सरकारें किसानों के वोट से बनती हैं, लेकिन काम उद्योगों के लिए करती हैं

सरकार ने महंगाई दर कम करने और आंकड़ों की कलाबाज़ी करने के लिए जो नीति बनाई उसमें वह सफल रही है क्योंकि किसान की फसल के दाम कम हो गए और बाकि सभी चीज़ें महंगी हो गईं.

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(फोटो: रॉयटर्स)

सरकार ने महंगाई दर कम करने और आंकड़ों की कलाबाज़ी करने के लिए जो नीति बनाई उसमें वह सफल रही है क्योंकि किसान की फसल के दाम कम हो गए और बाकि सभी चीज़ें महंगी हो गईं.

A woman winnowing wheat at a wholesale grain market on the outskirts of Ahmedabad, Gujarat, May 7, 2013. Credit Amit Dave/Reuters
(फोटो: रॉयटर्स)

2014 के आम चुनावों के बाद भाजपा दो मुद्दों की वजह से सत्ता में आई थी. पहला- महंगाई और दूसरा- भ्रष्टाचार. साथ ही किसानों को लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफ़ा देने का वादा भी घोषणा पत्र में किया गया था इस वजह से बड़ी संख्या में किसानों ने भी पार्टी को वोट दिया था.

सरकार बनने के बाद किसान ने सोचा अच्छे दिन आएंगे और भ्रष्टाचार कम होगा. यानी जो काम तहसील कार्यालय से लेकर राजधानी तक बिना रुपये दिए नहीं होता है, वह अब होने लगेगा.

देश का किसान सोच रहा था कि महंगाई कम होगी जैसे- पेट्रोल, डीजल, रासायनिक खाद, दवाइयां साथ ही खेती में उपयोग होने वाली वस्तु एवं आम जीवन में काम आने वाली वस्तु. लेकिन किसान को कहा पता था कि देश में महंगाई का मतलब क्या होता है. जब तक किसानों को महंगाई की परिभाषा का पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

भारत में महंगाई को केवल खेती से उत्पन्न वस्तुओं के दाम बढ़ने पर ही माना जाता है. जैसे- दाल, सब्जी, चावल, गेहूं, आलू, प्याज, दूध इत्यादि.

जैसे ही देश में इन वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं, देश में महंगाई बढ़ने के नाम पर राजनीतिक पार्टियों के नेता टीवी पर आकर महंगाई का रोना शुरू कर देते हैं और राजनीतिक पार्टियों के एजेंट फल-सब्जी की माला पहन कर सड़क पर आ जाते हैं. लेकिन जब किसान को सही दाम नहीं मिलता तब कोई भी पार्टी रोती हुई नज़र नहीं आती है.

रोता है तो केवल किसान और उसका परिवार. भारत में महंगाई दर की गणना करने की विधि गलत है. सीपीआई में कृषि से उत्पन्न खाने-पीने की वस्तुओं का 46 फीसदी रखा गया है और उद्योगों से उत्पन्न वस्तुएं जो हमारे लिए अति-आवश्यक है. साथ ही सेवाएं जो बहुत जरूरी हैं उनका प्रतिशत कम रखा गया है.

जब 2014 में नई सरकार आई तो उस समय मूंग  7500 से 8000 रुपये क्विंटल बिक रहा था, आज वह 3000 से 4000 रुपये क्विंटल बिक रहा है.

उड़द 11,000 से 12,000 रुपये क्विंटल बिक रही थी, आज वह 2200 से 3000 रुपये क्विंटल बिक रही है. तुअर 10,000 रुपये क्विंटल बिक रही थी, आज वह 3,200 से 4,000 रुपये क्विंटल बिक रही है.

आलू 30 रुपये प्रति किलो बिक रहा था, वह 2018 में 50 पैसे किलो बिक रहा है. इन सभी फसलों के दाम कम होने का कारण मौजूदा केंद्र सरकार है जिसने महंगाई कम करने के नाम पर देश में बम्पर उत्पादन होने के बाद भी विदेश से फसलों का आयात किया.

