सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके राजनीतिक समर्थन हासिल करने में मिली भाजपा की कामयाबी को अगर शासन के आदर्श के तौर पर स्वीकार कर लिया जाता है तो आने वाला समय देश के लिए अंधकारमय हो सकता है.
मई, 2014 में हुए लोकसभा चुनावों को नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के अंदाज़ में लड़ा था. इन चुनावों में नरेंद्र मोदी को उत्तर प्रदेश में 42.6 फीसदी लोकप्रिय मत हासिल हुए थे.
दो साल दस महीने बाद देश के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ एक बार फिर अमेरिकी स्टाइल के राष्ट्रपति चुनाव में तब्दील कर दिया बल्कि 2014 में मिले विशाल जन-समर्थन को बरक़रार भी रखा.
भले, उन्होंने उस वक़्त जनता से किए विकास के वादों को पूरा करने की दिशा में कुछ खास न किया हो, लेकिन राज्य की समाजवादी सरकार के पांच वर्षों के प्रदर्शन की तुलना में मोदी का विकास का वादा राज्य के मतदाताओं को ज्यादा विश्वसनीय और लुभावना लगा.
राज्य में मोदी के दोनों विकल्प जनता का विश्वास जीतने में नाकाम रहे. भाजपा को हासिल हुआ 39.6 फीसदी मत, बहुजन समाज पार्टी को मिले 22.2 फीसदी और समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन को मिले 28.2 फीसदी मत की तुलना में कहीं ज्यादा है.
राज्य के चश्मे से देखा जाए तो यह परिणाम वहां की राजनीतिक व्यवस्था में चमत्कृत करने वाले उठापटक को दर्शाता है. 2012 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को कुल मतों का महज 15 फीसदी हासिल हुआ था, जबकि उसी साल सपा को 29 फीसदी, कांग्रेस को 11.6 फीसदी, जबकि बसपा को 25 फीसदी मत मिले थे.
भाजपा विरोधी पार्टियों को मिले मतों के प्रतिशत में 2014 में भारी गिरावट दर्ज़ की गई. तीनों पार्टियों में सिर्फ बसपा ही अपने मत-प्रतिशत को इस बार थोड़ा सुधारने मे क़ामयाब हुई, लेकिन फिर भी 2012 के प्रदर्शन से पीछे ही रह गई.
दूसरे शब्दों में कहें, यह परिणाम यूं तो सभी भाजपा विरोधी पार्टियों के लिए एक धक्के के समान है, मगर सबसे ज़्यादा झटका सपा और कांग्रेस को लगा है.
नि:संदेह यह परिणाम निजी तौर पर राहुल गांधी के लिए एक आघात के समान है, जिन्होंने चुनाव से पहले सपा से हाथ मिलाने का फैसला किया मगर इस गठबंधन का फायदा उठाने में नाकाम साबित हुए.
सपा का जूनियर पार्टनर बनना कबूल करके कांग्रेस ने राज्य में पुनर्जीवन के प्रयासों पर पूर्ण विराम लगाने का संकेत दे दिया. ऐसा करने के बाद भी मिली करारी शिकस्त कांग्रेस के भावी वारिस की राजनीतिक सूझ-बूझ पर गंभीर सवाल खड़े करती है.
दूसरे वारिस, सपा के अखिलेश यादव और भी अनचाही स्थिति में खड़े नज़र आ रहे हैं. उन्होंने चुनाव से पहले अपने पिता और चाचा के खिलाफ बग़ावत का झंठा बुलंद करते हुए समाजवादी पार्टी का विभाजन करने का जुआ खेला था.
इस बग़ावत ने परिवार के साथ जुड़े भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी के दाग़ों को धोने में कुछ हद तक मदद की. लेकिन इससे उपजने वाली सुकीर्ति उन गंवाए गए वर्षों की भरपाई करने के लिए काफी नहीं थी, जब प्रदेश को ‘साढ़े चार मुख्यमंत्रियों’- मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, आज़म खान, राम गोपाल यादव और आधे अखिलेश द्वारा मिलकर चलाया और जर्जर किया गया.
राज्य के 60 फीसदी से ज़्यादा मतदाता अखिलेश और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ गए. यह किसी भी पैमाने पर सपा के कुप्रशासन पर एक ज़ोरदार टिप्पणी है. इस चुनाव में उतरते वक़्त बीजेपी बाकी दलों से आगे थी- उसके पास 2014 में मोदी द्वारा तैयार किए गए 42 फीसदी मतों का विशाल जनाधार था.
