‘चाणक्य नीति’ जैसा कुछ नहीं, सब मीडिया मैनेजमेंट है

जहां भाजपा सफल हो जाती है, वहां ये कथित ‘चाणक्य नीति’ का ढोल पीटते हैं, जहां विफल हो जाते हैं तो कहते हैं कि अति-आत्मविश्वास हमें ले डूबा.

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जहां भाजपा सफल हो जाती है, वहां ये कथित ‘चाणक्य नीति’ का ढोल पीटते हैं, जहां विफल हो जाते हैं तो कहते हैं कि अति-आत्मविश्वास हमें ले डूबा.

Mayawati Akhilesh Facebook
उपचुनाव में जीत के बाद जश्न मनाते समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता (फोटो साभार: फेसबुक/समाजवादी पार्टी)

भाजपा उपचुनाव को लेकर बिल्कुल आश्वस्त थी. उसे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि उन्हें इतनी करारी हार मिलेगी. भाजपा ही नहीं विपक्षी दल भी खासकर उत्तर प्रदेश के, वो भी इतने आश्वस्त नहीं थे कि इतनी शानदार जीत होगी.

फूलपुर को लेकर जब मैं विपक्ष की बात सुनता था तो उनके कार्यकर्ता वहां दावा करते थे कि हो सकता है कि वे वहां जीत जाएं, लेकिन विपक्ष में तो उनके बड़े नेता और सक्रिय कार्यकर्ता भी इस तरह के दावे नहीं करते थे.

वे खामोश ढंग से काम करना चाहते थे क्योंकि वो बहुत कॉन्फिडेंट नहीं थे. ये अद्भुत है कि नेता से ज्यादा अवाम और वहां की सक्रिय जनता ने भाजपा के उम्मीदवारों को हराने में ज्यादा मेहनत की है.

मुझे लगता है कि इसकी वजह को दिल्ली या बाहर बैठे मीडिया के लोग या विश्लेषक और चैनलों पर बैठे टिप्पणीकार समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है.

मैं समझता हूं ऐसा इसलिए हुआ है कि उत्तर प्रदेश में जो आम मतदाता हैं, उनमें दो तरह के लोग हैं. एक तो वे जो भाजपा से पूरी तरह मुग्ध हैं कि यही ठीक हैं. समाजशास्त्रीय स्तर पर देखें तो इनमें ऊंची जातियों का एक बड़ा हिस्सा है. सभी ऊंची जातियां नहीं लेकिन इन जातियों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी मानता है कि भाजपा उनके लिए बेहतर हैं.

व्यापारी वर्ग का एक बहुत छोटा हिस्सा अभी बचा है जो भाजपा के पक्ष में है क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी से वो परेशान महसूस करता है. वे राजनीतिक तौर पर तो भाजपा से नाराज हैं लेकिन उनकी नाराजगी वोट में तब्दील नहीं होती.

हालांकि यह भी नहीं कह सकते कि व्यापारी समुदाय पूरी तरह भाजपा के पक्ष में है. इसमें भी विभाजन है. लेकिन जो दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक हैं, उनका एक बड़ा हिस्सा, खासकर ओबीसी का एक वर्ग था जो 2014 के आम चुनावों में भाजपा के पक्ष में भी गया था.

उत्तर प्रदेश के ग़ैर-यादव वर्ग में कुर्मी और कोईरी दो प्रमुख जातियां हैं, इनमें भाजपा ने ज़बरदस्त सेंध लगाई थी. उसकी मुख्य वजह यह थी कि बसपा और समाजवादी पार्टी (सपा) दोनों के शीर्ष नेतृत्व ने इन दोनों बिरादरियों के कार्यकर्ता, सामाजिक रूप से सक्रिय लोग, उभरते हुए वर्ग चाहे व्यापार में हो, या सेवा में हो आदि को नाराज कर रखा था.

