रजनी कृष की संदिग्ध मौत के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बुलाई प्रेसवार्ता, कहा बंद हो संस्थानिक हत्याओं का खेल
हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला के आत्महत्या प्रकरण के बाद से देश भर के विश्वविद्यालयों में दलित उत्पीड़न के मामले सामने आ रहे हैं. ताज़ा मामला जेएनयू का है. पहले नजीब का रहस्यमय परिस्थितियों में कैंपस से ग़ायब हो जाना और अब तमिलनाडु के दलित छात्र मुथुकृष्णनन की संदिग्ध मौत से तमाम सवाल उठ खड़े हुए हैं.
जेएनयू में एमफिल के छात्र रजनी कृष उर्फ़ मुथुकृष्णनन जीवानंदम का शव सोमवार को उनके एक दोस्त के कमरे से बरामद हुआ था. रजनी की मौत के बाद बुधवार को सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह ने दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब में एक प्रेस वार्ता बुलाई और विश्वविद्यालय परिसरों में लगातार दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के छात्रों के उत्पीड़न के सवालों को उठाया. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद रजनी कृष के कुछ दोस्तों के मुताबिक, ‘रजनी की मौत संदिग्ध है. उसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए. उसका शव ऐसी हालत में था जिसे देखकर लग रहा था कि यह आत्महत्या नहीं, बल्कि हत्या है.’
प्रेस वार्ता की शुरुआत करते हुए डॉ. सूरज बड़ात्या ने कहा, ‘हैदराबार रोहित से शुरू हुआ उत्पीड़न अभियान जेएनयू तक पहुंच गया है. यह एक फासीवादी सामाजिक अभियान है जिसे हम चलने नहीं देंगे. हम लड़ेंगे, हारेंगे और फिर लड़ेंगे, लेकिन इसे कामयाब नहीं होने देंगे. ये संस्थानिक हत्याओं का खेल बंद होना चाहिए.’
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डीयू के प्रोफ़ेसर हंसराज सुमन ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा, ‘पिछले दो वर्ष से विश्वविद्यालयों में संस्थानिक हत्याएं हो रही हैं. अब ये आम हो चली है. कैंपस में दलित छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है, अधिकांश रिसर्च के स्तर पर. यूजीसी के नियमों तक में भेदभाव है. जो छात्र लिखित परीक्षा में 98 फ़ीसदी नंबर लेकर आते हैं, उन्हें इंटरव्यू में फेल करके प्रवेश से वंचित किया जा रहा है. डीयू, बीएचयू, जेनएयू समेत सभी विश्वविद्यालयों में ऐसा भेदभाव होता है. यह अध्यापकों के स्तर पर भी होता है.’
डीयू के कई कॉलेजों के नाम गिनाते हुए उन्होंने कहा, ‘सुखदेव थोराट कमेटी ने हर विश्वविद्यालय में एससी/एसटी सेल स्थापित करने की सिफ़ारिश की थी, लेकिन इस पर कोई काम नहीं हुआ. जबकि, हमारे पास हर विश्वविद्यालय में भेदभाव और उत्पीड़न के उदाहरण मौजूद हैं. इससे कैसे निपटा जाए, इसीलिए ये कॉन्फ्रेंस बुलाई गई है.’
मौजूदा केंद्र सरकार पर सवाल उठाते हुए डॉ. सुमन ने कहा, ‘नई सरकार भी इस मसले पर ख़ामोश है. नारा है सबका साथ सबका विकास, लेकिन विकास कुछ ही लोगों का हो रहा है. बजट में 45 फ़ीसदी कटौती कर दी गई. पदों की संख्या भी घटा दी गई है. तीन तरह के भेदभाव होते हैं, जाति, रंग और भाषा के आधार पर. ग्रामीण परिवेश से आए तमाम छात्र अंग्रेजी में कमज़ोर होते हैं, लेकिन उन्हें अतिरिक्त मदद मुहैया नहीं कराई जा रही है. पैसा आ रहा है लेकिन ख़र्च नहीं हो रहा है. भेदभाव करके दलित छात्रों को अयोग्य घोषित कर दिया जाता है. डीयू में कोई कॉलेज ऐसा नहीं है जहां पर दलित समुदाय के लोगों का उत्पीड़न न होता हो. सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है.’
