवेशीकरण कर सरकार को बैंकिंग के धंधे से बाहर हो जाना चाहिए.
अपने लेख में इन लेखकों ने यह बताया है कि अन्य सरकारी संस्थानों की तरह बैंक भी नेताओं, अफसरों के भ्रष्टाचार से ग्रस्त हैं और इनके राष्ट्रीयकरण के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इन बैंकों के जरिए गरीबों की मदद का जो दावा किया था वो खोखला साबित हुआ. उल्टा सेठों ने पिछले पांच सालों में सार्वजनिक बैंकों में 73 हजार करोड़ का घोटाला किया है. ये बैंक इन सेठों की लूट का अड्डा बन गए हैं.
बैंकों को आर्थिक संकट में उद्योगपतियों ने डाला है और कमाल की बात यह है कि निजीकरण के तहत इन बैंकों को एक तरह से उनके ही कब्जे में ही देने की बातें हो रही हैं.
ऐसा ही एक आर्थिक संकट 1991 में दिखाया गया था जबकि सरकार की 1990-91 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 1989-90 में सातवीं पंचवर्षीय योजना खत्म होने के साथ कृषि से लेकर औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि ठीक थी: जीडीपी की सालाना औसत विकास दर 5 प्रतिशत के लक्ष्य के एवज में 5.7 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी.
सिर्फ खाड़ी के देशों में युद्ध के चलते पेट्रोलियम पदार्थ के आयात में विदेशी मुद्रा में भुगतान में थोड़ी अड़चन थी लेकिन इस संकट का हल्ला 1991 में ऐसे हुआ जैसे देश दिवालिया हो गया हो.
पहले चंद्रशेखर और फिर राव सरकार के दौर में कर्जे के लिए विदेशी बैंकों में देश का सोना भेजा गया.
मुझे याद है 1992 में हाल ही में सेवानिवृत हुए वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ब्रह्मदेव शर्मा ने मेरी मौजूदगी में एक निजी बैठक में यह कहा था, ‘भारतीय लोग सोना संकट के समय ही गिरवी रखते है इसलिए देश का आर्थिक संकट समझाने के लिए इससे बढ़िया तरीका सरकार के पास नहीं था. वर्ना कोई कारण नहीं था कि कुछ हजार करोड़ रुपये के बराबर डॉलर में विदेशी ऋण के बदले भारत सरकार को अपना सोना विदेशों की बैंकों में गिरवी रखने को मजबूर किया जाता.’
आज की विनिमय दर के अनुसार अप्रैल में 1,300 करोड़ और जुलाई में 2,600 करोड़ मूल्य का ऋण सोना गिरवी रख लिया गया था.
पिछले कुछ समय से मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे बैंकिंग कानूनों में परिवर्तन को देखें तो हमें यह स्पष्ट दिखाई देगा कि ये शुरुआत पहले से ही हो गई थी.
हालिया वित्तीय संसाधन एवं जमा बीमा विधेयक, 2017 के बाद अगर बैंकों का एनपीए या घोटाले के कारण दिवालिया निकलेगा तो बैंक बीमा कंपनी के जरिए आपको सिर्फ एक लाख रुपये तक का मुआवजा का भुगतान करने को बाध्य होंगे, फिर चाहे बैंकों में जमा आपकी राशि दस लाख क्यों ना हो.
इतना ही नहीं छोटे-छोटे बैंकों का विलय करना, बड़े-बड़े उद्योगपतियों के बकाया बट्टा खाते डालना या उन्हें एडजस्ट करना, इन्सोल्वेंसी बैंकिंग कोड-2016, बैंकिंग रेगुलेशन आर्डिनेंस-2017 जैसे अनेक नए कानूनी परिवर्तन पहले ही लाए जा चुके हैं.
लेकिन पहले तो हम यह देखें कि सार्वजानिक बैंकों में यह संकट आया क्यों? असल में 1991 के बाद से ही विकास और रोजगार के अवसर के नाम पर पूंजीपतियों ने लगातार दबाव बनाकर इन बैंकों को बड़े उद्योगों को सरल शर्तों पर ऋण देने के लिए कानूनों और शर्तों में अनेक बदलाव के लिए मजबूर किया.