उस समय इन दोनों बिरादरियों का बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा में चला गया क्योंकि उन्हें लगा कि भाजपा उन्हें समाज में ज्यादा बेहतर हिस्सेदारी देगी. 2014 में भाजपा ग़ैर-यादव ओबीसी में बहुत बड़ा विभाजन करा पाने में सफल रही. इसके बाद उत्तर प्रदेश में जो उसकी चुनावी कामयाबी थी, उसका मूल मंत्र भी यही था.

ऊंची जातियों का ध्रुवीकरण भी भाजपा के पक्ष में गया, साथ ही ग़ैर-यादव ओबीसी में बड़े तबके का भाजपा की तरफ जाना, ये उनकी सफलता के दो बड़े कारण थे.

अब इस चुनाव वो तबका, खासकर पिछड़ा वर्ग का बीते 4 साल से मोदी सरकार को देख रहा है. दलित तो पहले से ही कई कारणों से भाजपा से नाराज हैं. मोदी और उनकी पार्टी के लोग यह दावा करते हैं कि दलितों में भी उन्होंने विभाजन करा दिया है लेकिन मैं नहीं समझता कि दलितों में वैसा विभाजन कराने में उन्हें वैसी कामयाबी मिली है, जैसी ओबीसी में मिली.

दलित विपक्ष के साथ जुड़ा था, लेकिन ओबीसी काफी हद तक छिटक गया था. इस चुनाव में उसे लगा कि 4 साल से मोदी की सरकार चल रही थी, इसमें उसे न न्याय मिल रहा है, न तो उसको हिस्सेदारी मिल रही है.

न्याय और हिस्सेदारी न मिलने के इन दोनों पहलुओं की वजह से नाराजगी इकठ्ठा होती रही. इन आबादियों के जो युवा ने अपने परिवारों, अपनी आबादियों को मोबिलाइज़ किया कि अब इनके खिलाफ जाना चाहिए.

अंतर्विरोध से भाजपा हारी, यह फ़िज़ूल की थियरी है

आमतौर पर लोग नजरअंदाज कर रहे हैं कि मायावती और अखिलेश यादव के बीच जो अंडरस्टैंडिंग हुई, भले ही वो राजनीतिक तौर पर कोई ऐलानिया गठबंधन नहीं था, लेकिन जिस दिन मायावती ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी के समर्थक और कार्यकर्ता उस पार्टी या उस उम्मीदवार को वोट दें जो भाजपा प्रत्याशी को हराने में सबसे सक्षम और समर्थ हो, इसका तुरत असर हुआ.

पहले तो लोगों को समझ नहीं आया कि कैसे कहा क्यों कहा, लेकिन फिर इसका इतना तेज असर पड़ा कि कार्यकर्ताओं ने अपने कोऑर्डिनेटर से संपर्क करना शुरू किया. कोऑर्डिनेटर ने लखनऊ में अपने मुख्य ऑफिस में संपर्क किया कि हम किस हद तक समर्थन में जाएं. फिर ऊपर से इशारा मिला कि हमें अपनी सौ फीसदी ताकत लगा देनी है.

फूलपुर और गोरखपुर के कई विधानसभा क्षेत्रों में देखा गया कि बसपा के कार्यकर्ता बिना अपने किसी उम्मीदवार के, जैसे अपने उम्मीदवार को जिताने में मेहनत करते हैं, वैसे उन्होंने इस उम्मीदवार को जिताने का प्रयास किया.

दूसरा पहलू है, जिसे सभी नजरंदाज करते रहे कि उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर दोनों जगह ही सपा ने अपने पुराने ढर्रे में फेरबदल किया. अपनी पुरानी कमियों को रिव्यू किया.

खासकर पिछड़ी जातियों के प्रति जो एरोगेंस दिखाई देता है, उसमें बदलाव दिखाई दिया. अखिलेश यादव ने गोरखपुर में अपनी पार्टी के उम्मीदवार को ख़ारिज करके एक दूसरी पार्टी निषाद पार्टी के नेता प्रवीण निषाद को अपना टिकट दे दिया.

