देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बेघरों को आश्रय देने के तमाम दावे भले ही करें लेकिन हक़ीक़त यह है कि देश की राजधानी में मौजूद रैनबसेरे दिखावा मात्र हैं.
गर्मी की शुरुआत हो चुकी है. ऐसे में हर साल की तरह रैनबसेरों में रहने वाले बेघरों को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. मौसम के कहर का असली मतलब समझना हो तो आप शहरी बेघरों पर नजर डाल सकते हैं.
गांव-कस्बे से उखड़कर रोजी-रोजगार के लिए या फिर इलाज के लिए शहर के अस्पतालों में डेरा डालने वालों के लिए तो ज्यादा गर्मी या ज्यादा सर्दी का ही मौसम जैसे सितम बनकर आता है.
‘सेंटर फॉर हॉलिस्टिक एंड डेवलेपमेंट’ नामक एनजीओ द्वारा जारी किए आंकड़ों के अनुसार पिछले साल (मार्च से लेकर जून तक) करीबन एक हजार बेघरों की मौत गर्मी के कारण हुई थी.
कई गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि शहरी क्षेत्रों में ठंड से ज्यादा गर्मी में बेघरों की मौत होती है. लेकिन शायद हमारी व्यवस्था इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देती है.
यमुना पुश्ता स्थित एक रैनबसेरे के संचालक निशु त्रिपाठी कहते हैं,‘सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि ठंड में लगाए गए टेंट शेल्टरों को अप्रैल की शुरुआत में ही हटा दिया जाता है. जिससे कि रैनबसेरों की संख्या में भारी कमी आ जाती है. इसकी वजह से कई बेघरों को बाहर सड़क पर सोना पड़ता है. टीन के बने पोर्टा केबिनों की दीवारें इतनी गर्म हो जाती हैं कि लोगों को उसमें भी रहने में दिक्कत आती है. ठंड में जहां हर रैनबसेरे में नियमित रूप से डॉक्टरों के विज़िट करने के नियम बनाए जाते हैं वहीं गर्मियों में ऐसा कोई नियम देखने को नहीं मिलता.’
यानी अगले कुछ महीने में पड़ने वाली भयंकर गर्मी के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं. आश्रय घर जैसे ढांचे मौजूदा समय में केवल चारदीवारी बनकर रह गए हैं. बेघरों के प्रति सरकार की सक्रियता केवल अत्यधिक ठंड के मौसम में ही नज़र आती है. वहीं गर्मियों में इनकी ना तो कोई विशेष व्यवस्था की जाती है और ना ही इन पर कोई ध्यान देता है.
गर्मी के मौसम में इनकी कितनी उपयोगिता है, इसका न तो ठीक-ठीक अंदाजा लगाया जाता है, न व्यवस्था की जाती है और न ही किसी और स्तर की सक्रियता होती है.
रैनबसेरों को लेकर सबसे ज्यादा सक्रियता अत्यधिक ठंड के मौसम में ही नजर आती है, जब इनका एक या दो दौरे में औचक निरीक्षण होता है, कोर्ट इनके लिए निर्देश जारी करती है, एनजीओ के लोग एडवोकेसी करते हैं.
लेकिन उन दौरान भी उनके क्या हालात होते हैं इसकी पड़ताल करने के लिए हमने दिसंबर-जनवरी महीने में दिल्ली शहर के कई रैनबसेरों का दौरा किया. उनके हालात कुछ यूं थे.
31 दिसंबर की रात साढ़े 11 बजे-तापमान गिरते ही यमुना पुश्ता का यह इलाका कोहरे की धुंध में अदृश्य हो जाता है. जैसे-जैसे रात ढ़लने लगती है, यहां मौजूद सभी पोर्टा केबिन और अस्थायी टेंट शेल्टरों में खचा-खच लोग भरने लगते हैं. जिन शेल्टरों में लोगों के सोने की क्षमता 150 है, वहां 200 से भी अधिक लोग सो रहे हैं. आपको बता दें कि यमुना पुश्ता के इस इलाके में कोई भी स्थायी (यानि पक्का) रैन बसेरा नहीं है.
