विशेष रिपोर्ट: व्हिसिल ब्लोअर की मदद से राजस्थान पुलिस सैकड़ों ग्राहकों को ठगने के आरोप में आईसीआईसीआई बैंक के अधिकारियों की जांच कर रही है. लेकिन देश के बीमा और बैंकिंग नियामक इस बात से बेपरवाह हैं.
देश का ध्यान इन दिनों पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) घोटाले पर है. अरविंद सुब्रमण्यम जैसे सरकार से जुड़े अर्थशास्त्रियों, कॉरपोरेट प्रमुखों, कारोबारी मीडिया- सबके लिए पीएनबी घोटाला एक मौके की तरह आया है.
पीएनबी घोटाले का उदाहरण देकर इन्होंने सरकारी बैंकों के निजीकरण की मांग उछाल दी है, जो इनके मुताबिक बैंकिंग जगत की समस्याओं का समाधान है.
दूसरी तरफ वैधानिक विनियामकों ने इस तथ्य की ओर आंखें मूंद सी ली है कि निजी क्षेत्र के नए निजी बैंकों और उनकी जीवन बीमा कंपनियों ने काफी बड़ी संख्या में साधारण बैंक ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी की है.
राजस्थान में आईसीआईसीआई बैंक के अधिकारियों ने आईसीआईसीआई बैंक की सहयोगी आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ इंश्योरेंस के साथ मिलकर ग्राहकों को ठगने का काम किया और उन्हें गलत तरीके से बीमा पॉलिसी बेच दी.
इसका खुलासा नितिन बालचंद्रानी नामक एक व्हिसिल ब्लोअर ने किया है. इनमें से कई ग्राहक कम आय वाले किसान थे, जिन्हें विशेष तौर पर निशाना बनाया गया.
ऐसा लगता है कि इन कंपनियों ने खुले दिल से मैंनेजमेंट गुरु सीके प्रह्लाद के इस सिद्धांत को अपना लिया है कि सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों से भी कॉरपोरेट लाभ कमाया जा सकता है.
प्रह्लाद का दावा है कि इससे सपने देखने वाले गरीबों के जीवन में समृद्धि आएगी. लेकिन, राजस्थान के किसान, जरूर इससे अलग राय रखते होंगे.
आईसीआईसीआई बैंक और आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ ने पढ़े-लिखों को भी नहीं छोड़ा.
यह सब कैसे हुआ और किस तरह से यह गोरखधंधा जारी है- और इससे भी परेशान करने वाली बात यह कि बीमा विनियामक ने इस स्थिति को ठीक करने या ग्राहकों की रक्षा करने के लिए कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया है- इस बात का खुलासा इंश्योरेंस एंजल्स ने किया है.
इंश्योरेंस एंजल्स आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ के पूर्व कर्मचारी बालचंदानी द्वारा स्थापित एक रजिस्टर्ड संस्था है.
इंश्योरेंस एंजल्स धोखा देकर पॉलिसी बेच दिए गए लोगों को संबंधित बीमा कंपनियों से पैसे वापस दिलवाने का काम करती है. आज की तारीख तक यह ज्यादातर शिकायतकर्ताओं के पैसे वापस दिलाने (रिफंड दिलवाने) में कामयाब रही है.
अली हुसैन आरिफ़ का मामला
अली हुसैन आरिफ़ का मामला (आईसीआईसीआई पॉलिसी नंबर #****3146 & #****4432) खास तौर पर आंखें खोलनेवाला है. नैतिकता को ताक पर रख कर किस तरह से धोखे से बीमा बेचने का गोरखधंधा चल रहा है, इसकी जानकारी हमें इस मामले से मिलती है.
ज़ुबैदा बाई सन 2000 में हिंदुस्तान जिंक से सेवानिवृत्त हुई थीं. सेवानिवृत्त के समय वे सीनियर पद पर काम कर रही थीं.