Gorakhpur: Samajwadi Party candidate Praveen Kumar Nishad flashes victory sign after his success in the bypoll elections, in Gorakhpur on Wednesday. PTI photo(PTI3_14_2018_000163B)
गोरखपुर से जीते सपा उमीदवार प्रवीण निषाद (फोटो: पीटीआई)

निषाद पार्टी स्थानीय स्तर की एक छोटी पार्टी है, जो चुनाव लड़ने की कोशिश कर रही है. इस इलाके में पीस पार्टी और निषाद पार्टी का बहुत अच्छा तालमेल रहा है. पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब, जो विधायक भी रह चुके हैं, का मायावती और अखिलेश यादव से भी अच्छा संवाद है. डॉ. अयूब ने भी वहां मेहनत की. निषाद पार्टी ने भी अपने आप को सपा से जोड़ा.

इससे यह संदेश गया कि ओबीसी में ऐसा तबका, खासकर यादव जो सपा से अपने आप को आइडेंटिफाई करता है, जो खुद को अति पिछड़ी जातियों से आगे मानता हैं या ताकतवर समझता है, वो अति पिछड़ी जातियों को आगे लाने के लिए समझौता करने को तैयार है.

इससे भी दूसरी अन्य अति पिछड़ी जातियों और दलित वर्ग में यह संदेश गया कि सपा का नेतृत्व पहले के मुकाबले अति पिछड़ों और दलितों के प्रति उदार और समझदार हुआ है. तो इन बातों ने गोरखपुर और फूलपुर के पूरे समीकरण को बदल डाला. मैं समझता हूं कि भाजपा की हार का यह असल कारण है.

जो लोग मानते हैं कि भाजपा में अंतर्कलह थी, मठ के उम्मीदवार को टिकट नहीं मिला, किसी और मिल गया, ऐसे किसी अंतर्विरोध से भाजपा हारी, यह फ़िज़ूल की थियरी है. ये पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की उभरती हुई नई एकता को यह थियरी नजरअंदाज करती है.

राष्ट्रीय स्तर पर बनी भाजपा की ‘अपराजेय’ और आदित्यनाथ ‘स्टार’ छवि की के पीछे सिर्फ प्रचार है. देश के मीडिया का बड़ा हिस्सा, जिसे कोई भजन मंडली कहता है, कोई मृदंग मंडली कहता है, ये बड़े चैनल बिना किसी तथ्य को जाने, बिना ठोस जानकारी के कुछ भी कहते रहते हैं.

इस तरह की बातें प्लांट की जाती हैं. नतीजे आने के दौरान की ही बात है कि एक बड़े चैनल में एक एंकर को कहते सुना गया कि बहुत बुरी खबर आ रही है, बिहार में भी भाजपा हार रही है. अब उनको यह बुरी खबर लगती है या किसी के जीतने को कोई अच्छी खबर बता दे! अखबार, पत्रकार या चैनल के लिए खबर खबर है, लेकिन चैनल के आदमी को लगता है कि अरे! ये हार रहा है तो बहुत बुरा हुआ, या ये जीत रहा है तो अच्छा हुआ!

जब हमारा मीडिया इस तरह का होगा, तो वो चाहे जिस पार्टी को ‘अपराजेय’ प्रोजेक्ट करेगा क्योंकि कोई निगरानी नहीं है, कोई जिम्मेदारी, कोई प्रतिबद्धता नहीं है पत्रकारिता के प्रति.

इसीलिए देखा गया था कि जब योगी मुख्यमंत्री बने तब कुछ देर के लिए लोगों ने देश के आदरणीय प्रधानमंत्री का भजन कम करके योगी का भजन ज्यादा शुरू कर दिया था. ‘योगी जी क्या खाते हैं, कैसे पानी पीते हैं, कैसे हिरन को गोदी में लेकर घास खिलाते हैं…’

मुझे लगता है कि उस समय सत्ताधारी पक्ष के अंदर भी बहुत से बातें चल रही थीं कि मोदी के बाद योगी को उभारने का यह प्रयास था संघ परिवार की शक्तियों का. मीडिया का जो हिस्सा इस परिवार से प्रभावित है, इस योजना को अमली जामा पहनाने में लगा था.