रात साढ़े तीन बजे के आसपास वहां स्थित आखिरी टेंट शेल्टर से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक भयावह दृश्य सामने देखने को मिलता है. प्लास्टिक की बोरी और धूल से सने कंबल में खुद को लपेटे कई लोग यमुना नदी के किनारे स्थित पानी की सीमेंटेड पाइप के नीचे सो रहे हैं. पेड़-पत्तों और पाइप पर जमीं ओस की ठंडी बूंदे उनके प्लास्टिक की बोरी पर टपक रही है.
वहीं पाइप के नीचे सो रहे अनिल नाम के एक शख्स से हमारी बातचीत हुई. जलपाईगुड़ी, बंगाल के अनिल 45 वर्ष के हैं. दिल्ली आए हुए करीब एक साल से अधिक हो गए हैं. पिछले तीन महीने से बेरोजगार हैं, इसके पहले वो शादी-पार्टियों में काम किया करते थे.
यह पूछने पर कि वो वो रैन बसेरे में जाकर क्यों नहीं सोते, अनिल कहते हैं, ‘रैनबसेरों में पर्याप्त जगह नहीं होती. छोटी-छोटी बात पर लड़ाई-झगड़ा होना वहां के लिए आम बात है. यहां जगह भी है और शांति भी. दिनभर की हताशा के बाद इतनी हिम्मत नहीं बचती कि जगह के लिए वहां के लोगों से बहस करूं.’
यह समस्या केवल अनिल की नहीं बल्कि यमुना नदी के किनारे सो रहे ज्यादातर बेघरों की है. करीब 250 से 300 लोग यहां खुले में सोते हैं. ठंड का प्रकोप इस कदर है कि वहां सोए लोग शरीर में गरमाहट के लिए कुत्तों का सहारा लेने को मजबूर हैं.
पिछले कई दिनों से लगातार शहर के अलग-अलग इलाकों में स्थित रैनबसेरों की स्थिति का जायजा लेने के बाद ये बात तो साफ हो गई कि चाहे वो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से 100 मीटर की दूरी पर स्थित अजमेरी गेट का रैनबसेरा हो या (फाउंटेन चौक) चांदनी चौक का रैन बसेरा. हर जगह बेघर लोगों की भीड़ तो है लेकिन पक्के रैनबसेरे का सहारा नहीं है.
शहर में बेघरों की संख्या
सन 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में 46, 724 बेघर लोग रहते है. वहीं डूसिब या डीयूएसआईबी (दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड) द्वारा 2014 में किए गए सर्वे के अनुसार दिल्ली में केवल 16,760 बेघर हैं.
दिल्ली सरकार डीयूएसआईबी द्वारा बताए गए इस आंकड़ों पर ही विश्वास करते हुए बेघरों के लिए योजनाएं बनाती है. इन आकंड़ों की सच्चाई जानने के लिए जब हमने डूसिब के एक अधिकारी से बात कि तो उन्होंने बताया कि दिल्ली में बेघरों की जनसंख्या पर हाईकोर्ट में अपील हुई थी जिसमें कोर्ट ने भी डूसिब द्वारा 2014 में कराए गए सर्वे को सही माना.
वहीँ समाजसेवी सुनील अलेडिया के मुताबिक सामाजिक सुविधा संगम के तहत दिल्ली सरकार द्वारा 2010 में किए गए सर्वे के अनुसार 55 हजार बेघर हैं.
बेघर लोगों के अनुपात रैन बसेरों की संख्या-डीयूएसआईबी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार शहर में 257 रैन बसेरे मौजूद हैं. जिनमें स्थायी बिल्डिंग वाले रैन बसेरों की संख्या 83 है ,वहीं पोर्टा केबिन (115) और अस्थायी टेंट शेल्टरों की संख्या (58) है.
इसके अलावा एक सब-वे भी है,जिसमें करीब 350 लोग सो सकते हैं. वहीं कुल 257 रैन बसेरों में 20,534 लोगों के रहने की क्षमता उपलब्ध है.
तो अगर डीयूएसआइबी द्वारा जारी की गई बेघर लोगों की संख्या के अनुपात रैनबसेरों की संख्या और उनमें लोगों के रहने की क्षमता देखें, तो दोनों ही पर्याप्त नजर आते हैं.