वर्तमान में फसलों के भाव की पुष्टि करने के लिए भावांतर योजना के मॉडल रेट

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भारत में 2016-17 में 2.3 करोड़ टन दाल की पैदावार हुई थी. इसी सीजन में 56.8 लाख टन दलहन का आयात हुआ. इसी बीच सितंबर, 2016 में भारत ने 27.4 लाख टन दाल का आयात कनाडा, मलेशिया, अफ्रीका और दूसरे देशों से किया जबकि भारत दुनिया में दलहन उत्पादन का 25 फीसदी उत्पादन करता है.

दुनिया का बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूद देश की सरकारें किसानों के साथ खेल खेलती रही हैं. चाहे वह बीजेपी की सरकार रही हो या कांग्रेस की सरकार रही हो.

2006 में कांग्रेस की सरकार ने महंगाई कम करने के नाम पर दालों के निर्यात पर रोक लगा दी. नतीजा ये हुआ कि देश में दलहन फसलें कौड़ियों के दाम बिकने लगी. सरकार ने निर्यात पर से सितंबर 2017 में रोक हटाई.

अगर हम दूसरी फसलों की बात करें तो सरकार ने 2016-17 में गेहूं पर आयात शुल्क 25 प्रतिशत से घटा कर पहले 10 प्रतिशत कर दिया, फिर शून्य प्रतिशत कर दिया.

जबकि देश में गेहूं का भाव समर्थन मूल्य पर ही चल रहा था. साथ ही देश में गेहूं के उत्पादन में प्रतिवर्ष 8 से 10 प्रतिशत की बढ़त ले रहा है.

भारत में मार्च 2017 में 40 लाख टन गेहूं का आयात किया. ये सारी कवायद महंगाई कम करने के लिए की गई, जिससे किसानों को गेहूं समर्थन मूल्य से नीचे बेचना पड़ा.

आज देश में आलू पर हाहाकार मचा हुआ है किसान आलू फेंक रहे हैं. सरकार ने जुलाई 2016 में आलू न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) 360 डॉलर प्रति टन तय किया.

यह वह समय था तब आगरा की थोक मंडी में आलू 15.25 रुपये प्रति किलो बिका रहा था और राष्ट्रीय राजधानी में खुदरा बाजार में 35 से 40 रुपये किलो बिक रहा था.

आज आगरा में उसी किसान के आलू की कीमत 50 पैसे प्रति किलो है. ये सब सरकार के बार-बार आलू पर निर्यात मूल्य लगाने के कारण हुआ है.

सरकार यही नहीं रुकी सभी फसलों के बम्पर उत्पादन होने और इतने कम भाव होने बाद भी सरकार ने 2017-18 में 3 लाख टन तुअर का आयात किया.

85 हजार टन और आयात करने जा रही है. चने का 10 लाख क्विंटल आयात नवंबर में किया. गेहूं का आयात भी कर रही है. सरकार 14 फसलों के समर्थन मूल्य घोषित करती है. कुछ फसलों को समर्थन मूल्य पर खरीदती है लेकिन छह प्रतिशत किसानों को ही इसका लाभ मिल पाता है.

किसानों को 2017 खरीफ सीजन में फसलों के समर्थन मूल्य से कम भाव मिलने के कारण 3,600 हजार करोड़ का नुकसान हुआ है. अगर लागत के आधार पर देखें तो 2 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है.

सरकार ने महंगाई दर कम करने और आंकड़ों की कलाबाज़ी करने के लिए जो नीति बनाई उसमें वह सफल रही है क्योंकि किसान की फसल के दाम तो कम हो गए और बाकि सभी चीज़ें महंगी हो गईं.

ये सब किसान चुपचाप सह रहा है और सहता आया है. किसान की जगह उद्योगपति होते तो देश में हंगामा हो जाता.

यही कारण है कि सरकारें बार-बार किसानों की ही बलि चढ़ाती हैं. सरकारें तो किसानों के वोटों से बनती हैं, लेकिन काम उद्योगों के लिए करती हैं.

किसान तो वोट देते हैं लेकिन उद्योग नोट देता है. अब किसानों को अपना महत्व समझना होगा. नहीं तो सरकार किसानों की बलि चढ़ाते-चढ़ाते एक दिन किसान समाज को ही खत्म कर देगी.

(लेखक राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ के प्रवक्ता एवं संस्थापक सदस्य हैं.) 

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