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योगी आदित्यनाथ (फाइल फोटो: पीटीआई)

इसी मीडिया द्वारा कहा गया कि त्रिपुरा की जीत में योगी का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है, उन्होंने वहां रहने वाले नाथ संप्रदाय को जोड़ा जैसे बातें कहना बहुत हास्यास्पद है.

मीडिया द्वारा ही यह भी उछाला गया था कि मोदी के बाद योगी बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं, इनके द्वारा ही यह कहा गया कि इनका कद मोदी के बाद हो जाएगा. उपचुनाव के नतीजों ने मीडिया के इस प्रयास को धक्का पहुंचाया है.

साथ ही 30 सालों से गोरखपुर में कायम इस जलवे को एक निषाद नौजवान का खत्म करना दिखाता है कि ये जो लगातार उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर के नाम पर जो हत्याएं हो रही थीं, उसका भी चुनाव में बहुत असर पड़ा है. आंकड़ों की मानें तो इन मुठभेड़ों में मारे गए 90% लोग पिछड़े वर्ग से आते हैं.

जिस तरह से 4 साल में मोदी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर काम कर रही है, ठीक वैसे ही 1 साल के अंदर योगी के खिलाफ भी ऐसा ही माहौल तैयार हो गया और इन नतीजों ने इन दोनों ही नेताओं का कद गिराया है. ये परिणाम दोनों की सरकारों के विरुद्ध जो जनाक्रोश इकठ्ठा हो रहा है, उसका नमूना है.

‘चाणक्य नीति’ नहीं सब मीडिया मैनेजमेंट है

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नरेंद्र मोदी और अमित शाह (फाइल फोटो: पीटीआई)

इसी तरह मीडिया द्वारा प्रचारित भाजपा की ‘चाणक्य नीति’ विफल हुई. भाजपा शुरू से ही मीडिया को लेकर काफी संवेदनशील और प्रो एक्टिव रही है.

वहीं वामपंथी लोगों के पास जैसे ही कोई पत्रकार जाता है, वो चाहे कोई भी हो वो उसे बुर्जुआ मीडिया कहते हैं. वामपंथी मीडिया को तत्काल हिकारत की नजर से देखते हैं. अब उनमें थोड़ी समझदारी आ रही है.

कांग्रेस की लंबे समय तक सत्ता रही तो वे मीडिया को मैनेज करते थे, लेकिन आरएसएस और भाजपा के पास जब सत्ता संरचना नहीं थी, तब भी वे मीडिया के प्रति काफी सजग थे कि कैसे मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया जाए.

बाद के दिनों में जब इनके पास सत्ता आई तो इन्होंने गुर सीखे. लालकृष्ण आडवाणी जब सूचना और प्रसारण मंत्री थे, तो राष्ट्रधर्म, पांचजन्य या इस तरह के जो संघ समर्थक संस्थान थे, उनके पत्रकारों को उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया में प्रमुख स्थान दिलवाया. उनके जरिये फिर कई लोगों की नियुक्तियां हुईं.

मेरा मानना है कि भाजपा बहुत माइक्रो लेवल पर मीडिया मैनेज करती है. वो मीडिया वालों को ऐसे छोटी-छोटी बातें बताती है कि मीडिया को लगता है कि वह, इस पर तो बड़ी अच्छी रिपोर्ट बन सकती है. जैसे ये पन्ना प्रमुख के बारे में ऐसे बताएंगे कि जैसे कोई बड़ी नई बात की गई हो. वामपंथियों के पास हो सकता है ऐसी कई चीजें हों जिसे वे मीडिया को देना जरूरी नहीं समझते हों.