दिसंबर, 2014 में उन्होंने 10 लाख रुपये का फिक्स्ड डिपॉजिट कराने के लिए आईसीआईसीआई बैंक के फतेहपुर ब्रांच, उदयपुर से संपर्क किया, जहां उनका बचत खाता था.
अविवाहित होने के कारण, उन्होंने फिक्स्ड डिपॉजिट में अपने भतीजे/भांजे को नामित करने (नोमिनी बनाने) का फैसला किया.
ज़ुलेखा ताज बैंक की ब्रांच मैनेजर थीं. ज़ुबैदा बाई से उनकी बातचीत होती थी. ताज को ज़ुबैदा बाई के अविवाहित होने की जानकारी थी और यह भी पता था कि 70 साल की ज़ुबैदा को बीमा पॉलिसी नहीं बेची जा सकती है.
इसलिए ताज ने ज़ुबैदा बाई को फोन करके अपने भतीजे/भांजे को आईसीआईसीआई बैंक शाखा में लेकर आने के लिए कहा.
अली हुसैन आरिफ़ उदयपर की मोहन लाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी में एमबीए की पढ़ाई करते थे और उस समय उनकी उम्र 22 साल थी.
आईआरडीएआई (भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण)- इरडा के नियमों के मुताबिक बीमा योजनाएं किसी छात्र को नहीं बेची जा सकतीं. इसलिए ज़ुलेखा ने जीवन बीमा पॉलिसी के फॉर्म में अली हुसैन आरिफ़ को एक कारोबारी के तौर पर दिखाया और उसकी आय प्रतिवर्ष 20 लाख रुपये दिखा दी.
नियमों के मुताबिक थर्ड पार्टी पेमेंट की इजाजत नहीं है, लेकिन ज़ुबैदा द्वारा हस्ताक्षरित एक बैंक चेक का इस्तेमाल करके उसके खाते से एक डिमांड ड्राफ्ट बनवाया गया (जुबैदा की इजाजत लिए बगैर) और उस डिमांड ड्राफ्ट का इस्तेमाल अली हुसैन आरिफ के नाम से बीमा पॉलिसी (नं. ****3146, तारीख 3 दिसंबर, 2014) के प्रीमियम का भुगतान करने के लिए किया गया.
विनियामकों के हिसाब से ऐसे लेन-देन तकनीकी तौर पर मनी लाउंड्रिंग की श्रेणी में आते हैं और इसलिए प्रतिबंधित है.
जनवरी, 2015 में, यानी फर्जी तरीके से पहली पॉलिसी जारी किए जाने के एक महीने के बाद ज़ुबैदा के साथ दूसरी बार धोखाधड़ी की गयी.
इस बार भी वही तरीका वही अपनाया गया. लेकिन दूसरी पॉलिसी के फॉर्म (नं. ****4432, 20 जनवरी, 2015 को जारी किया गया) में ज़ुलेखा ताज ने अली हुसैन आरिफ़ की आय प्रतिवर्ष 30 लाख रुपये दिखायी. यानी दिसंबर में जारी की गयी पॉलिसी से 10 लाख रुपये ज्यादा.
इन सबके बीच जुबैदा बाई को यह लगता रहा कि ज़ुलेखा ताज उसके पैसे से फिक्स्ड डिपॉजिट खोल रही है और उसका भांजा/भतीजा उसमें नामित है.
इस तरह इस मामले में आईसीआईसीआई बैंक ने चार धोखेबाजी की:
1.आईसीआईसीआई बैंक द्वारा ज़ुबैदा बाई के नाम से एक फिक्स्ड डिपॉजिट जारी करने की जगह, आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ ने अली हुसैन आरिफ़ के नाम से एक बीमा पॉलिसी जारी कर दी.