पिछले 10 सालों में यह काम और तेजी से हुआ. निजी बैंकों के बजाए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को इस बात के लिए मजबूर किया गया कि वो रोजगार और औद्योगिक विकास के लिए ऊर्जा, टेलीकाम, स्टील, रियल इस्टेट सेक्टर में बड़े ऋण दें.
इसी का परिणाम है जहां 1991 में बैंकों में एनपीए की समस्या नहीं के बराबर थी. आरबीआई के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 2004-05 में यह मात्र 48 हजार 399 करोड़ रुपये था. वहीं, 2016 में यह 5 लाख 39 हजार करोड़ और आज यह राशि सात लाख करोड़ के आंकड़े को भी पार कर गई और जिस रोजगार का दावा किया गया था वो अलग फेल हो गया.
टेलीकाम से लेकर ऊर्जा और रियल इस्टेट बूम के लिए निजी क्षेत्र की सराहना करते अखबार नहीं थकते थे लेकिन अब चुप हैं!
उल्टा, वो भी एनपीए से लेकर सारे घोटाले को सार्वजनिक बैंकों की अक्षमता, भ्रष्टाचार और उनके सार्वजनिक होने की बुराई के नाम पर मढ़ रहें हैं.
हालांकि इन उद्योगपतियों की अपनी खुद की संपति बेतहाशा बढ़ी है. ऑक्सफेम द्वारा 2017 में जारी रिपोर्ट: इकोनॉमी फॉर 99% के अनुसार, भारत में 57 लोगों के पास 75 प्रतिशत गरीबों के बराबर संपत्ति है.
इसका मतलब अभी तक के सुधार से हम लोकतंत्र की बजाए उल्टा अर्थव्यस्था के कॉरपोरेटीकरण की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं.
इतना ही नहीं इन उद्योगपतियों ने इन बैंकों को लूटकर अपना पैसा विदेशों में जमा कराया. इस बारे में अंतरराष्ट्रीय संस्था, ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी की 2008 की भारत के कालेधन पर एक रिपोर्ट के अनुसार 72 प्रतिशत कालाधन विदेश में है सिर्फ 28 प्रतिशत भारत में है, इसमें भी कितना नकदी यह एक बड़ा सवाल है.
संस्था का कहना है कि यह जो कालाधन विदेश जाता है, उसका एक सीधा तरीका है- वहां से आयात किए जाने वाली वस्तु की ओवर इनवायसिंग. इस बारे में सरकार ने अभी तक कुछ नहीं किया है.
यहां तक कि डायरेक्टर ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस ने देश की पावर कंपनी पर कोयले के आयात में ओवर इनवायसिंग के जरिए जो 29 हजार करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप लगाया है उसमें भी कुछ नहीं किया गया है.
इसके अलावा सरकार ने वित्त मंत्रालय की 2013 की एक रिपोर्ट में यह बताया है कि कैसे डायमंड के धंधे में काले पैसे को सफेद बनाने और आतंकवाद को फंड करने का काम हो रहा है लेकिन इस रिपोर्ट पर भी कोई कार्यवाई नहीं की गई. उल्टा सभी सरकारों ने लगातार डायमंड इंडस्ट्रीज को हजारों करोड़ के लोन देना जारी रखा.
हमें यह भी ज्ञात रखना होगा कि 1947 से 1955 के बीच 361 निजी बैंक फेल हो चुके थे और बैंकिग क्षेत्र में निजी क्षेत्र की पुन: मौजूदगी के 25 साल होने के बावजूद आज भी 73 प्रतिशत डिपॉज़िट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास होना यह दर्शाता है कि लोगों का विश्वास आज भी निजी से ज्यादा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर है.
अमेरिका के प्रसिद्ध लेहमन ब्रदर्स दिवालिया कांड से जहां पूरी दुनिया हिल गई थी. वहीं भारत इसलिए बचा रहा क्योंकि यहां बैंकों पर सार्वजनिक क्षेत्र का कब्जा है.