एक और उदाहरण देता हूं. मैं सीबीआई जज लोया की रहस्यमयी मौत से जुड़ी एक रिपोर्ट पढ़ रहा था, जिसमें ज़िक्र था कि कहीं कहा गया था कि जिस दिन किसी व्यक्ति विशेष को लेकर कोई निर्णय आएगा, उस दिन देश में कोई और बड़ी घटना हो जाएगी, जिससे वो मामला दब जाए. उसे प्रमुखता न दी जाए. मैं नहीं जानता कि वो कितनी प्रामाणिक टिप्पणी थी.

तो जब राजनीतिक दर्शन के लोग यहां तक सोचते हैं तब आप कल्पना कीजिये कि मीडिया मैनेजमेंट के बारे में वो कितने सजग हैं. तो ये जो ‘चाणक्य नीति’ है ये सब मीडिया मैनेजमेंट है. जहां ये सफल हो जाते हैं, वहां इनकी कथित ‘चाणक्य नीति’ का ढोल पीटते हैं, जहां विफल हो जाते हैं तो कहते हैं कि अति-आत्मविश्वास हमें ले डूबा.

सपा-बसपा गठबंधन का भविष्य

मैं यह समझता हूं कि इस बार गोरखपुर और फूलपुर में जो इन लोगों ने कदम उठाया है, उसकी तार्किक परिणति यह है कि इन लोगों को आगे के सभी चुनाव साथ लड़ने चाहिए.

इस चुनाव में तो कोई स्पष्ट गठबंधन नहीं था, लेकिन नतीजे आने के बाद अखिलेश यादव और मायावती की जो मुलाकात हुई, उसके बाद अखिलेश ने संकेत दिया है कि वे इस को उचित परिणति तक पहुंचाएंगे, दोनों ओर से सहमति है.

निश्चित रूप से यह बहुत बड़ी घटना है. हालांकि दोनों के ही नेतृत्व में बहुत-सी कमजोरियां हैं, दोनों ही अपने-अपने समय में जनपक्षीय और बेहतर सरकार देने में नाकामयाब रहे, लेकिन बावजूद इसके मैं समझता हूं कि अगर उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा मिलकर चुनाव लड़ते हैं, तो मुझे नहीं लगता कि कोई ताकत इन्हें हरा सकेगी. वहां के सामाजिक आधार और हालात हैं, उसमें ये बड़ी जीत के हक़दार होंगे, इसमें कोई दोराय नहीं है.

मुझे यह भी लगता है कि कि सपा-बसपा नेतृत्व के दोनों परिवारों के सीबीआई, ईडी और ऐसे ही दुष्चक्रों में फंसने के डर से गठबंधन न करने की आशंकाओं को भी ये निर्मूल साबित करेंगे. उपचुनाव में जिस तरह की एकता दिखी है उससे लगता है कि ये उस डर को ख़ारिज करने में जुटे हैं और मुझे लगता है कि अगर कोई राजनीतिक दुर्घटना नहीं हुई तो इनका गठबंधन कामयाब होगा.

2019 में कामयाब होगा ‘महागठबंधन?

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सोनिया गांधी के आवास पर आयोजित डिनर में विभिन्न विपक्षी दलों के नेता (फोटो: twitter/OfficeOfRG)

कुछ रोज पहले सोनिया गांधी ने डिनर दिया था जिसमें 20 विपक्षी पार्टियों के नेता आये थे. शरद पवार पहले थोड़े इधर-उधर होते थे लेकिन हाल के कुछ महीनों में वे भी कंसिस्टेंट रहे हैं. तो ऐसे बहुत सारे नेता हैं जो साथ जुट रहे हैं और एक तरह की एकता उभरती दिखाई दे रही है.

बिहार में लालू यादव के जेल में होने के बावजूद राजद ने अपने बल पर चुनाव जीत लिया. हर जगह एकता दिख रही है. ममता बनर्जी भी इस बारे में सुसंगत हैं. इस चुनाव परिणाम और हाल की घटनाओं से लगता है कि विपक्षी एकता को 2019 से पहले अमली जामा पहना दिया जाएगा.

दिल्ली में साथ, गोरखपुर-फूलपुर में ख़िलाफ़!

