विवादित पुलिस अधिकारी केएस द्विवेदी की बिहार डीजीपी पद पर नियुक्ति से नाराज़ विपक्ष ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर भाजपा के दबाव में घुटने टेकने का आरोप लगाया है.
नई दिल्ली: बिहार के नए पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) की नियुक्ति एक रूटीन प्रशासनिक कदम होने के साथ-साथ एक राजनीतिक कदम भी है.
नीतीश कुमार सरकार द्वारा दंगों को शह देने के आरोपी, 1984 बैच के आईपीएस अधिकारी कृष्ण स्वरूप द्विवेदी को राज्य पुलिस प्रमुख बनाए जाने के बाद से विपक्ष ने सरकार का घेराव शुरू कर दिया है.
डीजी, ट्रेनिंग के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे द्विवेदी ने 28 फरवरी को सेवामुक्त होने वाले प्रमोद कुमार ठाकुर का स्थान लिया है. कई लोगों के लिए उनकी नियुक्ति हैरत में डालने वाली है.
चर्चा यह चल रही थी कि चूंकि 1983 बैच के अधिकारी एसके सिन्हा फिलहाल केंद्र में डेपुटेशन पर हैं और 20 साल से ज्यादा समय से वे बिहार नहीं लौटे हैं, इसलिए उनसे ठीक जूनियर रवींद्र कुमार (डीजी सह कमांडेंट जनरल, सिविल डिफेंस) को पुलिस प्रमुख के तौर पर नियुक्त किया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
द्विवेदी पर 1989 के भागलपुर दंगों के दौरान और उसके बाद दंगाई गिरोहों को खुली छूट देने का आरोप लगा था. इन दंगों में 1000 से ज्यादा लोग, जिनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मुसलमान थे, मारे गए थे और मुस्लिमों की लाखों संपत्तियों को नष्ट कर दिया गया था.
पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के तौर पर द्विवेदी की नियुक्ति का बचाव करते हुए बिहार सरकार ने कहा कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस विनती को स्वीकार कर लिया था कि उनके खिलाफ की गई नकारात्मक टिप्पणियों को हटा लिया जाए.
एक बांटने वाली शख्सियत
द्विवेदी की आश्चर्य में डालने वाली नियुक्ति के बाद विपक्ष ने नीतीश कुमार सरकार पर भाजपा के दबाव में घुटने टेकने का आरोप लगाया है.
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने कहा कि डीजीपी के पद पर द्विवेदी जैसी बांटने वाली शख्सियत की नियुक्ति के पीछे हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा का हाथ है, जो राज्य सरकार में जूनियर पार्टनर है.
राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज झा ने द्विवेदी के चयन को आरएसएस के सामने नीतीश कुमार के समर्पण का एक उदाहरण करार दिया.
द टेलीग्राफ को उन्होंने कहा,‘जिन लोगों ने 1989 का बर्बर भागलपुर दंगा देखा है, उनके लिए द्विवेदी की नियुक्ति एक झटके की तरह है. तत्कालीन विवरण उनकी पक्षपातपूर्ण भूमिका की गवाही देते हैं. ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति से हाशिये पर खड़े लोगों और समुदायों का विश्वास और कम होगा. ऐसा लगता है कि इस नियुक्ति में आरएसएस की पसंद, नापसंद की भूमिका है.’
इसका जवाब भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय ने दिया और उन्होंने इशारों-इशारों में राजद पर आपराधिक तत्वों को शरण देने का आरोप लगाया: ‘राजद, द्विवेदी की छवि एक सख्त अधिकारी के होने, जो लोगों के गैरकानूनी कामों में को बर्दाश्त नहीं करेंगे, के कारण डरा हुआ है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि ऐसे लोग कौन हैं?’
कौन हैं द्विवेदी?
अक्टूबर, 1989 में जब भागलपुर में दंगे भड़के थे, उस वक्त द्विवेदी वहां के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एएसपी) के तौर पर कार्यरत थे और नवंबर तक इस पद पर रहे.
कई विवरणों में, जिनमें एक तीन सदस्यीय जांच दल की रिपोर्ट भी शामिल है, द्विवेदी के नेतृत्व में पुलिस की भूमिका पर उंगली उठाई गई थी और कई पुलिस अधिकारियों पर दंगाई हिंदू भीड़ की मदद करने की बात की गई थी.
