दोनों के एक साथ आने का पहला सियासी इम्तिहान 11 मार्च को उत्तर प्रदेश में होने वाले गोरखपुर अौर फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनावों में होगा.
कभी बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के ख़ास रहे नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी बीते गुरुवार को कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेसी गदगद हैं कि यूपी के मुस्लिम नेताअों में एक बड़ा नाम कांग्रेस से जुड़ा.
इसके गुणा-भाग शुरू हो गए हैं कि नसीमुद्दीन के अाने से 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी के मुस्लिम वोटरों का रुझान कांग्रेस की अोर होगा. इस जोड़-घटाव के बीच यह देखना दिलचस्प होगा कि क़रीब तीन दशक तक बसपा का हिस्सा रहे नसीमुद्दीन के कांग्रेस में शामिल होने से यूपी की सियासत में कितना अौर क्या असर पड़ सकता है.
वैसे, दोनों के लिए इस साथ का पहला सियासी इम्तिहान 11 मार्च को यूपी में होने वाले गोरखपुर अौर फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनावों में होगा.
दोनों जगह कांग्रेस ने प्रत्याशी उतारे हैं. गोरखपुर में तो उसका प्रत्याशी ही मुस्लिम है जबकि फूलपुर में भी मुस्लिम वोटरों की अच्छी तादाद है. इन दोनों जगहों पर उन्हें मुस्लिम वोटरों की दावेदारी में सपा से मुक़ाबला करना होगा.
करीब तीन दशक पहले उत्तर प्रदेश की सत्ता से बेदख़ल हुई कांग्रेस के हाथ से मुस्लिम समेत सभी वोट बैंक जाते रहे. सलमान खुर्शीद को यूपी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने का भी पार्टी को कोई लाभ नहीं मिला.
साल 2009 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें तो कांग्रेस कभी भी प्रभावी चुनावी प्रदर्शन नहीं कर पाई. साल 2017 में सपा के साथ चुनावी गठबंधन अौर राहुल गांधी व अखिलेश यादव के साझा चुनाव प्रचार के बावजूद न तो कांग्रेस अौर न ही सपा को लाभ मिला.
नसीमुद्दीन को लाकर कांग्रेस ने यह संदेश भी दिया है कि मुस्लिम वोटों पर उसकी नज़र है जो फिलवक्त सपा के साथ दिखती है.
ऐसे में सपा इसे कांग्रेस की अोर से अपने लिए चुनौती भी मान सकती है. लिहाज़ा नसीमुद्दीन का शामिल होना लोकसभा के अगले चुनाव में सपा अौर कांग्रेस में किसी गठबंधन की राह में रोड़ा भी बन सकता है.
उत्तर प्रदेश के सियासी हलकों में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अोर से बसपा के साथ गठबंधन के प्रयासों की चर्चाएं भी तैरती रहीं हैं. नसीमुद्दीन के कांग्रेस के साथ अाने के बाद क्या यह संभव होगा?
ख़ास कर इसलिए क्योंकि बसपा से निकाले जाने के बाद उन्होंने मायावती पर गंभीर अारोप लगाए थे. यानी नसीमुद्दीन अौर कांग्रेस का साथ यूपी में विपक्षी दलों के गठबंधन की राह में एक फैक्टर तो बन सकता है लेकिन मुस्लिम वोटों को मामलों में सिद्दीक़ी पर कांग्रेस का दांव कितना कारगर होगा यह दो उपचुनावों अौर फिर लोकसभा के चुनावों में साफ़ होगा.
बुंदेलखंड के बांदा से ताल्लुक़ रखने वाले नसीमुद्दीन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद बसपा से निकाल दिए गए थे. बसपा ने उन पर पार्टी विरोधी काम करने का अारोप लगाया था.
जवाब में नसीमुद्दीन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मायावती पर ब्लैकमेल करने का अारोप लगाया. इसे साबित करने के लिए उन्होंने एक अॉडियो टेप भी जारी किया.
दोनों अोर से ऐसी तल्ख़ी का खुला इज़हार तब हुअा जबकि विधानसभा के चुनाव में नसीमुद्दीन ही मायावती के प्रमुख सिपहसलार थे अौर क़रीब 100 मुस्लिम चेहरों को बसपा की अोर से टिकट दिए जाने अौर उन्हें जितवा कर लाने का दारोमदार नसीमुद्दीन पर था लेकिन बसपा चुनाव बुरी तरह हारी अौर उसे सिर्फ़ 19 सीटें मिलीं.
बसपा में नसीमुद्दीन के साथ काम कर चुके कई नेताअों की राय है कि सिद्दीक़ी राजनेता कम अौर प्रबंधक बेहतर थे. शायद यही वजह है कि सिद्दीक़ी अपने लंबे सियासी करिअर में कभी चुनाव नहीं जीत पाए.
बांदा से एक बार विधानसभा का चुनाव लड़े भी पर हार गए. बसपा में रहते हुए विधान परिषद सदस्य रहे अौर पत्नी को भी विधान परिषद का सदस्य बनवाया.
बेटे को फतेहपुर लोकसभा चुनाव से 2014 में उन्होंने चुनाव में उतारा था लेकिन उसे जितवा नहीं पाए. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि वे मुस्लिम वोटरों को कांग्रेस से कैसे जोड़ पाते हैं.
दरअसल नसीमुद्दीन का कांग्रेस में जाना अौर कांग्रेस का उन्हें लेना यह दोनों के लिए मुफ़ीद है. बसपा से निकाले जाने के बाद सिद्दीक़ी ने राष्ट्रीय बहुजन मोर्चा नाम से पार्टी बनाई लेकिन उससे कोई हलचल नहीं मची.
बसपा छोड़ कर कई बड़े पिछड़े नेता जब समाजवादी पार्टी में शामिल होने लगे तो सिद्दीक़ी ने भी सपा नेतृत्व से तार जोड़ कर शामिल होने की ख्वाहिश जताई थी लेकिन बात बनी नहीं.
ऐसे में सियासी पहचान के लिए उन्हें मुख्यधारा की किसी पार्टी में जाना था लिहाज़ा कांग्रेस का दामन था. वहीं यूपी में हर मोर्चे पर कमज़ोर कांग्रेस को एक बड़ा नाम मिला तो उसने भी शामिल करवाने में देर नहीं की.
दोनों की कैसे निभेगी यह देखना भी ख़ासा रोचक होगा क्योंकि बसपा में रहते नसीमुद्दीन ‘बहन जी’ संस्कति वाली सियासत में रचे-बसे थे. कांग्रेस में इसकी गुंजाइश बेहद कम होगी. जहां कई नेता अौर कई गुट हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)