स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने और कुछ अन्य मांगों को लेकर किसानों ने अपना आंदोलन वापस तो ले लिया है, लेकिन यह कभी भी राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार के गले की फांस बन सकता है.
पिछले साल सितंबर में राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार के लिए गले की फांस बने किसान आंदोलन ने एक बार फिर सांसें अटका दीं. हालांकि किसान नेताओं की ओर से आंदोलन स्थगित करने की घोषणा के बाद संकट फिलहाल टल गया है, लेकिन यह कभी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकता है.
बजट में 50 हज़ार रुपये तक के क़र्ज़ को माफ़ करने की लुभावनी घोषणा करने के बाद भी किसानों का गुस्सा सरकार को समझ नहीं आ रहा.
गौरतलब है कि अखिल भारतीय किसान महासभा ने सरकार पर 13 सितंबर को हुए समझौते से मुकरने का आरोप लगाते हुए विधानसभा का घेराव करने और जयपुर में महापड़ाव डालने का ऐलान किया था.
इसके लिए किसानों ने राजधानी की ओर कूच करना भी शुरू कर दिया, लेकिन पुुलिस ने सख़्ती दिखाते हुए इन्हें ज़िले की सीमा पर ही रोक लिया. यही नहीं, पुलिस ने आंदोलन का अगुवाई कर रहे प्रमुख नेताओं को भी गिरफ़्तार कर लिया. इससे गुस्साए किसानों ने वहीं पड़ाव डाल हाईवे जाम कर दिया.
पड़ाव स्थल पर किसानों की बढ़ती संख्या ने सरकार के हाथ-पांव फुला दिए. इस बीच किसानों ने प्रदेशव्यापी चक्काजाम का ऐलान कर दिया.
इससे घबराई सरकार को आख़िरकार नरमी बरतने के लिए मजबूर होना पड़ा. आनन-फानन में किसान नेताओं को रिहा किया गया.
रिहा होने के बाद किसान नेता अमराराम ने आंदोलन स्थगित करने की घोषणा की. उन्होंने कहा, ‘हाईवे जाम होने के कारण छह ज़िलों का जनजीवन प्रभावित हो रहा था. किसान किसी को परेशान नहीं करना चाहते. हम नए सिरे से आंदोलन की रणनीति तैयार कर फिर से दमन करने वाली सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ेंगे. हम सरकार को वादों से मुकरने नहीं देंगे.’
किसान नेताओं का आरोप है कि बीते 13 सितंबर को सरकार ने उनसे जो समझौता किया था वह उससे मुकर गई है.
वहीं, सरकार का कहना है कि इस बार के बजट में मुख्यमंत्री ने क़र्ज़ माफ़ी सहित किसानों के कल्याण के लिए बंपर घोषणाएं की हैं इसलिए यह आंदोलन बेमतलब है.
यदि सरकार और किसानों के बीच पिछले साल 13 सितंबर को हुए समझौते पर ग़ौर करें तो वाकई में लगता है कि सरकार ने इसके अमल में चालाकी दिखाई है.
किसान नेताओं और सरकार के बीच हुए 11 सूत्रीय समझौते का सबसे अहम बिंदु 50 हज़ार रुपये तक की क़र्ज़ माफ़ी का था.
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने बजट भाषण में 50 हज़ार रुपये की क़र्ज़ माफ़ी का ऐलान भी किया, लेकिन इसमें दो शर्तें जोड़ दीं. पहली- क़र्ज़ सहकारी बैंकों से लिया गया हो और दूसरी- लेने वाला किसान लघु व सीमांत श्रेणी का हो.
किसान नेताओं का कहना है कि किसानों ने ज़्यादातर क़र्ज़ अन्य बैकों से ले रखा है इसलिए सभी बैंकों को इसके दायरे में शामिल किया जाए.
किसानों की दूसरी बड़ी मांग फसलों के लागत मूल्य के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारित करने की थी.
समझौते के समय सरकार ने कहा था कि इस बारे में उचित निर्णय लेने के लिए केंद्र सरकार से फिर से अनुरोध किया जाएगा.
राज्य सरकार ने केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट भी भेजी, लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में जो घोषणा की वह जले पर नमक छिड़कने जैसी है.
उन्होंने यह ऐलान तो किया कि सरकार एमएसपी को उत्पादन लागत से कम से कम डेढ़ गुना रखेगी, लेकिन इसमें चालाकी से एक तकनीकी पेंच फंसा दिया.
