गोरखपुर-फूलपुर उपचुनाव: सपा और बसपा के इस गठजोड़ में अगर कांग्रेस भी शामिल हो गई तो भाजपा को देश के सबसे बड़े राज्य में निराशा ही हाथ लगेगी.
उत्तर प्रदेश के उपचुनाव परिणामों ने भारतीय जनता पार्टी के लिए ख़तरे की घंटी बजा दी है. साफ़ संदेश है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन 2019 के आम चुनाव तक चला तो भाजपा उत्तर प्रदेश में काफी पीछे रह जाएगी. और, यदि कांग्रेस भी इस गठबंधन में शामिल हो गई तो भाजपा को देश के सबसे बड़े राज्य में निराशा हाथ लगेगी.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या यह गठबंधन आगे जारी रह पाएगा? क्या भाजपा इसे तोड़ने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर नहीं लगा देगी? क्या मायावती और अखिलेश सीटों के बंटवारे कोई समझौता कर पाएंगे? नेतृत्व किसके हाथ में होगा? क्या कांग्रेस नेतृत्व में इतनी क्षमता है कि वह इस गठबंधन को टूटने से बचा सके और ख़ुद भी हिस्सेदार बने?
इन सवालों का जवाब 2018 में क्रमश: सामने आएगा. अभी तो यूपी के दोनों लोकसभा उपचुनावों में पराजय से भाजपा सदमे की स्थिति में होगी. यह हार मामूली नहीं है.
प्रदेश के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री दोनों अपनी-अपनी सीटें भी न जिता पाएं तो यह भाजपा और उसकी सरकारों के लिए शर्म और चिंता की बात होगी.
भाजपा के लिए बड़े ख़तरे का संकेत
गोरखपुर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का मज़बूत गढ़ रहा है. वे पांच बार यहां से सांसद रहे हैं. उससे पहले उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ जीतते थे. गोरखपुर ही नहीं, आस-पास की सीटों में भी आदित्यनाथ योगी की चलती थी.
अब जबकि वे मुख्यमंत्री हैं, उनकी ख़ाली की गई सीट पर भाजपा का हारना पार्टी ही के लिए नहीं, स्वयं उनकी निजी प्रतिष्ठा और उनकी सरकार की छवि पर भारी चोट है.
यह भी ध्यान देने की बात है कि मुख्यमंत्री योगी ने गोरखपुर उपचुनाव के लिए धुंआधार प्रचार किया. उन्होंने कई दिन तक वहां एक दर्जन चुनाव सभाएं कीं. विपक्षी नेताओं ने उतना प्रचार नहीं किया.
जले पर नमक की तरह प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के लोकसभा से इस्तीफ़े से ख़ाली हुई फूलपुर सीट भी भाजपा हार गई. यह दिलासे की बात नहीं है कि फूलपुर संसदीय क्षेत्र परंपरागत रूप से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की रही है और 2014 में यहां वह मोदी लहर के कारण ही जीत पाई थी.
फूलपुर सीट सपा इस तथ्य के बावजूद जीती है कि वहां बाहुबली अतीक़ अहमद भी प्रत्याशी थे जो इस सीट के एक विधानसभा क्षेत्र से लगातार जीतते आए हैं. इस बार भी अतीक़ तीसरे स्थान पर रहे.
इसके बावजूद भाजपा की हार महत्वपूर्ण संकेत देती है. दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों ने एकजुट होकर भाजपा के ख़िलाफ़ सपा प्रत्याशी का समर्थन किया.
उत्तर प्रदेश में योगी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है. क्या भाजपा की यह पराजय योगी सरकार के काम-काज पर नकारात्मक टिप्पणी है? या मोदी के प्रति 2019 के लिए मतदाताओं के रुख़ की बानगी? या फिर उत्तर प्रदेश के उस जटिल जातीय गणित की ताक़त का प्रदर्शन है जो बताता है कि पिछड़ी एवं दलित जातियां मुसलमानों के साथ मिल कर भाजपा के उग्र हिंदू राष्ट्रवाद पर भारी पड़ेंगी?