फिर ऐसा क्या है कि लोग अब भी खुले में सोने को मजबूर हैं, इसी का कारण जानने के लिए हमने पहले डीयूएसआईबी की साइट को खंगाला. हमारी पड़ताल में हमने जो पाया, वो बेहद चौंकाने वाला था.
क्या है डीयूएसआईबी के दावे की सच्चाई?
डीयूएसआईबी की साइट पर रैनबसेरों की कुल संख्या, उनमें लोगों के रहने की क्षमता, उपलब्ध जगह आदि सभी जानकारियां दी हुई हैं.
वेबसाइट पर दी हुई 253 रैनबसेरों की लिस्ट में सबसे पहले नाइटशेल्टर (NS Code-1) पर अगर हम नजर डालें तो पता चलता है कि 150 लोगों की क्षमता वाले इस शेल्टर का क्षेत्रफल 3,299.23 स्क्वायर फीट का है, वहीं उससे दुगुनी यानि 310 लोगों की क्षमता वाले दूसरा नाइटशेल्टर भी 3,299 स्क्वायर फीट का ही है.
कहीं 4,522 स्क्वायर फीट वाले रैनबसेरे में 300 लोगों के रहने की क्षमता दिखाई गयी है तो कहीं 755.22 स्क्वायर फीट में 450 लोगों की.
लोगों के रहने की क्षमता और आवंटित जगह का उलटफेर केवल स्थायी नाइटशेल्टरों में नहीं है, बल्कि पोर्टा केबिन और टेंट शेल्टरों में भी है. जहां एक तरफ 914 स्क्वायर फीट वाले पोर्टा केबिन में 50 लोग रह रहे हैं, वहीं उतने ही क्षेत्रफल में बना यमुना पुस्ता स्थित पोर्टा केबिन रैनबसेरे में 225 लोगों के रहने की क्षमता बताई गई है.
मतलब शेल्टरों में कम जगह होने के बावजूद डीयूएसआईबी ने लोगों के रहने की क्षमता को बिना किसी पैमाने के बढ़ा-चढ़ा कर लिख दिया है.
राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (डीएवाई-एनयूएलएम) ‘शहरी गरीबों के लिए आश्रय’, के निर्देशानुसार एक व्यक्ति को सोने के लिए 50 स्क्वायर फीट की जगह चाहिए.
मगर डीयूएसआईबी की साइट के हिसाब से यमुना बाज़ार, हनुमान मंदिर फ्लाईओवर स्थित टेंट शेल्टर में सोने वाले एक व्यक्ति को ढंग से 2 स्क्वायर फीट की जगह भी नसीब नहीं हो रही.
यहां तक की आपदा प्रबंधन के निर्देशानुसार आपदा के वक्त भी लोगों को सोने के लिए कम से कम 37 स्क्वायर फीट की जगह मिलनी चाहिए. तो फिर क्या दिल्ली में आपदा से भी गंभीर स्थिति उत्पन्न हो चुकी है?
इसको लेकर डीयूएसआईबी के अधिकारी ने बताया कि सेंट्रल दिल्ली के कुछ इलाके जैसे कश्मीरी गेट और अजमेरी गेट में लोगों का आवागमन बहुत ज्यादा होता है और वहां डीडीए द्वारा पर्याप्त जमीन न मिलने के कारण सुविधायुक्त रैन बसेरा बनाने में दिक्कत आती है.
(डीयूएसआईबी एक इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट है, जिसके ऊपर रैनबसेरों की देखरेख व व्यवस्था की ज़िम्मेदारी है.)
रैनबसेरे में मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं की सच्चाई
शहर के अलग-अलग रैनबसेरों का हाल जानने के बाद हमें दिल्ली सरकार द्वारा रैनबसेरे में बुनियादी सुविधाएं जैसे शौचालय, स्वच्छ पेयजल, कंबल, बिस्तर आदि की उपलब्धता के ये दावे भी खोखले नज़र आए.