देश में फसलों की उत्पादन लागत के आधार पर एमएसपी निर्धारित करने के तीन पैमाने हैं- ए2, ए2+ और सी2.
ए2 में बीज, खाद, रसायन, ईंधन और सिंचाई आदि पर किया गया नकद ख़र्च शामिल होता है जबकि ए2+ में ए2 के नकद ख़र्च के साथ किसान परिवार का मेहनताना भी जोड़ा जाता है.
वहीं, सी2 में ए2 और ए2+ के साथ ज़मीन का किराया और कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी शामिल किया जाता है.
अरुण जेटली ने बजट में जिस उत्पादन लागत की बात की है वह ए2+ है. किसान नेता इसे किसानों के साथ धोख़ा क़रार दे रहे हैं, क्योंकि पहले भी एमएसपी निर्धारित करने का पैमाना भी यही था.
किसानों की तीसरी प्रमुख मांग स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की थी. इस बारे में कृषि मंत्री प्रभुलाल सैनी समझौते के बाद से ही कह रहे हैं कि सरकार ने आयोग की ज़्यादातर सिफ़ारिशें लागू कर दी हैं.
वे कहते हैं, ‘सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए एक टास्क फोर्स बना रखी है. राज्य में किसानों के उत्थान से जुड़ी तमाम योजनाएं आयोग की सिफारिशों पर ही अमल है. हम आयोग की 80 प्रतिशत से ज़्यादा सिफ़ारिशें लागू कर चुके हैं. जो बाकी बची हैं उन्हें भी जल्द ही लागू कर कर दिया जाएगा.’
किसान नेता कृषि मंत्री के इस बयान से सहमत नहीं हैं. किसान महापंचायत के अध्यक्ष रामपाल जाट कहते हैं, ‘कृषि मंत्री ने शायद स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट पढ़ी नहीं हैं. यदि आयोग की 80 प्रतिशत सिफ़ारिशें लागू हो गई होतीं तो महज़ 6 फीसदी उपज की ख़रीद समर्थन मूल्य पर नहीं होती. आज भी किसान 94 प्रतिशत उपज को बहुत कम दामों में बेच रहा है. प्रदेश के कोने-कोने से किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं. जब तक सरकार ईमानदारी से लागत मूल्य के आधार पर एमएसपी तय नहीं करेगी, किसानों की स्थिति में सुधार नहीं होगा.’
सरकार का कहना है कि किसानों के लिए इतना करने के बाद भी यदि वे आंदोलन करते हैं तो निश्चित रूप से यह विपक्ष की ओर से प्रायोजित होगा.
पंचायतीराज मंत्री राजेंद्र राठौड़ कहते हैं, ‘सरकार ने किसानों की मांग पिछले साल सितंबर में ही मान ली थीं. उन पर अमल भी हो रहा है. मुख्यमंत्री बजट में क़र्ज़ माफ़ी की घोषणा कर चुकी हैं. ऐसे में आंदोलन का कोई औचित्य नहीं है. विपक्ष किसानों को भड़का रहा है. चुनावी साल होने के कारण कांग्रेस किसानों को राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है.’
आंदोलनरत किसानों से वार्ता के सवाल पर वे कहते हैं, ‘बातचीत की गुंजाइश तो तब बनती है जब कोई मांग हो. कोई मांग होगी तो हम ज़रूर बातचीत करेंगे, किसानों की जायज़ मांगों को हम पहले ही पूरा कर चुके हैं. इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे लोगों से बातचीत का कोई तुक नहीं है.’
वहीं, विपक्ष का आरोप है कि सरकार किसानों की जायज़ मांगों पर ध्यान देने की बजाय अपनी शक्ति आंदोलन को कुचलने में लगाती है.
विधानसभा में कांग्रेस सचेतक गोविंद सिंह डोटासरा कहते हैं, ‘किसानों से किए वादों पर अमल करने की बजाय सरकार पुलिस का डर दिखाकर उनका दमन करना चाहती है.’
आंदोलन के पीछे कांग्रेस की साज़िश होने के भाजपा के आरोप पर वे कहते हैं, ‘जब किसानों ने पिछले साल सितंबर में आंदोलन किया था तब भी भाजपा ने यही आरोप लगाया था. किसानों के आक्रोश को नज़रअंदाज़ करने का खामियाज़ा इस सरकार को भुगतना पड़ेगा.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)