विपक्ष को एक नए भारत का सपना बुनना होगा जो भाजपा के हिंदूवादी, आर्थिक आधार पर खड़े विचार को चुनौती दे सके. एक ऐसा भारत जिसमें अस्मिता और देशभक्ति भी शामिल हो, विकास और सम्पन्नता की सोच भी.
ताज़ातरीन विधानसभा चुनावों के नतीजों ने निश्चित तौर पर देशभर के राजनीतिक विशेषज्ञों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. एक तरफ जहां कई विशेषज्ञ इसे परिवर्तन की राजनीति की ओर जाना कहेंगे वहीं दूसरी ओर कुछ इसे दक्षिणपंथी ताकतों के हिंदुवादी एजेंडा के धीरे-धीरे बढ़ते प्रभाव के रूप में देखेंगे.
मुझे लगता है इसके दो और मायने हैं. एक- जल्द दिखाई देने वाला है और दूसरा- शायद कुछ समय बाद दिखाई देगा.
पहला, भारतीय राजनीति धीरे-धीरे विपक्षी ताकत को खो रही है. ये वैसा ही दौर है जैसा कि 1950 और 60 के दशक में था और जिसका असर 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले राजनीतिक निर्णयों में हुई.
जिस तरह 1950-60 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक ऐसे राजनीतिक दल के रूप में जाना जाता था जिसमें सभी विचारधाराओं के लोग शामिल थे और इन वैचारिक विविधताओं के लिए उसमें स्थान और सम्मान भी था. आज भारतीय जनता पार्टी भी ऐसे ही दल होने का दावा कर रही है.
इसकी शुरुआत भाजपा ने आज से करीब दो साल पहले कर दी थी जब हिंदुवादी विचारधारा में विभिन वर्गों को शामिल करने की वैचारिक कोशिश संघ की ओर से की गई थी.
इसी तरह आदिवासी इलाकों में भी अस्मिता का अर्थ बदलने की भाजपा की रणनीति जोरों पर है. इसके लिए सरकारी मशीनरी के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों का एक पूरा ढांचा काम कर रहा है, लेकिन पर यहां ये ज़ोर देना ज़रूरी है कि उसका चरित्र अलग है.
अगर विचारधाराओं के स्थान पर विभिन सामाजिक समूहों (जाति या धर्म आधारित) को रखकर एक वृहत्तर संगठन की परिकल्पना की जाए तो भाजपा का वर्तमान चेहरा समझ में आता है.
लेकिन इसे भाजपा के बदलते चरित्र के साथ-साथ भारतीय राजनीति के उभरते चरित्र के रूप में भी समझा जा सकता है जिसमें विचारधाराओं का स्थान सामाजिक समूहों ने ले लिया है और विकास की समावेशी अवधारणा का स्थान एक समुदाय विशेष (पितृसत्तात्मक हिंदुवादी विचारधारा) की परिभाषा ने ले ली है.
पर क्या सामाजिक समूहों के राजनीति पर बढ़ते प्रभाव को केवल पहचान की राजनीति से समझा जा सकता है? मुझे लगता है कि ऐसा समझना मतदाता की सोच को कम करके आंकना होगा.
अधिकतर विपक्षी दल और राजनीतिक विशेषज्ञ, अस्मिता की राजनीति को ही चुनावी राजनीति का केंद्रबिंदु मानते रहे हैं. अन्य कारक जैसे कि विकास की मांग, बेहतर सड़कों की मांग या कृषि उत्पादों के लिए अधिक मूल्य की मांग इत्यादि अस्मिता की राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं ऐसा अधिकतर विश्लेषणों में बार बार कहा गया.
हालांकि अब ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय मतदाता एक लंबे समय तक अस्मिता की राजनीति साथ चलते-चलते आगे बढ़ गया पर इसकी चुनावी राजनीति करने वाले राजनीतिक दल आगे नहीं बढ़े.
ये मतदाता जिसके सपने और आकांक्षाएं अब बदल चुकी है जो आर्थिक संपन्नता और तकनीकी समृद्धता को लेकर आगे बढ़ना चाहता है. इस नए मतदाता की देशभक्ति के आयाम भी बदल गए हैं.
लेकिन इन सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि इस नए समाज की नैतिकता के भी कुछ नए आयाम उभरे हैं. विपक्षी दल इन नए आयामों को मानने और पहचानने में कहीं न कहीं असफल रही है.
दूसरे शब्दों में, अस्मिता का अभिप्राय मतदाता के लिए बदल गया है. कुछ मुद्दे ऐसे है जहां आम नागरिक अपने धर्म और जाति से परे सोचता है चाहे ऐसे में उसका अपना व्यक्तिगत नुकसान ही क्यों न हो.