अपनी किताब,‘स्पिलंटर्ड जस्टिस: लिविंग हॉरर ऑफ मास कम्युनल वायलेंस इन भागलपुर एंड गुजरात’ में वारिशा फरासत और प्रिता झा ने भागलपुर दंगों पर तीन सदस्यीय जांच समिति के हवाले से कहा है:
“भुक्तभोगियों का कहना है कि भागलपुर के तत्कालीन सीनियर एसपी केएस द्विवेदी की दंगों में सीधी भूमिका थी. कानून-व्यवस्था बहाल रखने के लिए जिम्मेदार शीर्ष अधिकारी के तौर पर वे न सिर्फ दंगों को रोकने के अपने कर्तव्य को निभाने में नाकामयाब रहे बल्कि उन्होंने अपने बल को मुस्लिमों को निशाना बनाने का निर्देश भी दिया. यह सिर्फ भुक्तभोगियों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर किया गया दावा नहीं है, बल्कि सरकार के जांच आयोग ने भी अपनी अंतिम रिपोर्ट में द्विवेदी को नरसंहार के लिए ‘पूरी तरह से जिम्मेदार’ ठहराया था और यह कहा था कि वे वे मुसलमानों के प्रति सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से भरे हुए थे. द्विवेदी पर आरोप तय करते हुए जांच आयोग ने कहा था:
‘24 अक्टूबर, 1989 से पहले, 24 और 24 के बाद जो कुछ भी हुआ, उसके लिए हम भागलपुर के तत्कालीन एसएसपी द्विवेदी को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराते हैं. जिस तरह से उन्होंने मुस्लिमों को गिरफ्तार किया और उनकी रक्षा करने के लिए पर्याप्त मदद मुहैया नहीं कराई, उससे उनका सांप्रदायिक पूर्वाग्रह पूरी तरह से सामने आ जाता है.’
जांच समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि नरसंहार से पहले की एक कुख्यात घटना भी द्विवेदी के सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को बयान करने वाली थी. मुहर्रम के मौके पर उन्होंने एक नफरत से भरा भड़काऊ भाषण दिया था जिसमें उन्होंने भागलपुर को एक और कर्बला में बदल देने की बात की थी. जिसका मतलब यहां के मुस्लिम निवासियों के कत्लेआम से था. उस समय जिला-प्रशासन को इस बयान के लिए द्विवेदी को माफी मांगने के लिए कहना पड़ा था.
जांच समिति ने जानबूझ कर या अक्षमता के कारण मुस्लिम विरोधी दंगों को काबू में करने के लिए यथोचित कदम नहीं उठाने के लिए कई अन्य लोक-अधिकारियों का भी नाम लिया. यह नरसंहार कांग्रेस के बिहार में सत्ता में रहते हुआ. उस समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्येंद्र नारायण सिन्हा राज्य के मुख्यमंत्री थे. प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दंगों के दौरान भागलपुर के अपने दौरे के दौरान एसएसपी द्विवेदी का तत्काल तबादलना करने का आदेश दिया था. मगर विश्व हिंदू परिषद और अन्य दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों द्वारा इसके विरोध के सामने मजबूर होकर राजीव गांधी को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा.
द्विवेदी के तबादले के खिलाफ हिंदू कंट्टरपंथी समूहों के उग्र प्रदर्शन को नरसंहार में उनकी भूमिका के सबूत के तौर पर देखा जाना चाहिए था. मगर, इसकी जगह सरकार ने दबाव के सामने झुकते हुए उन्हें अपने पद पर बने रहने दिया. दंगे के भुक्तभोगियों का आज भी कहना है कि अगर द्विवेदी के तबादले को वापस नहीं लिया जाता तो, कई जानें बचाई जा सकती थीं.”
जांच आयोग की रिपोर्ट के सामने आने से पहले दंगा प्रभावित भागलपुर का दौरा करने वाली कई फैक्ट फाइंडिंग टीमों ने भी द्विवेदी को कसूरवार ठहराया था.
पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स ने कहा था,
‘‘पुलिस को दंगाई गिरोहों के साथ घूमते, लूटपाट करते और दुकानों को नष्ट करते देखा गया. कर्फ्यू के आदेश का खुलेआम उल्लंघन करनेवालों को काबू में करने की उन्होंने कोई कोशिश नहीं की.
इससे भी ज्यादा खराब बात ये है कि पुलिस ने खुद कर्फ्यू के आदेश का उल्लंघन करते हुए 26 अक्टूबर को एसएसपी केएस द्विवेदी के तबादले के विरोध में प्रदर्शन किया. भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने उनका साथ दिया. दंगा प्रभावित जिले का दौरा कर रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगों को मान लिया और तबादले के आदेश को वापस ले लिया. कई क्रूरतापूर्ण घटनाएं इस फैसले के बाद हुईं.’’
नीतीश कुमार का यू-टर्न
इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि अरसा पहले 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भागलपुर दंगों में मुस्लिमों के साथ हुए अन्याय की बात नीतीश कुमार ने ही छेड़ी थी.
1995 में जांच आयोग की रिपोर्ट आने के बाद उस समय राज्य की लालू प्रसाद यादव सरकार ने इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर कोई कार्रवाई नहीं की. इसका एक कारण यह हो सकता है कि अगर वे ऐसा करते तो वे उन्होंने यादव समुदाय से आने वाले काफी लोगों पर कार्रवाई शुरू करनी पड़ती, जिनकी संख्या दंगा करने वाली भीड़ में काफी थी.