उन्होंने मांग की कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में प्रो. सुखदेव थोराट कमेटी की सिफ़ारिशों को लागू किया जाए. एससी/एसटी सेल स्थापित की जाएं. ग्रीवेंस सेल स्थापित हों.
साहित्यकार अनीता भारती ने कहा, ‘रोहित वेमुला जैसे छात्र जो कुछ झेल रहे हैं, हम सब वही झेलकर बड़े हुए हैं. हर जगह दलितों, आदिवासियों के साथ भेदभाव किया जाता है. प्रदेशों से आने वाले ग्रामीण, ग़रीब छात्र कैंपसों में अकेले पड़ जाते हैं. उनके सामने भाषाई सीमा भी होती है. वे अकेले पड़कर षडयंत्रों का शिकार हो जाते हैं. ऐसे बच्चों को लक्ष्य करके फेल कर दिया जाता है. दिल्ली आईआईटी के मामले में ऐसा ही हुआ कि 12 दलित छात्र थे, सभी को फेल कर दिया गया था. कैंपसों का माहौल बेहद जातिवादी है. अचानक शोधछात्रों के टॉपिक या गाइड बदलकर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. जातिवाद की जकड़बंदी बहुत ज़्यादा है, इसके तहत यह कोशिश की जाती है कि कैसे दलित बच्चों को उच्च शिक्षा से दूर रखा जाए. जाति, भाषा और रंग के आधार पर भेदभाव को ख़त्म करना होगा. कैंपसों में जातिवाद अपने नंगे रूप में सामने है.’
पत्रकार अनिल चमड़िया ने एम्स में दलित छात्रों की आत्महत्या की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा, ‘वहां कई छात्रों ने आत्महत्या कर ली. कई कमेटियां भी बनीं. अनिल मीणा टॉपर था, लेकिन उसने आत्महत्या इसलिए की क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी और इसलिए उसे प्रताड़ित किया जाता था. कैंपसों में सरकारी स्कूल में पढ़े, ग्रामीण, दलित और पिछड़े बच्चों को शिक्षा से बाहर करने का षडयंत्र चल रहा है. मिथकों में सिर्फ़ एक द्रोणाचार्य थे, आधुनिक शिक्षा तंत्र में तमाम स्तर पर तमाम द्रोणाचार्य बैठे हैं. पूरा सिस्टम असंवेदनशील है. तंत्र ये गारंटी नहीं दे पा रहा है कि वातावरण प्रताड़ित करने वाला न हो. रोहित वेमुला, रजनी कृश, नजीब आदि से जुड़ी घटनाएं इन समुदाय को ये संदेश है कि यहां आओगे तो यही हश्र होगा. भेदभाव की लिस्ट ख़त्म नहीं होती. पूरे समुदाय को पढ़ने से रोका जा रहा है.’
आरक्षण में भेदभाव का मुद्दा उठाते हुए चमड़िया ने कहा, ‘पिछड़े और दलितों को जनरल कैटेगरी में आने ही नहीं दिया जाता. जनरल आरक्षण की नई कैटेगरी है. मैं ख़ुद कई पैनल में रहा हूं. दलित या पिछड़े छात्रों को सामान्य कैटेगरी में लाने से मुझे रोका गया. व्यवस्था फेल हो रही है. यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि सरकार तंत्र को जवाबदेह और संवेदनशील बनाए.’