2.अली हुसैन आरिफ़ को पेशे से एक कारोबारी दिखाया गया, जिसकी 22 साल की उम्र में सालाना कमाई 20 लाख रुपये थी, जबकि हकीकत में वह एक छात्र था, जिसे बीमा पॉलिसी बेची ही नहीं जा सकती थी.
3. जुबैदा के बैंक खाते के पैसे का इस्तेमाल अली हुसैन आरिफ के नाम से बीमा पॉलिसी जारी करने के लिए किया गया. यह थर्ड पार्टी पेमेंट का मामला है, जिसकी इजाजत नहीं है और साथ ही यह मनी लाउंड्रिंग की श्रेणी में आता है.
4.एक महीने के भीतर अली हुसैन आरिफ़ की सालाना घोषित आय 20 लाख रुपये से बढ़कर 30 लाख रुपये हो गयी. यह सिर्फ उन्हें दूसरी पॉलिसी बेचे जाने के लायक दिखाने के लिए किया गया.
ज़ुबैदा ने 7 अप्रैल, 2015 को आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ को एक शिकायत की, मगर आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ ने उनके दावे को खारिज कर दिया कि उनके साथ धोखाधड़ी की गयी है.
इसके बाद, उन्होंने 29 अक्टूबर, 2015 को ई-मेल से आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ चंदा कोचर से शिकायत की. इसमें उन्होंने एक सवाल पूछा:
‘क्या बैंक के पास मेरे द्वारा दी गई ऐसी कोई लिखित स्वीकृति है, जिसमें मैंने उसे अपना पैसा किसी दूसरे के नाम से निवेश करने की इजाजत दी है?’
इस सवाल का जवाब देते हुए, चंदा कोचर के एक्जीक्यूटिव असिस्टेंट और सीनियम मैनेजमेंट डेस्क का हिस्सा चंद्रमौली रपोलू ने 3 नवंबर, 2015 को एक चौंकानेवाला जवाब दिया:
‘यह निवेश आपसी सहमति से ही किया गया और इसकी पृष्ठभूमि में यह बात भी थी कि वही भांजा/भतीजा आपके सारे खातों और आपके सारे निवेशों में नामित है.’
इस तरह से सीईओ के एक्जीक्यूटिव असिस्टेंट ने अपने जवाब में यह स्वीकार किया कि आईसीआईसीआई बैंक आपसी सहमति, जो संभवतः मौखिक तौर पर दी गई थी, से गैरकानूनी कारोबार (मसलन, ग्राहक के पैसे से थर्ड पार्टी के नाम से पॉलिसी जारी करना) करता है.
यह विनियामक नीतियों का साफ-साफ उल्लंघन है और तकनीकी तौर पर यह मनी लाउंड्रिंग का मामला बनता है.
जुबैदा ने इस जवाब का हवाला देते हुए, रिजर्व बैंक के गवर्नर को एक ई-मेल भेजा, जिसकी एक प्रति आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ को भी भेजी गयी.
इसे भेजने के कुछ घंटों के भीतर ही उन्हें आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ की तरफ से एक फोन कॉल आया, जिसमें यह कहा गया कि कंपनी दोनों बीमा योजनाओं में लिया गया प्रीमियम उन्हें वापस कर रही है.
इस बात की पुष्टि 23 नवंबर, 2015 को आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ की तरफ से आए आधिकारिक संदेश से भी हो गयी.
विनियामक द्वारा ‘भटकाने की कोशिश’
आईसीआईसीआई बैंक और वह भी आईसीआईसीआई बैंक के सीईओ के ऑफिस की तरफ से इस बात को औपचारिक तौर पर स्वीकार किया गया था कि कि बैंक ‘आपसी सहमति से’ (यानी औपचारिक दस्तावेजों के बगैर) कारोबार करता है.
दिलचस्प यह है कि आरबीआई को इस बात की जानकारी थी, मगर इसके बावजूद वह इस बात से बेपरवाह नजर आता है कि निजी क्षेत्र का एक बड़ा बैंक गलत तरीके से बीमा योजनाएं बेच रहा है.