गठबंधन चलाना सबसे बड़ी चुनौती
अखिलेश और मायावती स्वाभाविक ही बहुत उत्साहित होंगे. वे अपनी चुनावी दोस्ती 2019 तक चलाना चाहेंगे. आंकड़े बताते हैं कि सपा-बसपा की दोस्ती भाजपा पर बहुत भारी पड़ेगी. कांग्रेस भी इसमें शामिल हो जाए तो भाजपा टिक नहीं पाएगी. 2014 में भाजपा को 42.63% वोट मिले थे. सपा-बसपा-कांग्रेस को मिलाकर 49.83% वोट मिले थे.
लेकिन सपा-बसपा के भारी अंतर्विरोध इसमें बड़ी बाधा बनने वाले हैं. उनका साथ वास्तव में ‘केर-बेर का संग’ है, जैसा प्रचार के दौरान योगी कह भी रहे थे.
दोनों दलों के जातीय समीकरण भी टकराव वाले हैं. मायावती राजनीतिक सौदेबाज़ी में बहुत सख़्त हैं. स्वभावत: उनका दावा होगा कि उपचुनावों की जीत बसपा वोटों के पूरी तरह सपा को मिलने के कारण हुई. इसी आधार पर वे अधिक से अधिक लोकसभा सीटें चाहेंगी.
अखिलेश इस गठबंधन में दूसरे नंबर की भूमिका हरगिज़ पसंद नहीं करेंगे. गठबंधन के नेता पर भी सहमति बहुत कठिन होगी. इस बड़ी बाधा को दूर करने के लिए आज न कांशीराम मौजूद हैं, न मुलायम जैसे रणनीतिकार सक्रिय.
भाजपा के संभावित दांव
भाजपा के रणनीतिकार भला इस गठबंधन को क्यों सफल होने देंगे? 1995 में जब सपा-बसपा का गठबंधन बड़ी कटुता व आक्रामकता के साथ टूटा था तो उसमें भाजपा की बड़ी भूमिका रही थी. आज 23 वर्ष बाद यह राजनीतिक रिश्ता फिर उसके गले की फांस बन रहा है तो वह चुप क्यों कर रहेगी?
राज्यसभा के चुनाव सामने हैं. बसपा के प्रत्याशी को सपा ने समर्थन दे रखा है. भाजपा हरसंभव कोशिश करेगी कि बसपा प्रत्याशी हार जाए. इसके लिए वह सपा विधायकों से क्रॉस वोटिंग कराने के लिए पूरी ताक़त लगा देगी.
इसीलिए उसने नौवां उम्मीदवार भी अंतिम क्षणों में उतारा. नरेश अग्रवाल को भाजपा में शामिल करके वह एक दांव चल ही चुकी है.
बसपा का उम्मीदवार हारा तो गठबंधन में तनाव आ जाएगा. मायावती अखिलेश पर आरोप लगा सकती हैं कि वे अपने विधायकों को गठबंधन के पक्ष में एकजुट नहीं रख सके. बसपा ने उपचुनाव में सपा के उम्मीदवार जिताए लेकिन सपा हमारे प्रत्याशी को नहीं जिता सकी. भाजपा इस आग में घी डालने से नहीं चूकेगी.
सपा-बसपा गठबंधन पर भारी पड़ने के लिए भाजपा अपने हिंदुत्व के एजेंडे को और आक्रामक बना सकती है. अयोध्या में राम मंदिर की सुगबुगाहट को वह तेज़ कर सकती है.
बिहार में लालू यादव की तरह ही केंद्र सरकार मायावती के ख़िलाफ़ भी सीबीआई को लगा सकती है ताकि वे गठबंधन से बाज आएं या अखिलेश ही उनसे दूर हो जाएं. आय से अधिक संपत्ति के मामले मायावती के ख़िलाफ़ हैं ही.
यह अखिलेश और मायावती की राजनीतिक समझदारी और रणनीति पर निर्भर करेगा कि वे भाजपा को हराने के लिए इस गठबंधन को कैसे क़ायम रखते हैं.
कांग्रेस की इसमें बड़ी भूमिका हो सकती है. इसके लिए उसे उत्तर प्रदेश में तीसरा किंतु छोटा सहयोगी बनना होगा.
कांग्रेस के लिए यह बड़ी क़ीमत देना होगा लेकिन 2019 में मोदी के मुक़ाबले लड़ने के लिए उसके पास और कोई रास्ता नहीं. क्या राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस यह क़ीमत चुकाने को राज़ी होगी?
(लेखक हिंदुस्तान अख़बार के लखनऊ एवं यूपी संस्करण के पूर्व कार्यकारी संपादक रहे हैं.)