आॅल इंडिया डेमोक्रेटिक वोमेन्स एसोसिएशन से जुड़ीं एनी राजा ने रजनी कृष के मसले में जांच की मांग करते हुए कहा कि सच जो भी हो सामने आना चाहिए. दलित, आदिवासी, पिछड़े और महिलाओं ड्रॉप आउट बहुत ज़्यादा है. उस पर ध्यान देने की जगह कैंपसों में डर फैलाया जा रहा है. यह एक राजनीतिक मुद्दा है, क्योंकि ब्राह्मणवाद और फासीवाद भी राजनीतिक ही है. उसे इसी रूप में देखना चाहिए. विश्वविद्यालयों में डर फैलाया जा रहा है. जेएनयू को एंटी नेशनल बताकर डर फैलाया गया. दलित छात्रों के सामने हॉस्टल, फीस, भाषा, रंग, जाति, शोधकार्य आदि के मसले में भेदभाव करके उनमें डर पैदा किया जाता है. जेएनयू की बेहरीन एडमिशन पॉलिसी को विश्वविद्यालय प्रशासन अपने स्तर पर बदल कर वंचितों के साथ अन्याय कर रहा है. लेकिन दलित छात्रों के साथ अन्याय पर एक्शन नहीं हो रहा है.’
प्रोफ़ेसर हंसराज सुमन ने पैनल की तरफ से सुखदेव थोराट कमेटी की सिफारिशें लागू करने की मांग करते हुए कहा, ‘थोराट कमेटी की सिफ़ारिशों पर संसद में चर्चा हुई थी. दूसरी भी कई समितियां बनीं लेकिन इनमें से किसी भी समिति की रिपोर्ट या सिफ़ारिशों पर कोई काम क्यों नहीं हुआ. दो साल से राजीव गांधी फेलोशिप नहीं मिली. छात्रों की पढ़ाई संकट में है. वे असुरक्षित हैं, लेकिन इसका कोई संज्ञान भी नहीं ले रहा.’
साहित्यकार हेमलता माहीश्वर ने कहा, ‘संस्थानों में ऐसी वारदात बढ़ रही हैं. यह चिंता का विषय है. रजनी कृष के एक दोस्त ने बताया कि कुछ समय पहले उसके पास एकदम पैसे नहीं थे. उसने दो दिन से कुछ नहीं खाया था. दोस्त ने ले जाकर खाना खिलाया, उसे इतनी भूख लगी थी कि वह एक के बाद तीन डोसा लगातार खाता गया. वह मेहनत और संघर्ष करके वहां तक पहुंचा था. आखिर मरने के लिए तो इतना संघर्ष नहीं किया! आरक्षण समता के लिए लाया गया था, लेकिन उसे ऐसा बना दिया गया है कि वह जानलेवा बन गया है. वह हिंसा और घृणा से ग्रस्त हो गया है. कौन है जो इस समाज को बराबरी पर आने से रोकना चाहता है?’
‘और कितने रोहित’ के लेखक और डीयू के प्रोफेसर रतनलाल ने दमन की बारीकियों की पहचान करने की वकालत करते हुए कहा, ‘कैंपसों में जातिवाद की स्थिति बहुत भयानक है. मैं अपनी 20 साल के अनुभव से कह सकता हूं कि भेदभाव बहुस्तरीय है, इस देश में कोई भी दलित सुरक्षित नहीं है. क्या समानता, बंधुत्व, सौहार्द, सामाजिक न्याय आदि सिर्फ़ चुनावी नारे हैं? देश की संसद में 130 सांसद हैं और सब मुंह में दही जमाए बैठे हैं.’
इसके अलावा कॉन्फ्रेंस में मौजूद जेएनयू के छात्र बाल गंगाधर बाग़ी और गोबर्धन ने भी अपनी बात रखी. उन्होंने जेएनयू प्रशासन और अध्यापकों पर गंभीर क़िस्म के जातीय भेदभाव करने का आरोप लगाया. गोबर्धन ने कहा कि हम भेदभाव के मसले उठाते हैं तो हमसे सवाल किया जाता है कि यहां राजनीति करने आए हो या पढ़ने आए हो. मैं कहना चाहता हूं कि हम पढ़ेंगे भी, सवाल भी करेंगे और लड़ेंगे भी क्योंकि बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था, राजनीति हर ताले की चाबी है.