साथ ही सत्ताधारी सपा के ख़िलाफ़ जन-असंतोष भी उसके पक्ष में काम कर रहा था. लेकिन, इसके सामने कई अड़चनें भी थीं. 2014 के बाद हुए राज्यों के चुनाव में भाजपा लोकसभा चुनाव का प्रदर्शन दोहराने में नाकाम रही थी और यह मानने का कोई ठोस कारण नहीं था कि यूपी की कहानी इससे अलग होगी.
इस बीच विपक्षी एकता भी बढ़ी थी और कांग्रेस और सपा साथ आ गए थे. इसका मतलब था कि त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा के पास 2014 की तुलना में 5-7 फीसदी मत से ज्यादा गंवाना गवारा नहीं कर सकती थी.
पार्टी के पास राज्य स्तर पर ऐसा कोई चेहरा भी नहीं था जिसके नाम पर पार्टी कैडर और जनता को लामबंद किया जा सकता. अंततः पार्टी नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले से पैदा हुई आर्थिक अव्यवस्था और विशेष तौर पर गरीबों और निम्न-वित्तीय तबके को हुई कठिनाई से भी बखूबी वाकिफ़ थी.
भाजपा की रणनीति
भाजपा ने इन चुनौतियों का सामना करने के लिए तीन काम किए. पहला, इसने चुनाव को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के लिए जनमत संग्रह का रूप दे दिया. उसे उम्मीद थी कि ऐसा करके 2014 के जादू को दोहराया जा सकता है.
चुनाव प्रचार के अंत तक यह बात साफ़ हो चुकी थी कि प्रधानमंत्री भाजपा के लिए सबसे ज़्यादा मेहनत कर रहे थे. उन्होंने कई रैलियां कीं और पूर्वांचल में तीन दिन बिताए.
दूसरा, भाजपा और इसके नेताओं ने खुलकर चुनाव प्रचार में सांप्रदायिक अपीलों और एजेंडे पर उतर आए. यहां तक कि नरेंद्र मोदी ने भी चालाकी से औसत हिंदुओं के मन में उनके साथ होने वाले भेदभाव की अतार्किक धारणा को हवा देने का काम किया. बीजेपी ने राज्य में एक भी मुसलमान को टिकट न देकर ये जताने की कोशिश की कि उसके राज में मुसलमानों को उनकी हैसियत बता दी जाएगी.
सपा द्वारा किए गए तुष्टीकरण का ठप्पा ढोने वाले मुसलमान भले ही भौतिक और आर्थिक रूप से असुरक्षित हों, लेकिन उनके बारे में ये कहा गया कि वे एकजुट होकर बीजेपी को हराने के लिए वोट करेंगे. बीजेपी के गली स्तर के प्रचार में मुसलमानों की इस सुनियोजित लामबंदी की संभावना को बढ़ा-चढ़ा दिखाया गया.
यह बात दूसरी है कि ऐसी कोई लामबंदी मूर्तरूप धारण नहीं कर सकी क्योंकि कई सीटों पर बसपा भी मुसलमानों का मत हासिल करने में कामयाब रही. यह प्रचार हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की बीजेपी की कोशिशों को साकार करने के लिए किया गया.
तीसरा, नौकरी, बिजली, आवास जैसे मुद्दों पर मोदी के पहले के वादों के पूरा न होने का ठीकरा राज्य सरकार पर यह कहकर फोड़ा गया कि वह केंद्रीय योजनाओं का लाभ उठाने के प्रति इच्छुक नहीं है. इस तरह इन मुद्दों पर भाजपानीत केंद्र सरकार की नाकामी का सवाल पीछे छूट गया.
जहां तक नोटबंदी का सवाल है, तो सारे संकेत यही बताते हैं कि इस विनाशकारी कदम को लेकर सरकारी प्रचार को जनता के एक बड़े वर्ग ने स्वीकार कर लिया कि यह ‘राष्ट्रीय हित’ में लिया गया फैसला है.
भले ही इस कदम के कारण जनता को व्यक्तिगत तौर पर कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़ा हो! जो इस तर्क से सहमत नहीं थे, वे भी इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करने और मोदी को संदेह का लाभ देने के लिए तैयार दिखे. और फैसले के दिन, बदलाव की चाहत ने बाकी सारे सवालों को पीछे धकेल दिया.
खतरे
अगर तीन प्रमुख भाजपा-विरोधी पार्टियों के मतों को जोड़ा जाए तो यह सही है कि राज्य के 50 फीसदी मतदाताओं पर ‘सांप्रदायिकता से लैस विकास’ के मोदी के संदेश का असर नहीं पड़ा.