और निजी क्षेत्र के जो उद्योगपति दो तिहाई से ज्यादा गरीब जनता की कमाई रखे बैठे है वो बैंकों के निजीकरण के बाद उनका उपयोग सार्वजनिक हित में करेंगे ऐसा कोई भी उदाहरण किसी भी निजी क्षेत्र का हमारे सामने नहीं है. बल्कि, तेल से लेकर टेलीकाम क्षेत्र में इनकी मोनोपोली के नतीजे हम देख चुके हैं.
और जहां तक इन बैंकों को निजी हाथों में देने के बाद उनके लिए रेगुलेशन बना उन्हें नियंत्रित करने की बात है तो जिस भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था के चलते हम बैंकों के निजीकरण की बात कर रहे है वो इन रेगुलेटर व्यवस्था में क्यों नहीं पनपेगी?
वैसे भी अगर सरकारी व्यक्ति रिश्वत लेने का दोषी है तो इस रिश्वत को देने का दोष तो उद्योगपतियों पर है. हर जगह निजी क्षेत्र के बेहतर प्रबंधन को जिस तरह से बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है वो अगर सच होता तो ना तो इतने सारे निजी उद्योग फेल होते और ना ही बकाया लोन के चलते सार्वजनिक बैंकों पर आर्थिक संकट आता.
और ना ही जब बैंक निजी हाथों में थे तब उनका सार्वजनिक हित में धंधा करने का उदाहरण हमारे सामने है.
हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र को भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था से मुक्त करने के लिए उसके निजीकरण या निजी प्रबंधन की बात होती है लेकिन वहीं जब निजी क्षेत्र फेल होते हैं जैसे अभी हुए हैं तब उसके सार्वजनिक करने की बात नहीं होती.
गनीमत है कि अभी तक किसी भी सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था से मुक्ति के लिए उसके निजीकरण की बात नहीं हुई.
आज जरूरत आंख मीचकर निजीकरण को रामबाण दवा मानकर उसे लागू करने की नहीं है बल्कि इस बात को समझने की है कि कैसे बैंकों में करोड़ों की राशि का इतने आसानी से भुगतान कर दिया जाता है?
जहां एक आम आदमी दस हजार रुपये भेजने के बाद सामने वाले को दस बार फोन कर सुनिश्चित करता है कि पैसे मिले या नहीं? वहीं, बैंकों में ऐसी व्यवस्था है जहां कई सैकड़ों करोड़ का भुगतान एक नहीं अनेक बार हो जाता है और कोई इस बात की तस्दीक नहीं करता है- यह समझ के बाहर है!
जबकि सरकार ने ऐसे नियम बना दिए जिसके अनुसार आम आदमी को कुछ सैकड़ों रुपये की सामाजिक सुरक्षा पेंशन और कुछ हजार रुपये के लोन के भुगतान के लिए आधार कार्ड से लेकर और अनेक दस्तावेज के जरिए अपनी पहचान देना होता है.
हमें यह भी मानना होगा कि बैंकिंग और बीमा क्षेत्र सरकार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है. 2015 से आने वाले पांच साल में लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन भारतीय रेलवे में डेढ़ लाख रुपये की राशि का निवेश कर रहा है.
सरकारी बीमा क्षेत्र का पैसा सैकड़ों निजी कंपनी में लगा है. इसके अलावा, सरकार की अनेक कल्याणकारी योजनाओं का संचालन इन बैंकों के द्वारा होता है. हालांकि यह सही है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण होने के बाद इसका लाभ जनता को अपेक्षित हद तक नहीं मिला. जिसमें सुधार की जरूरत है लेकिन वो सुधार बैंकों के निजीकरण से कदापि नहीं होगा.
उल्टा सारी की सारी अर्थव्यवस्था निजी हाथों में चली जाएगी और भारत भी अमेरिका की ही तरह चंद निजी कॉरपोरेशन के चुंगल में चला जाएगा.
(लेखक समाजवादी जन परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं और मध्य प्रदेश के बैतूल शहर में रहते हैं.)