ज़ुबैदा बाई का मामला, इस तरह का इकलौता मामला नहीं है. राजस्थान में आईसीआईसीआई बैंक द्वारा धोखाधड़ी के मामले की प्राथमिक जांच करने वाले एएसपी (स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप) महावीर सिंह राणावत ने द वायर को बताया:
‘अब तक हमारी जांच से धोखाधड़ी और इरडा (भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण) के दिशा-निर्देशों के गंभीर उल्लंघन की बात सामने आयी है. बैंक और बीमा अधिकारियों ने भी जांच में सहयोग नहीं किया और हमें भटकाने की कोशिश की. यह काफी बड़े पैमाने पर की गई धोखाधड़ी है.’
यह आईसीआईसीआई बैंक की साख पर बट्टा लगाने वाला बड़ा आरोप है. बीमाधारकों के लिए यह ज्यादा चिंता की बात होनी चाहिए कि उंगली बीमा विनियामक पर भी उठायी गयी है.
आईआरडीएआई ने जिस तरह का बर्ताव आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ पर नकेल कसने की कोशिश करने वाले अपने एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ किया, वह काफी कुछ बयान करने वाला है.
आईआरडीएआई के अधिकारी के कार्यकाल को बीच में समाप्त कर दिया गया
एक सरकारी जनरल इंश्योरेंस कंपनी से डेपुटेशन पर गए महेश जोशी शांतिलाल आईआरडीएआई के मुंबई क्षेत्रीय ऑफिस में बतौर ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी (ओएसडी)-ग्रीवांस काम कर रहे थे.
27 फरवरी, 2016 को अपने सीनियर टीएस नाइक- हेड ऑफ द कंज्यूमर एडवोकेसी डिपार्टमेंट, और आईआरडीएआई के अन्य अधिकारियों को भेजे एक ई-मेल में उन्होंने आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ द्वारा की जा रही धोखाधड़ी की जांच करने के लिए कहा था और यह स्पष्ट टिप्पणी की थी:
‘कृपया शिकायत के आधारों की समीक्षा कीजिए. आईसीआईसीआई के खिलाफ ऐसी शिकायतें बड़ी संख्या में आ रही हैं.’
25 मई, 2016 को, आईआरडीएआई अधिकारियों को भेजे गए एक ई-मेल में आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ द्वारा धोखाधड़ी के एक अन्य मामले में कार्रवाई करने की मांग करते हुए उन्होंने कहा था:
‘यह एक और चिंताजनक मामला है, जिसकी ओर प्राधिकरण को ध्यान देना चाहिए. अगर तथ्य सही हैं, तो पैसे वापस दिलाने के साथ यह विनियामक द्वारा कार्रवाई की भी मांग करता है.’
पांच दिन पहले 20 मई को जोशी ने अपने साथी आईआरडीएआई अधिकारियों को आईसीआईसीआई के खिलाफ एक और शिकायत के संबंध में एक ई-मेल भेजा था:
‘…राजस्थान क्षेत्र में आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल के खिलाफ आयी अनेक शिकायतों की जांच में हमें कई बेहद गंभीर अनियमितताओं, या कहें अनुचित कारोबारी तरीकों का पता चला है. अनियमितताओं की संख्या इतनी ज्यादा है कि एक दिन विनियामक की भूमिका पर भी सवाल उठ सकते हैं.’
जोशी जिस दिन की भविष्यवाणी कर रहे थे, वह दिन आ गया है. ऐसा लगता है कि जीवन बीमा पॉलिसी धारकों की रक्षा करने के लिए आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ के खिलाफ जो कार्रवाई इरडा को करनी चाहिए थी, वह पुलिस करने वाली है.
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर बीमा विनियामक किसके हितों की रक्षा कर रहा था?