1995 तक उन्होंने सफलतापूर्वक लोगों का ध्यान भागलपुर दंगों से हटा दिया था और मुस्लिमों और यादवों को अपने पक्ष में लामबंद कर लिया था. इसी बीच वे खुद को एक मजबूत सेकुलर नेता के तौर पर स्थापित करने में भी कामयाब रहे थे, जो सक्रिय तरीके से हिंदुत्ववादी शक्तियों को चुनौती दे रहा था.
लेकिन, चूंकि न्याय के मोर्चे पर ज्यादा नहीं हुआ- कई मामले समाप्त कर दिये गए और कई लटका कर रखे गए- इसलिए इस बीच द्विवेदी को सजा के तौर पर गैर-महत्वपूर्ण पदों पर तैनात करके हाशिये पर रखा गया.
2005 में मुख्यमंत्री का पद संभालने के ठीक बाद, नीतीश कुमार ने दो अहम फैसले किए, जिनका काफी प्रचार भी किया गया.
एक, उन्होंने भागलपुर दंगों की बिल्कुल नए सिरे से जांच कराने के लिए जस्टिस एनएन मिश्रा की अध्यक्षता में एक नया जांच आयोग गठित किया.
दो, उन्होंने उच्च जाति के भूमिपतियों के नियंत्रण वाली शोषणपरक सामंती अर्थव्यवस्था के लिए कुख्यात बिहार राज्य में क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू करने के लिए एक बंद्योपाध्याय समिति का भी गठन किया.
यह स्पष्ट था कि कुमार खुद को क्षुद्र राजनीति के ऊपर न्याय को तरजीह देने वाले नेता के तौर पर पेश करके गैर-यादवों, अति पिछडा वर्ग, मुसलमानों और दलितों को संदेश देने की कोशिश कर रहे थे.
काफी सराहे गए उनके इन कदमों ने लालू प्रसाद यादव के ओबीसी और मुसलमान वोटबैंक में सेंध लगाने का भी काम किया.
हालांकि, बंद्योपाध्याय समिति पर उसके बाद फिर कभी चर्चा नहीं हुई, मगर भागलपुर दंगों का मामला आठ साल बाद 2013 में फिर सामने लाया गया, जब भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद नीतीश ने भाजपा के साथ अपना गठबंधन तोड़ लिया था.
नीतीश ने दंगा प्रभावित 384 परिवारों की पेंशन को दोगुना कर दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में काफी खराब प्रदर्शन के बाद, 2015 में कुमार ने राज्य विधानसभा में मिश्रा समिति की रिपोर्ट पेश की.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना था कि 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार खुद को एक सेकुलर नेता के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके पीछे कहीं न कहीं यह उम्मीद काम कर रही थी कि खुद को एक सेकुलर नेता के तौर पर पेश करने से उनकी ‘विकास पुरुष’ की छवि में एक और लाभदायक आयाम जुड़ जाएगा.
यह रणनीति कारगर रही और साथ चुनाव लड़ते हुए जनता दल (यूनाइटेड) और राजद ने भाजपा को करारी शिकस्त दी, जिसने एक साल पहले लोकसभा की ज्यादातर सीटों पर कब्जा जमाया था.
अब जबकि कुमार ने एक बार फिर भाजपा के गले में बांहें डाल दी हैं, ऐसा लगता है कि उन्होंने सिर्फ हिंदुओं को ध्रुवीकृत करने और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा करने के भगवा पार्टी के सफल चुनावी फॉर्मूले को अपना लिया है.
पटना के एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न बताने के आग्रह के साथ कहा, ‘नीतीश को यह पता होगा कि भाजपा के साथ सरकार बनाने के बाद अब मुसलमानों की नजर में उनकी हैसियत एक स्वतंत्र नेता नहीं रह गई है. इसने कुमार को द्विवेदी की नियुक्ति करने जैसा फैसला करने के लिए उकसाया होगा.’
उन्होंने यह भी जोड़ा कि खुद को ‘विकास पुरुष’ के तौर पर पेश करने की उनकी कोशिश भी अब शायद ही काम आए, क्योंकि बिहार में जाति और समुदाय से परे कई लोग नीतीश को एक ‘मौकापरस्त’ नेता के तौर पर भी देखते हैं, खासकर उनके अचानक पाला बदल लेने के बाद.
द्विवेदी को राज्य पुलिस के मुखिया के तौर पर नियुक्त करके कुमार ने हिंदुत्ववादी ताकतों यह संकेत दिया है कि वे पूरी मजबूती से उनके साथ खड़े हैं. इससे संघ परिवार में उनका राजनीतिक कद थोड़ा बढ़ सकता.
उनकी राजनीति में इस बदलाव से उन्हें फौरी तौर पर तो कुछ फायदा मिल सकता है, लेकिन कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर समस्याओं से जूझते रहने वाले राज्य में एक बांटने वाली शख्सियत की पुलिस प्रमुख के तौर पर नियुक्ति, उनकी प्रशासनिक योग्यता पर गंभीर सवाल खड़े करती है.
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