शौचालय और लोगों के नहाने की स्थिति
राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (डीएवाई-एनयूएलएम) ‘शहरी गरीबों के लिए आश्रय’, के ही निर्देशानुसार रैन बसेरे में रहने वाले प्रति दस व्यक्ति पर एक शौचालय की व्यवस्था होनी चाहिए.
मगर दिल्ली रेलवे स्टेशन से 100 मीटर की दूरी पर स्थित अजमेरी गेट रैन बसेरे में रह रहे 400-500 लोगों पर केवल 3 शौचालय और 2 बाथरूम ही उपलब्ध हैं. जबकि नियमानुसार वहां 40-50 शौचालय की व्यवस्था होनी चाहिए थी.
वहां के केयर टेकर विक्की के बताते हैं, ‘शौचालय की कमीं के कारण यहां रहने वाले लोगों को बहुत दिक्कत होती है. सुबह-सुबह लंबी लाइन लग जाती है. लोगों की कतार इतनी लंबी होती है कि कुछ लोग खुले में शौच करने पर मजबूर हो जाते हैं.’
वहां से थोड़ी ही दूर पर स्थित हिम्मत गढ़ चौक रैन बसेरे में पिछले आठ महीने से रह रहे रिक्शा चालक सलमान वहां कि समस्याओं के बारे में बात करते हुए बताया, ‘ मैं जब यहां आया था तो शौचालय की सुविधा नि:शुल्क थी. लेकिन पिछले दो महीने से सरकार शौचालय इस्तेमाल करने के भी पैसे ले रही है. शौचालय के नाम पर सरकार ने तीन प्लास्टिक के डब्बे तो बाहर खड़े कर दिए हैं. मगर उसमें नहाने-धोने की व्यवस्था नहीं है.’
जिनके लिए दिन के 100 रुपये कमाना भी मुश्किल है उन लोगों को नहाने से लेकर कपड़े धोने के लिए अलग से पैसे देने पड़ते हैं.
गंदगी इतनी कि रात गुजारना मुश्किल
रैनबसेरों में लोगों के नहीं सोने की एक बड़ी वजह है वहां की साफ-सफाई में कमीं. ज्यादातर रैनबसेरे ऐसी जगह पर बने हैं, जहां गंदगी बहुत है. यहां रात गुजारना किसी मुसीबत से कम नहीं.
मोतियाखान स्थित पारिवारिक व पुरुष स्थायी रैनबसेरा इसका सटीक उदाहरण है. इसके प्रवेश द्वार पर ही कचरे का अंबार लगा है.
मल-मूत्र से गंदी पड़ी दीवारों पर ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव तो है, मगर बदबू अब भी बरकरार है. भीतर की अवस्था भी जुदा नहीं है. शेल्टर के फर्श और सीढ़ियों पर गंदगी मैल की परत इस कदर जमीं है कि देखकर ऐसा लगे मानों कई महीनों से साफ-सफाई नहीं हुई.
अलग-अलग रैनबसेरे में रहने वाले लोगों से हुई बातचीत में यह बात सामने आई कि शेल्टर की हर रोज सफाई तो दूर की बात है, लोगों द्वारा इस्तेमाल की जा रही दरी और कंबल भी नियमित रूप से साफ नहीं होते.
वहीं कुछ रैनबसेरों के बाहर शौचालय के प्लास्टिक डब्बे रख दिए गए हैं,जो गंदगी और बीमारियों का एक बड़ा कारण बन जाते हैं.
फर्स्ट एड के नाम पर एक्सपायर्ड दवाइयां
नाइटशेल्टर में डॉक्टर नियमित रूप से आते हैं या नहीं, इसकी जांच के लिए वहां के विजिटर रजिस्टर को खंगाला गया. जिससे पता लगा कि रोसानारा रोड, सराय फूश, रेघड़पुरा, खारियान मोहल्ला आदि स्थित रैनबसेरों में पिछले कई दिनों, महीनों से डॉक्टर नहीं आए हैं.
प्राथमिक उपचार के नाम पर रेघड़पुरा व खैरियान मोहल्ला आदि स्थित रैनबसेरों की फर्स्ट एड बॉक्स में एक्सपायर्ड दवाइयां रखी हैं.
वहीं सराय कालेखां स्थित नाइटशेल्टरों में दवाई का पर्याप्त स्टॉक नहीं है. फर्स्ट एड में बुखार की दवा भी नहीं मिलती.