यानी कि भारतीय मतदाता पश्चिमी मतदाताओं की भांति कुछ ‘डिब्बों’ में नहीं सोचता. उसमें एक वृहद राजनीति की चाहत भी है. भाजपा या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनावी प्रोपेगंडा से मतदाताओं को ये बताने में सफल रहे हैं कि वो इस बदलते मतदाता को पहचानते हैं और उसके सपनों के लिए काम कर रहे हैं.
ये सवाल न तो एग्ज़िट पोल से समझे जा सकते हैं और न ही आंकड़ों की मदद से. इसके लिए विचारों के एक नए गुच्छे की जरूरत है. एक ऐसे गुच्छे की जिसकी परिकल्पना किसी समय गांधी, आंबेडकर या नेहरू ने की थी और अभी ऐसी ही कड़ी मेहनत भाजपा के नेतृत्व में भी दिखाई पड़ती है.
जहां विपक्षी नेताओं में चुनावों से पहले न ही कोई नई वैचारिक ऊर्जावान शक्ति थी और न ही जोश, भाजपा का नेतृत्व भीतर से घबराया हुआ होने के बावजूद जोशीला था.
शायद कुछ विशेषज्ञ इसे एंटी-इंकमबेंसी कहकर ख़ारिज कर दें पर विचारों की उस ताकत को पहचानना जरूरी है जिसकी ईंटों पर भाजपा ने अपना ये किला बनाया है.
इस नए किले में हिंदुवाद के अलावा बदलते वक़्त के साथ भारतीयता, आर्थिक अपेक्षाएं, और कुछ सपने रहने लगे हैं. भाजपा इन्हें हासिल करने में कितना सफल होगी या होगी भी या नहीं, ये एक अलग सवाल है.
पर दो बातें पिछले दो सालों में स्पष्ट हो चुकी हैं. पहली, भाजपा ये बताने में सफल रही है कि वो एक नए भारत के निर्माण का विचार रखती है और दूसरी, विपक्ष के पास ऐसा कोई विचार नहीं है.
आने वाले समय में ऐसा प्रतीत नहीं होता की विपक्ष एक ताकत के रूप में उभरेगा. साथ ही साथ 1950 -60 के दशक के विपरीत, जब कांग्रेस विपक्ष को प्रोत्साहित करती थी, भाजपा अपने अधिकतर समय का उपयोग इस बहुमत के बाद, संगठनात्मक तौर पर अन्य दलों को समाप्त करने में करेगी, ऐसा कहा जा सकता है.
भाजपा के पिछले वर्षों के राजनीतिक करतूतों से ये स्पष्ट है कि वो केवल एक खास प्रकार का विरोध ही बर्दाश्त करेगी, संगठनात्मक वैचारिक विरोध नहीं.
ऐसे में अगर अगले कुछ वर्ष भारतीय राजनीति में दलों के रूप में विपक्ष के होते हुए भी एक विचार के रूप में विपक्षविहीन राजनीति के उभरने की प्रबल संभावना है.
क्या इसका अर्थ ये है कि भारतीय जनतंत्र पर काले बादल छाने वाले हैं? मेरा मानना है कि इसके विपरीत अब भारतीय राजनीति में नए विचारों और विवादों की संभावनाएं हैं.
अब भारतीय राजनीतिक पटल पर नए सिद्धांतों, नए मूल्यों और नए जोश, और इन सबसे परे, एक रचनात्मक राजनीतिक पहल की संभावनाएं है.
अगर ये चुनाव भाजपा के लिए नई संभावनाएं ला सकता है तो एक नई सोच रखने वाले नया सपना रखने वाले भारतीय के लिए क्यों नहीं?
हालांकि इसके लिए ज़रूरी है कि विपक्ष भाजपा से कुछ सीखे. जिस तरह भाजपा ने अपनी छवि बदलने के लिए कड़ी मेहनत की है उसी तरह विपक्षी राजनीति को अपनी पुरानी छवि तोड़ने और नई छवि बनाने के लिए काम करना होगा.
इसके लिए कड़ी मेहनत और लगन की ज़रूरत है. और ऐसा किसी मैनेजमेंट से नहीं अपितु नए राजनीतिक विज़न से हो सकता है. विपक्ष को एक नए अल्टरनेटिव के रूप में नए भारत का सपना बुनना होगा जो भाजपा के हिंदूवादी, आर्थिक आधार पर खड़े विचार को चुनौती दे सके.
विपक्ष को नए मूल्यों का निर्माण और संकलन करना होगा जिसमें अस्मिता और देशभक्ति भी शामिल हो और विकास और सम्पन्नता की सोच भी. जिसमें तिरंगा भी हो और लाल, नीला, हरा, पीला और भगवा झंडा भी समाहित हो सके. तभी भारतीय जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका रहेगी अन्यथा हम एक विपक्ष-विहीन चुनावी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं.
(लेखक जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)