फूलपुर-गोरखपुर में अपना प्रत्याशी उतारते हुए कांग्रेस ने सोचा होगा कि उपचुनाव में अपनी पार्टी की स्थिति को आजमाया जाना चाहिए. दूसरा पहलू यह हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में सक्रिय कुछ विपक्षी दलों के बीच यह अंडरस्टैंडिंग भी बन गई हो कि आप अपना प्रत्याशी खड़ा कीजिए, हम अपना.

वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भले ही फूलपुर में कांग्रेस प्रत्याशी के कम वोट आये, लेकिन अगर ये ज्यादा भी आते तो सपा-बसपा के उम्मीदवार को ही फायदा मिलता.

मैं बहुत प्रमाणिक ढंग से नहीं कह सकता लेकिन उपचुनाव में अलग प्रत्याशी देने से 2019 की बड़ी राजनीतिक लड़ाई पर कोई प्रभाव पड़ेगा.

उपचुनाव से बदल सकती है फिजा

स्थानीय चुनावों में स्थानीय समीकरण होती हैं, जो निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं. 1988 में इलाहाबाद में हुए उपचुनाव में वीपी सिंह कांग्रेस से बाहर आकर लड़े और जीते. उस उपचुनाव के बाद पूरे देश में फिजा बदल गई थी.

ऐसे बहुत-से उपचुनाव देश में हुए हैं, जिन्होंने फिजा बदल दी थी. एक ज़माने में मोहसिना किदवई का उपचुनाव भी हुआ था, उस चुनाव ने कांग्रेस की वापसी सुनिश्चित की थी. भले ही कांग्रेस ये चुनाव लड़ी लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसका राष्ट्रीय राजनीति के नए समीकरणों पर कोई असर होगा.

ये बातें भी चल रही हैं कि उपचुनावों में तो विपक्ष को सफलता मिल जाती है, चाहे राजस्थान हो, मध्य प्रदेश या ओडिशा, लेकिन जब आम चुनाव होते हैं तो विपक्ष को ऐसी कामयाबियां कम मिलती हैं.

गुजरात में लगता था कि विपक्ष कामयाब होगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. लेकिन अब जनता सवाल उठा रही है. उसे निर्वाचन की प्रक्रिया पर भी संदेह है. किसी देश में अगर मतदाता जिसे मत देना चाहता है और उसे मत दे पाने की प्रक्रिया पर उसे संदेह है तो यह लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है.

निर्वाचन आयोग और सभी राजनीतिक दलों को साथ आकर इसका समाधान करना चाहिए. यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उपचुनाव के दौरान गोरखपुर के डीएम की भूमिका पर सवाल उठ चुके हैं.

भाजपा के लिए यही सबक है कि वो जुमलों से 2019 का चुनाव नहीं जीत सकती. अररिया एक उदाहरण है, जहां प्रदेश अध्यक्ष ने नारा दिया था कि भाजपा को नहीं जिताया तो अररिया आईएसआई का गढ़ बन जाएगा. जनता अब ऐसे जुमलों को समझती है. वहां लोगों ने राजद उम्मीदवार को वोट किया. वहां न धर्म काम किया न जाति.

दूसरी सीख विपक्षी दलों के लिए है कि उन्हेंअपने ईगो और दलगत संकीर्ण हितों को छोड़कर लोकतंत्र का ख्याल करना चाहिए. लोकतंत्र बचा रहेगा तभी उनकी राजनीति बची रहेगी.

इसके अलावा दलीय गठबंधन को राजनीतिक एजेंडा के रूप में लेना चाहिए, यह नहीं कि गठबंधन से सरकार बना ली लेकिन फिर कुछ नहीं किया और राज्य पिछड़ता गया. एक ज़माने में लोग कांग्रेस के खिलाफ लामबंद हुए थे और आज लोकतंत्र की यह जरूरत है कि मजबूत विपक्ष उभर के आये.

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं. मीनाक्षी तिवारी से बातचीत पर आधारित)