कहीं-कहीं मोहल्ला क्लीनिक की व्यवस्था है भी तो वह सुबह 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक ही खुली रहती है.
सरकार ने ठंड में रैनबसेरों में रह रहे लोगों के लिए एक ‘मोबाइलहेल्थस्कीम’ भी चलाई थी. जो वर्तमान में सिर्फ कागज़ों पर ही चल रही है.
डीयूएसआईबी की साइट पर इस स्कीम का नाम तो लिखा है मगर उसके परिपालन की जानकारी उपलब्ध नहीं है.
बकौल मेडिकल ऑफिसर सुशील माइकल,‘साउथ जोन के नाइटशेल्टरों में डॉक्टर को भेजे जाने के लिए फिलहाल वैन की कमीं हैं. जो कि कुछ दिनों में पूरी होने की उम्मीद है.’
समान चोरी हो जाने का डर
बिहार के पूर्णिया जिले से आए रिक्शा चालक अब्दुल्ला के रैनबसेरे में नहीं सोने की अपनी वजह है. रैनबसेरे के बाहर से रिक्शा चोरी हो जाने का डर रहता है.
कूड़े बीनने वालें भी इसीलिए शेल्टर में नहीं सो पाते क्योंकि वहां उनके बोरियों को रखने की पर्याप्त जगह नहीं होती. अबदुल्ला और उनके ही जैसे अन्य लोग रिक्शे पर या सड़क किनारे, कूड़े के बगल में अपनी रात काटने को विवश हैं.
प्राइवेसी का नहीं रखा गया है ख्याल
मुनिरका फ्लाईओवर के नीचे रह रहे इकब़ाल के परिवार वाले भी रैनबसेरे की जगह सड़क पर सोना ठीक समझते हैं. शहर में पारिवारिक रैनबसेरों की बहुत कमीं है. कुछ हैं भी तो वहां प्राइवेसी जैसी कोई चीज नहीं है.
इसलिए परिवार के साथ रहने के लिए लोग सड़क पर सोने को मजबूर हैं. जबकि नियमानुसार पारिवारिक रैन बसेरों में प्राइवेसी यानि निजता का ख्याल रखा जाना चाहिए.
रैनबसेरों की ऐसी बदहाल स्थिति में बेघर झुग्गी में पैसे देकर रहने को मजबूर
कई दिनों तक रैनबसेरे में रह चुके रमेश कहते हैं- रोज़-रोज़ के झगड़े-मारपीट, सुविधाओं की कमीं, केयरटेकर का सख्त रवैया, चोरी और वहां की गंदगी ने मुझे झुग्गी-झोपड़ी में रहने को मजबूर कर दिया. आज मैं यहां साढ़े तीन हजार रुपया प्रति माह किराया देकर रहता हूं. जबकि रैनबसेरे में ये सुविधा नि:शुल्क थी. महीने के जो 9,000 कमाता हूं, उसका एक बड़ा हिस्सा किराया में चला जाता है. लेकिन क्या करूं, रैनबसेरे की स्थिति देख मेरी वहां रहने की हिम्मत नहीं होती.
शहर के कई रैनबसेरे ऐसे भी हैं जहां सारी सुविधाएं मौजूद तो हैं, मगर वह ऐसी जगह बना दिए गए हैं कि लोगों को इसकी जानकारी ही नहीं है.
200 से 300 लोगों के सोने की क्षमता वाले शेल्टरों में 20 से 30 लोग ही रह रहे हैं. जो रैनबसेरे अच्छी सोसाइटी में बने हैं, वहां रह रहे सोसाइटी के अन्य लोग ही बेघरों को अपने मोहल्ले में देखना नहीं चाहते. उदाहरण के तौर पर रोसनारा रोड, खारियान मोहल्ला आदि रैनबसेरे मौजूद हैं.
महिला रैनबसेरों की स्थिति
बंगला साहिब स्थित रैन बसेरे में रहने वाली किरण की दस वर्षीय बेटी को वहीं रहने वाले रितिक नाम के एक शख्स ने जबरदस्ती चूमने की कोशिश की. जब इस बात का पता किरण को चला तो उसने इस पर आपत्ति जताई. जिसके बाद रितिक और उसके साथियों ने मिलकर उन्हें प्रताड़ित किया.