इसलिए अमित शाह का यह कहना कि यूपी में हुए चुनाव ‘बीजेपी की विचारधारा’ (जिसका पाठ हिंदुत्व में किया जाना चाहिए) की जीत है, न सिर्फ ग़लत है, बल्कि खतरनाक भी है.
यह इसलिए ग़लत है क्योंकि मतदाताओं का बहुमत साफ़ तौर पर पार्टी के सांप्रदायिक एजेंडे के बहकावे में नहीं आया है. यह ख़तरनाक इसलिए है, क्योंकि यह आने वाले समय का एक शुरुआती संकेत देता है कि हासिल की गई बेलगाम ताकत के बल पर बीजेपी राज्य में किस रास्ते पर चल सकती है.
लार्ड एक्टन के शब्दों की तर्ज पर कहें, तो अगर ‘शक्ति’ सांप्रदायिक बनाती है, तो ‘पूर्ण शक्ति’ पूर्ण रूप से सांप्रदायिक बनाती है.
ऐसे में जब मोदी और बीजेपी दिल्ली और लखनऊ दोनों जगह सत्ता में हैं, उनके पास अबाध शक्ति आ गई है. हम लोग यह देख चुके हैं कि दिल्ली में मिली साधारण शक्ति ने देशभर में संघ परिवार और इसके संगठनों को किस तरह प्रभावित किया था.
उत्तर प्रदेश में ख़तरा इस बात का है कि बीजेपी के सिद्धांतकार अपना एजेंडा चलाना शुरू कर देंगे. अगर आधिकारिक तौर पर बीजेपी इन सिद्धांतकारों के अतार्किक और चरमपंथी कार्रवाइयों से दूर भी दिखने का कोशिश करे, फिर भी उनका एजेंडा एक सुनियोजित मक़सद को समर्पित होगा.
2017 में विकास के मोर्चे पर मिली नाकामी के सवाल पर मोदी के पास एक बहाना था कि उनके पास उत्तर प्रदेश की सत्ता नहीं थी. लेकिन, 2019 में क्या होगा, जब मोदी के पास कोई बहाना नहीं होगा और वादों और हकीक़त के बीच खाई कम न हो!
इसी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए संघ परिवार के पास जहरीले योद्धाओं की बड़ी सेना है, जो एक बार फिर नमूदार हो गए हैं.
सुब्रमण्यम स्वामी को लगता है कि पार्टी के पास अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का जनादेश है. और दूसरी ओर योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, उमा भारती जैसे उतने ही हिंसक चाहतों वाले नेताओं और मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगलने वाले सांसदों और विधायकों की एक जमात भी है.
भारतभर में और विशेष तौर पर विश्वविद्यालयों जैसे मोर्चों पर जहां, संघ परिवार स्वतंत्र सोच के खिलाफ विद्वेषपूर्ण जिहाद छेड़े हुए है, हम और ज़्यादा टकरावों और उकसाने वाली कार्रवाइयां देख सकते हैं.
भाजपा ने भले ही ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दिया हो, लेकिन उसने आज तक चुनावों के बीच दिए गए गुजरात में मुस्लिमों के नरसंहार को न्यायोचित ठहराने वाले एक संघ नेता के बयान की भर्त्सना नहीं की है.
दरअसल, इस नारे का कोई संबंध विकास या समावेशन से नहीं है. यह हिंदुओं के लिए एक कूट संदेश है, जिसका अर्थ है कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के युग का अंत हो गया है. ‘बीजेपी की विचारधारा’ का केंद्रीय तत्व यही है.
उत्तर प्रदेश और देश के दूसरे हिस्सों में मुस्लिम पहले से ही आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर हैं और उन्हें डर है कि उनके लिए चीज़ें यहां से और खराब होती जाएंगी.
नरेंद्र मोदी ने श्मशान और कब्रिस्तान वाला बयान देकर उनके इस डर को और बढ़ाया है. लेकिन यह भारत के प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे भय को दूर करे और यह सुनिश्चत करे कि राज्य की भाजपा सरकार अपनी शक्तियों का समर्थ और ज़िम्मेदार तरीके से निर्वहन करे.
ऐसे समय में मीडिया पर, दुखद रूप से जिसके एक हिस्से को यह लगता है कि सत्ता से नजदीकी ही अच्छी पत्रकारिता की निशानी है और भी बड़ी जिम्मेदारी आ गई है. उत्तर प्रदेश में विपक्ष की आवाज़ कमज़ोर है.
सरकार को उसके वादों, मतदाताओं और संविधान के प्रति जवाबदेह बनाए रखने की जिम्मेदारी अब पत्रकारों के हाथ में है.