यह तथ्य अपने आप में काफी कुछ कहता है कि इरडा में जोशी का कार्यकाल काफी संक्षिप्त रहा. वे वहां अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और उन्हें अपनी पुरानी कंपनी में समय से पहले ही लौटना पड़ा.
यह कहने की जरूरत नहीं है कि इरडा ने राजस्थान में आईसीआईसीआई प्रुडेशियल द्वारा बड़ी संख्या में गलत तरीके से बीमा योजनाएं बेचने की शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं की
‘टार्गेट’ पूरा करने का जबरदस्त दबाव
इन सारी शिकायतों को अगर गौर से देखें, तो यह आईसीआईसीआई बैंक और आइसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ के सीनियर मैनेजमेंट द्वारा अपने निचले स्तर के कर्मचारियों पर किसी भी कीमत पर जीवन बीमा योजनाएं बेचने के दबाव को उजागर करता है.
इन शिकायतों को देखने से ऐसा लगता है कि बिक्री के टार्गेट पूरा करने पर मिलने वाले इनाम और इसे पूरा न करने पर दी जाने वाली सजा का चक्रव्यूह ऐसा था कि निचले स्तर के कर्मचारी झूठ बोलने और गलत तरीके से बीमा योजनाएं बेचने पर मजबूर हुए.
यह दबाव इतना ज्यादा है कि लक्ष्यों को पूरा करने में नाकाम रहने वाला व्यक्ति किसी भी हद तक जा सकता है.
11 अक्टूबर, 2017 को एक स्थानीय मीडिया ने मध्य प्रदेश के धार के बदनावर में आईसीआईसीआई बैंक के असिस्टेंट ब्रांच मैनेजर की आत्महत्या की खबर प्रकाशित की थी.
मृत्यु के समय दिए गए अपने बयान में कृषि कर्जों के लक्ष्यों और बीमा पॉलिसी बेचने के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मैनेजमेंट द्वारा डाले जा रहे असहनीय दबाव को अपनी आत्महत्या का कारण बताया था.
इस लेखक का मानना है कि यह संभव ही नहीं है कि दोनों कंपनियों का सीनियर मैनेजमेंट निचले स्तर के कर्मचारियों की कारगुजारियों से वाकिफ न हो. इसलिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.
आईसीआईसीआई बैंक और आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ द्वारा धोखे से बीमा बेचे जाने की बात को सबसे पहले व्हिसल ब्लोअर नितिन बालाचंदानी ने उजागर किया था.
उन्होंने इरडा, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, सीरियस फ्रॉड इंवेस्टीगेशन आॅफिस (एसएफआईओ), वित्त मंत्री के कार्यालय और प्रधानमंत्री कार्यालय को भी शिकायत भेजी थी. लेकिन, अफसोस की बात है कि उनके द्वारा बार-बार शिकायतों के बावजूद इरडा ने कोई कार्रवाई नहीं की.
उलटे आईसीआईसीआई ने ही उनके खिलाफ गोपनीय जानकारियां चोरी करने के आरोप में पुलिस में मामला दर्ज कर दिया. इस मामले में उन्हें 30 दिन न्यायिक हिरासत में रहना पड़ा.
एक पूर्व कर्मचारी के खिलाफ पुलिस में शिकायत आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ के सीईओ संदीप बक्शी की अनुमति के बगैर दर्ज नहीं नहीं हो सकती थी.
सरकार और आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ कोर्ट में इस बात का कोई सबूत नहीं दे पायी कि नितिन बालचंद्रानी ने कोई गोपनीय सूचना की चोरी की है.
राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बेंच ने 16 जनवरी, 2018 को फैसला सुनाते हुए (सीरियल नं. 42, केस नं. 1447/2017) नितिन बालचंदानी को सारे आरोपों से बरी कर दिया और कहा:
‘इंवेस्टीगेशन ऑफिसर द्वारा याचिकाकर्ता (नितिन बालचंदानी) के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 420 (धोखाधड़ी और बेईमानी) के तहत चार्जशीट दाखिल करने का कोई औचित्य नहीं था.’
आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ ने अपने व्हिसिल ब्लोअर के साथ जैसा सुलूक किया, उससे यह साफ पता चलता है कि कंपनी किस तरह से बदले की भावना से काम कर रही थी. वैसे वास्तव में यह हर व्यक्ति को चेतावनी देने की कोशिश थी, जो भविष्य में व्हिसिल ब्लोअर बनने की सोच सकता है.
न मीडिया के पास समय, न विश्लेषकों के पास न विनियामकों के पास
आईसीआईसीआई बैंक और आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ द्वारा राजस्थान में सुनियोजित ढंग से धोखाधड़ी से बीमा पॉलिसी बेचने के प्रकरण में बड़े मीडिया संस्थानों की भूमिका इसके चरित्र को उजागर करती है.
इसका रुख इस बात का सबूत है कि विज्ञापन देने वाले प्रमुख कॉरपोरेटों की हकीकत सामने लाने में इसकी कोई रुचि नहीं है. नितिन बालचंदानी इरडा को भेजी गयी सभी शिकायतों की प्रति सभी बड़े मीडिया घरानों को भेजी थी, लेकिन किसी ने भी इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी.
हिंदी भाषा की राजस्थान पत्रिका ने एक स्टोरी की (वह भी तब, जब राजस्थान पुलिस द्वारा आईसीआईसीआई बैंक और आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के बाद).
अंग्रेजी मीडिया में द वायर के अलावा किसी ने इस खबर को छापने की जहमत नहीं उठायी. इस खबर के बाद ब्लूमबर्ग क्विंट ने एक स्टोरी की जरूर, मगर कुछ ही घंटे के बाद उसे हटा दिया.
अंग्रेजी कॉरपोरेट मीडिया टीवी चैनलों ने इस धोखाधड़ी की कोई खबर चलाने से पूरी तरह से इनकार कर दिया और राजस्थान की घटनाओं को लेकर आईसीआईसीआई की सीईओ से दावोस में कोई सवाल पूछना मुनासिब नहीं समझा.
संस्थागत क्लाइंटों के लिए आईसीआईसीआई बैंक और आईसीआईसीआई प्रुडेंशिल लाइफ को कवर करने वाले शेयर बाजार विश्लेषकों ने अगर इस पूरे प्रकरण को नजरअंदाज किया, तो उनकी मजबूरी समझी जा सकती है.
उनकी चुप्पी समझ में आने वाली है, क्योंकि वे अपना ज्यादातर समय अपने संस्थागत क्लाइंटों को कॉरपारेट पहुंच देने में खर्च करते हैं.
किसी कंपनी पर कोई नकारात्मक टिप्पणी लिखने पर उन पर यह खतरा सदैव बना रहता है कि वह कंपनी उन्हें ब्लॉक न कर दे.
उपटन सिंक्लेयर के हवाले से कहा जाए तो, ‘जब किसी व्यक्ति की पगार, उसके न समझने पर निर्भर करती है, तो उस व्यक्ति को कुछ समझाना मुश्किल होता है’ लेकिन, क्या यही बात दोनों विनियामकों पर भी लागू होती है?
आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ और आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ इंश्योरेंस कंपनी की चेयरपर्सन चंदा कोचर को और आईसीआईसीआई प्रुडेंशियल लाइफ इंश्योरेंस कंपनी के सीईओ संदीप बक्शी और इरडा के चेयरमैन के कार्यालय और इसके अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी गयी थी, लेकिन बार-बार याद दिलाने के बावजूद न तो उनके द्वारा पावती की सूचना दी गयी, न उन्होंने उसका कोई जवाब दिया.
(हेमिंद्रा हज़ारी स्वतंत्र मार्केट एनालिस्ट हैं.)
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