वहीं, रहने वाली वंदना के साथ तो इससे भी बुरा हुआ था. वो याद करते हुए बताती हैं, मैंने रात में कुछ लड़कों को यहीं रैनबसेरे के परिसर में एक लड़की के साथ जबरदस्ती करते देखा. उस रात मैंने उन गुंडों से उसे बचा तो लिया, मगर थाने में कंप्लेन करने की ये कीमत मुझे चुकानी पड़ेगी इसका बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था. वो लड़के उस रात तो भाग गए लेकिन अगले ही दिन उन उन्होंने मेरी बुरी तरह पिटाई की.
कुछ दिनों बाद वो फिर आए. इस बार 10-12 की तादाद में, देखकर ही लग रहा हो मानों जान से मारने की मंशा से आए हों. लोहे के रॉड और डंडे से उन्होंने इसी परिसर में सभी के सामने मुझे पीटा. मैं अधमरे हालत में हो चुकी थी पर वहां खड़े लोगों में से किसी ने चूं तक नहीं की. 15 दिन राम मनोहर अस्पताल में भर्ती रही. जख्म ऐसे थे कि अंदर चार उंगलियां घुस सकती थी. पूरे 8 बोतल खून और 12 टांके लगे थे.
इस बीच महिला आयोग वाले आए थे, मगर कोई सुनवाई नहीं हुई. अभी भी वो लड़के इस शेल्टर में आग लगाने की धमकी दे गए हैं, जहां मैं काम करती हूं.
एक ही परिसर में बना बंगला साहिब का पुरुष और महिला रैनबसेरे में इसके पूर्व भी एक 6 वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार की घटन सामने आई थी.
रैनबसेरे में सोने वाली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की खबरें अक्सर मीडिया में आती रहती है. 2016 में ही हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में डीयूएसआईबी के प्रमुख वी.के जैन ने यह माना था कि महिला रैनबसेरों में सुरक्षा व्यवस्था की भारी कमी है. जिसके बाद उन्होंने शेल्टरों में सीसीटीवी कैमरे, 4 केयरटेकरों की नियुक्ति, सुरक्षा गार्ड, एक दिन में कम से कम तीन दफे पुलिस कॉन्सटेबल का महिलाओं की शिकायतें सुनने के लिए दौरा करना जैसी तमाम वायदे किए थे.
मगर ना उन 19 के 19 रैनबसेरों में 4 केयरटेकरों को रखा गया और ना ही नियमित तौर पर पुलिस कॉन्सटेबल का दौरा हुआ. खानापूर्ति के लिए सीसीटीवी कैमरे अमूमन सभी शेल्टरों में लगा दिए गए.
इस मुद्दे पर जब हमने डीयूएसआईबी के मुख्य कार्यकारणी अधिकारी शूरवीर सिंह से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
शहर में बेघर महिलाओं की संख्या
2011 की जनगणना के अनुसार शहर में 9,240 बेघर महिलाएं हैं. जबकि 2014 में डूसिब द्वारा किए सर्वे के मुताबिक इनकी संख्या 900 के करीब है.
क्या महिला रैनबसेरों की संख्या पर्याप्त है?
बेघर महिलाओं की संख्या के अनुपात दिल्ली में 7 पक्के और 12 पोर्टा केबिन रैनबसेरे मौजूद हैं. डीयूएसआईबी यह दावा करती है कि इन 19 रैनबसेरों में 1,244 महिलाओं के रहने की क्षमता है. जबकि इनमें 24,944.42 स्क्वायर फीट की ही जगह है. अगर एनयूएलएम की गाइडलाइन की माने तो प्रति महिला को सोने के लिए कम से कम 50 स्क्वायर फीट जगह मिलनी चाहिए. ऐसे में 1,244 महिलाओं के लिए 62,200 स्क्वायर फीट जगह होनी चाहिए. अब डीयूएसआईबी 500 लोगों के रहने की ही क्षमता वाले इन 19 रैनबसेरों में 1,244 महिलाओं के रहने की क्षमता किस आधार पर बता रहा है, यह आश्चर्य का विषय है.
रैनबसेरों की कमीं और वहां होने वाली असुविधाओं और असुरक्षा के कारण महिलाएं सड़क किनारे सोने को मजबूर हैं, मगर वहां की स्थिति भी जुदा नहीं है.
रेहड़ी-पटरी पर सोने वाली महिलाओं का दर्द
‘वो कहते हैं, हमारी बच्ची को विदेश में बेच दिया है. दो साल की ही तो थी. यहीं सड़क किनारे से रात के करीब 1-2 बजे कोई चुराकर ले गया मेरी नातिन को. इकलौती बच्ची थी वो मेरी बेटी की. हमने कहां-कहां नहीं ढ़ूंढ़ा उसे. कुछ हाथ नहीं लगा, सिवाय उसके कपड़ों के जो उसने उस रात पहन रखे थे. अगले दिन उन कपड़ों को कोई यहां फेंक गया था. आज करीब तीन साल हो गए, उसके लापता हुए. हाईकोर्ट में केस चल रही है. निक्कमी पुलिस कहती है, तुम्हारी बच्ची को उन्होंने विदेश में बेच दिया है. अरे! तो उन्हें ढ़ूंढ कर लाओ न.’
70 साल की बसंती यह कहते-कहते रो पड़ती हैं. करीब दो दशकों से अरबिंदो मॉर्ग की सड़क किनारे रह रहे इस परिवार का दर्द सुनने वाला कोई नहीं.
बसंती की बहू गीता बताती हैं-सड़क किनारे सोना हमारी मजबूरी है इसीलिए मैंने अपनी बेटी को ननिहाल भेज दिया. रैनबसेरे में रह नहीं सकते क्योंकि पति-बच्चे साथ में रहते हैं.
वहीं बंगला साहिब रैनबसेरे के बाहर सड़क किनारे सोने वाली संजना के लिए रेहड़ी- पटरी ज़्यादा सुरक्षित है.
वो कहती हैं,‘वैसे तो अनहोनी को कोई नहीं रोक सकता मगर रैनबसेरे में छेड़खानी और बलात्कार जैसी घटनाओं को आसानी से अंजाम दे दिया जाता है. यही कारण है कि मैं अपनी बच्चियों के साथ बाहर सोती हूं.’
मगर ठंड में खुले सड़क पर सोने की वजह से हर साल करीब हजार-दो हजार बेघरों की मौत हो जाती है.
हर साल होने वाली इन मौतों का जिम्मेदार कौन?
ठंड के मौसम की शुरुआत से ही बेघरों की मौत का आंकड़ा लगातार बढ़ने लगता है. पिछले साल दिसंबर तक 253 बेघर लोगों की मौत हो गई थी. वहीं इस साल अब तक करीब 44 लोगों की मौत हो चुकी है.
इसी के सिलसिले में जब डीयूएसआईबी के अधिकारी बिपिन राय से बात की तो उन्होंने कहा,‘मीडिया गलत आंकड़े दिखा रही है. इनकी मंशा आंकड़ों को लेकर राजनीति करना है. 44 लोगों में से 10 लोग तो नशे के ओवरडोज से मरे हैं. इसमें हमारा क्या दोष है.’
सरकार यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है कि बाहर सोने वाले लोगों की मौत ठंड से नहीं बल्कि नशे के ओवरडोज से होती है. मगर क्या शहर में चलाए जा रहे नशामुक्ति केंद्र पर्याप्त हैं?
आपको बता दें कि वर्तमान में डीयूएसआईबी द्वारा केवल 4 नशामुक्ति केंद्र चलाए जाते हैं. ऐसे में लोगों की इस स्थिती का जिम्मेदार क्या सरकार नहीं है?
बेघरों के हक के लिए काम कर रही ‘सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डेवलपमेंट संस्थान’ के निदेशक सुनील कुमार आलेडिया कहते हैं,‘दिल्ली विधान सभा सत्र में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने एक बार कहा था कि किसी भी शख्स की मौत अगर भूख या नशे से होती है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार की है. फिर इसकी ज़िम्मेदारी वो क्यों नहीं उठाते.’
रैनबसेरों की संख्या और उनका संचालन अगर संतोषजनक होता,तो ऐसी स्थिति ही नहीं उत्पन्न होती. रैनबसेरों को एनजीओ चलाती है और इनके आवंटन की प्रक्रिया टेंडर के माध्यम से होती है.
रैन बसेरों के आवंटन कि प्रक्रिया में होने वाली दिक्कतें
दिल्ली में चलने वाले रैन बसेरों के संचालन की जिम्मेदारी एनजीओ को दिया जाता है. वर्तमान समय में कुछ रैन बसेरों का संचालन पैनल सिस्टम द्वारा किया जा रहा है तो कुछ का टेंडर प्रक्रिया के तहत.
2015 में बने पैनल सिस्टम में उस समय के न्यूनतम वेतन के हिसाब से 45 हजार रुपये प्रति रैन बसेरा दिया जा रहा है. इसमें 3 केयर टेकरों और एक सफाई कर्मचारी के वेतन के साथ ही रैन बसेरों पर आने वाले आकस्मिता खर्च भी जुड़ा होता है.
फरवरी 2017 के बाद दिल्ली में कर्मचारियों के मिलने वाले वेतन में 37 फीसदी की वृद्धि की जिसके बावजूद पिछले एक साल में डीयूएसआईबी ने रैनबसेरे में काम करने वाले कर्मचारियों का वेतन एक प्रतिशत भी का भी इजाफा नहीं किया गया है.
पैनल सिस्टम के अंतर्गत रैन बसेरा का संचालन करने वाले कुछ एनजीओ के मालिकों ने बताया,‘वैसे तो मार्च 2017 में ही दिल्ली सरकार ने बढे हुए वेतन का सर्कुलर जारी कर दिया था लेकिन डीयूएसआईबी द्वारा दिसंबर तक कोई भी भुगतान नहीं किया गया. जिससे हमें रैन बसेरे के खर्च को खुद से उठाना पड़ा. 9 महीने बाद जब डूसिब ने पैसे दिए तो नए न्यूनतम वेतन के मुताबिक कोई बढ़ोतरी नहीं हुई थी.’
इसका कारण जानने के लिए जब हमनें डीयूएसआईबी के अधिकारी से संपर्क किया तो उन्होंने कहा,‘एनजीओ को शीघ्र ही पैसे दिए जाएंगे. अभी कुछ फाइलें अटकी हुई है जल्द ही उनका समाधान निकलेगा.’
डीयूएसआईबी द्वारा पैसे नहीं मिलने के कारण जहां एनजीओं को तीन केयरटेकर की जगह वो 2 को ही रख कर किसी तरह से काम चला रहीं है. लगभग एक साल से अटकी फाइलों की निकासी कब तक होगी और कब जाकर के रैन बसेरों में काम करने वालों के वेतन में कब वृद्धि होगी ये आने वाला वक़्त ही बताएगा.
क्या टेंडर है इसका समाधान?
डीयूएसआईबी ने रैन बसेरों के संचालन में आई दिक्कतों का समाधान टेंडर यानि बोली की प्रक्रिया के तहत निकालने का फैसला किया है. जिसके अंतर्गत जो एनजीओ सबसे अधिक बोली लगाएगी यानि जो एनजीओ सबसे कम रुपये में रखरखाव की ज़िम्मेदारी लेगी उसे ही रैन बसेरों का आवंटन किया जाएगा.
रैन बसेरों के लिए काम करने वाले एनजीओ इस प्रक्रिया को लेकर आशंकित है. ‘महिला प्रगति की ओर’ नामक एनजीओ चलाने वाली उषा निश्चल का मानना है कि पैनल सिस्टम आवंटन प्रक्रिया ही सबसे उपयुक्त है जिसमें सरकार रैन बसेरे के कर्मचारियों को न्यूनतन वेतन के तहत पर्याप्त बजट मुहैया कराए. वहीं टेंडर प्रणाली लागू करने से कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन देने और रैन बसेरों को सुचारू रूप से चलाने में मुश्किल आएगी.
(दोनों लेखक आईआईएमसी में पढ़ते हैं.)